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Rated: E · Book · Cultural · #1510158
Hindi poems in Hindi script, mainly ghazals, Serial no. 1-700
#626799 added December 30, 2008 at 3:19pm
Restrictions: None
Poems / ghazals in Hindi script, no. 341- 400


341. दिल के धड़कने का सबब क्या कहें


दिल के धड़कने का सबब क्या कहें
राज़ ज़ाहिर हो गया अब क्या कहें

दोस्तों से था छिपाया इश्क को
जाने सारे यार ये सब क्या कहें

पूछे जब माशूक "क्या है हम से प्यार?"
सुन के ये सवाल बेढब क्या कहें

और फिर "क्यों गैर को देखा किये?"
बन्द करने पड़ते हैं लब क्या कहें

इश्क पोशीदा ही बेहतर है खलिश
लोग दुनिया के भला कब क्या कहें.

महेश चंद्र गुप्त खलिश
23 जून 2006





३४२. हम गुज़र रहे थे आप की नज़र इधर पड़ी


हम गुज़र रहे थे आप की नज़र इधर पड़ी
यूं लगा कि जैसे कोई चान्दनी बिखर पड़ी

आप की नज़र से रूप मेरा यूं निखर गया
ज्यों कि इक गुलाब से हर एक कांटा झड़ गया

होंठ आप के हिले तो हम ने जाने क्या सुना
जो ज़माने ने कहा कर दिया वो अनसुना

एक इशारा आप ने दबे से ऐसा कर दिया
रंग मेरी ज़िन्दगी में नया सा एक भर दिया

आप ने हौसला हमें दिया जी शुक्रिया
ज़र्रे को बिठाया आसमान पे जी शुक्रिया

महेश चंद्र गुप्त खलिश
24 जून 2006

**************





३४३. सहमे सहमे से मुझे लोग नज़र आते हैं –RAMAS—ईकविता, १८ अगस्त २००८


सहमे- सहमे से मुझे लोग नज़र आते हैं
मौत के साये में हर सांस जिये जाते हैं

ग़म का मज़मून तो घेरे है सभी के दिल को
एक लिफ़ाफ़े की तरह खोखले मुस्काते हैं

ज़ोर चलता नहीं इंसान का इक लमहे पर
ज़िंदगी साथ निभाने की कसम खाते हैं

क्यूं न इस बज़्म की तारीफ़ करूं मैं यारो
लोग फ़ाका भी यहां करते हैं पर गाते हैं

यूं तो नग़मात खुशी के भी सुनाता है ख़लिश
दर्द में डूब के अशआर निखर जाते हैं.

महेश चंद्र गुप्त खलिश
२४ जून २००६

०००००००००००००

Monday, August 18, 2008 1:25 AM
From: "Mansi" khallopapa@yahoo.com
ye sher bahut acche lage Mahesh ji...

ग़म का मज़बून तो घेरे है सभी के दिल को
एक लिफ़ाफ़े की तरह खोखले मुस्काते हैं

ज़ोर चलता नहीं इंसान का इक लमहे पर
ज़िंदगी साथ निभाने की कसम खाते हैं
--Manoshi

००००००००००००००००

Monday, August 18, 2008 8:31 AM
anoop_bhargava@yahoo.com
महेश जी:अच्छी गज़ल है , विशेष रूप से ये शेर :
ज़ोर चलता नहीं इंसान का इक लमहे पर
ज़िंदगी साथ निभाने की कसम खाते हैं

सादर







३४४. हम वो परवाने हैं शम्म जिन के खुद आती है पास


हम वो परवाने हैं शम्म जिन के खुद आती है पास
दाद क्या उन को जिन्हें खुद बज़्म बुलाती है पास

बन के सौदाई जो चाक कैस ने कपड़े किये
इश्क की शिद्दत में लैला ढूंढ के जाती है पास

भूल जाएं क्यों न रंज-ओ-गम ज़माने के सभी
दिलरुबा जब भेज के पैगाम बिठाती है पास

इश्क का आलम बयां लफ़्ज़ों में हो सकता नहीं
कल थी जो नाराज़ आज बैठ मनाती है पास

ताकत-ए-बाज़ू पे क्यों गरूर है इतना खलिश
भूल मत बाज़ू में तेरे मौत मुसकाती है पास.

महेश चंद्र गुप्त खलिश
26 जून 2006






३४५. अजब तमाशा पत्थर का-- बिना तिथि की कविता, ई के को प्रेषित, २० दिसम्बर २००७ को, याहू मेल से

रही तलाश तुझे बचपन में रंग बिरंगे पत्थर की
भरी जवानी चौपड़ खेला गोट बना कर पत्थर की

ढूंढा किया नौकरी जब पत्थर की सड़कों पर घूमा
पत्थर का ताबीज़ पहन कर सुबह शाम उस को चूमा

पत्थर- पत्थर कर के तूने अपना महल बनाया फिर
मंदिर भी उस के भीतर पत्थर का ही बनवाया फिर

रगड़- रगड़ कर चन्दन घोटा पत्थर के सिल बट्टे पे
नहला कर के लेप किया फिर पत्थर की ही मूरत पे

पैदा तो इंसान हुआ पर इंसां बन के नहीं जिया
पत्थर के प्याले में तूने भर- भर मदिरा जाम पिया

पत्थर से तू रहा खेलता असर हुआ ये पत्थर का
हाड़ मांस के पुतले तूने दिल कर डाला पत्थर का

मदहोशी में पत्थर मारे तूने सारी दुनिया को
स्वयं काल ने अंत समय इक पत्थर फिर मारा तुझ को

कबर खोद कर तुझे सुलाया नाम लिखाया पत्थर का
हुआ खलिश यूं खतम एक दिन अजब तमाशा पत्थर का.

महेश चंद्र गुप्त खलिश
२६जून २००६

000000000000000000000

"Manju Bhatnagar" <manju@ei-india.com>
Date: Wed, 2 Jan 2008 16:32:52 +0530


आद. खलिश जी,
श्री घनश्याम जी की सलाह से आपने जो परिवर्तन किए, उससे रचना अधिक सहज हो गई है। कविता की यह पंक्तियाँ अधिक यथार्थ से जुड़ी लगी---
पत्थर- पत्थर कर के तूने अपना महल बनाया फिर
मंदिर भी उस के भीतर पत्थर का ही बनवाया फिर
रगड़- रगड़ कर चन्दन घोटा पत्थर के सिल बट्टे पे
नहला कर के लेप किया फिर पत्थर की ही मूरत पे

मैं बचपन में अपनी नानीजी से यह गीत सुन करती थी--'देख करिश्मा लकड़ी का' आपकी इस ्रचना ने उनकी याद दिला दी।
अस्तु
मन्जु
००००००००००००००००००




३४६. उस्तादों ने गर उस्तादी बंद कर दी तो क्या होगा

उस्तादों ने गर उस्तादी बंदकर दी तो क्या होगा
जब शागिर्द पढायेंगे तो शागिर्दी का क्या होगा

बांस बरेली को जायें गंगा जाये गंगोत्री को
कहें सूरमा नामर्दों को नामर्दी का क्या होगा

रक्षक ही भक्षक हों तो जनता की रक्षा कौन करे
शील हरण हो थाने में खाकी वर्दी का क्या होगा

पत्ते के दोने के बदले दस का पत्ता फ़ेंक रहे
भूखे बच्चे देखें तरसें हमदर्दी का क्या होगा

फूंक रहे ईंधन को निस दिन गैस बढ़ रहीं अम्बर में
ताप बढ़ रहा वायु जल का तो सर्दी का क्या होगा

गुंडे नेता बने खलिश तो तुरत पुलिस को हुकम दिया
एफ़ आई आर लिखोगे तो गुंडागर्दी का क्या होगा.

महेश चंद्र गुप्त खलिश
26 जून 2006

**************





३४७. अगर साथ हम को न मिलता तुम्हारा दुनिया तुम्हारी कसम छोड़ देते


अगर साथ हम को न मिलता तुम्हारा दुनिया तुम्हारी कसम छोड़ देते
रुसवाई की हम परवाह न करते मोहब्बत की सारी हदें तोड़ देते

अपने पे हम को भरोसा नहीं था न थी ज़िन्दगी में उम्मीद कोई
बुलाते न हम को जो साहिल से अपनी मझधार को राह हम मोड़ देते

मानो न मानो हमारे लिये तो तुम्ही एक हो इस कटीले जहां में
तुम्हारी तरफ़ कोई उंगली उठाता खुदा की कसम उस का सर फ़ोड़ देते

अगर मर भी जाते हम जानते हैं हमें चैन फ़िर भी हासिल न होता
गाहे बगाहे यादों के रेले आ के मेरी रूह झकझोर देते

सनम साथ चलना यहीं तक लिखा था रहो तुम सलामत खलिश अलविदा अब
ये होता जो मुमकिन तुम्हारी उमर में अपनी उमर भी हम जोड़ देते.

महेश चंद्र गुप्त खलिश
27 जून 2006





३४८. अगर साथ हम को न मिलता तुम्हारा दुनिया तुम्हारी कसम छोड़ देते


अगर साथ हम को न मिलता तुम्हारा दुनिया तुम्हारी कसम छोड़ देते
ये जां तो क्या है तुम्हारे लिये हम ईमान अपना धरम छोड़ देते

ज़माना जो पूछे अलग बात है वो तुम्हें तो खबर है तुम्हारे हैं मारे
तुम्हारी खुशी मिल जो पाती हमें तो इस दिल को सारे अलम छोड़ देते

तुम्हारी जफ़ाओं को सहना है मुश्किल मगर जोर दिल पे भी चलता नहीं है
बन के रहोगे सिरफ़ तुम हमारे कभी का नहीं तो भरम छोड़ देते

जी न सकेंगे तुम्हारे बिना हम कदम हम अकेले उठायें तो कैसे
तुम्हारी नज़र का इशारा जो होता ज़माने की सारी शरम छोड़ देते

खलिश हम तुम्हारे लिये मर भी जाते मिटा देते खुद को इशारा तो करते
अगर भूल से भी इक बार कहते तो हम ज़िन्दगी का चलन छोड़ देते.

महेश चंद्र गुप्त खलिश
27 जून 2006






३४९. लोग सुन लेते हैं तो नगमा सुना लेता हूं


लोग सुन लेते हैं तो नगमा सुना लेता हूं
दिल में गैरों के कोई दर्द बसा लेता हूं

हैं मेहरबान कि सब दाद मुझे देते हैं
मैं तो दर्दों के सिवा कुछ भी नहीं देता हूं

मेरे अश.आर-ओ-गज़ल और नहीं कुछ यारो
गम-ए-दरिया में मैं किश्ती-ए-लफ़्ज़ खेता हूं

दुखी गरीब को मैं आस तो बन्धाता हू
ये न तुम सोचना कि मैं भी कोई नेता हूं

दर्द ही है असलियत ज़माने की
ज़िन्दगी का मैं मरम आज खलिश कहता हूं

तर्ज़--
हमें तो लूट लिया मिल के हुस्न वालों ने
गोरे गोरे गालों ने काले काले बालों ने

महेश चंद्र गुप्त खलिश
28 जून 2006




३५०. मुझे ज़िन्दगी फिर सताने लगी


मुझे ज़िन्दगी फिर सताने लगी
खयालों में फिर मौत आने लगी

बसाया था जिस को बड़े शौक से
उम्मीद फिर दिल से जाने लगी

बरबादी नज़दीक आ कर मेरे
तराना कोई गुनगुनाने लगी

गर्दिश से अब दोस्ती हो गयी
दिलकश फ़साना सुनाने लगी

फ़िज़ाएं खलिश रास आती नहीं
खिज़ां मुझ को फिर से लुभाने लगी

महेश चंद्र गुप्त खलिश
28 जून 2006







३५१. दर्द खुद अपने सितमगर से कहूं मैं कैसे

दर्द खुद अपने सितमगर से कहूं मैं कैसे
आलम-ए-खौफ़ से अनजान रहूं मैं कैसे

खोखला ऐसा रिवाज़ों ने किया है मुझ को
कोई खन्डरात सा न आज ढहूं मैं कैसे

जाम ज़हरीले ज़माने ने दिये हैं इतने
गम का दरिया है लबालब न बहूं मैं कैसे

मौत हर सांस में पैगाम मुझे देती है
अपने ख्वाबों का खुद देखूं लहू मैं कैसे

मैंने माना कि नहीं होश खलिश है मुझ को
क्या सबब है हुआ बेहोश हूं मैं कैसे.


महेश चंद्र गुप्त खलिश
28 जून 2006

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३५२. ज़िन्दगी हंस के गुज़ारोगे तो कट जायेगी


ज़िन्दगी हंस के गुज़ारोगे तो कट जायेगी
पर अगर रो के गुज़ारोगे तो घट जायेगी

आयत-ए-कुरान पढ़ो या श्लोक पढ़ो गीता के
रोज़ एक याद करोगे तो भी रट जायेगी

खेती व्यापार में मिलने से बढ़त होती है
न्यारे होने से रकम हिस्सों में बंट जायेगी

आज करने का है जो कल पे उसे मत टालो
आज-कल करने में ही उम्र ये खट जायेगी

बात औरत की सुनो और करो उस की कदर
वरना एक दिन वो खलिश सामने डट जायेगी.

महेश चंद्र गुप्त खलिश
29 जून 2006

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३५३. आ जा महबूब मेरे..............


आ जा महबूब मेरे..............
न जा महबूब मेरे..............

थक गया हूं मैं उम्र भी कम है
दिल में छाया अजीब सा गम है

मेरे पास आ के ज़िन्दगी दे दे
न मिली जो कभी खुशी दे दे

एक हसीं शाम मुझ को मिल जाये
चान्दनी स्याह शब में खिल जाये

न तमन्ना है और कुछ दिल में
आ जा एक बार मेरी महफ़िल में

मौत को फिर गले लगा लूंगा
हंस के दुनिया से मैं विदा लूंगा

आ जा महबूब मेरे..............
न जा महबूब मेरे..............

तर्ज़--

मेरे महबूब न जा
आज की रात न जा
होने वाली है सहर
थोडी़ देर और ठहर


महेश चंद्र गुप्त खलिश
30 जून 2006

ooooooooooooooooo






३५४. मेरे महबूब मुझे मिल के भी क्या पाओगे


मेरे महबूब मुझे मिल के भी क्या पाओगे
तुम न रुसवाई से अपने को बचा पाओगे

आह और अश्कों ने ही दिल में किया है डेरा
कुछ न तुम गम के अन्धेरों के सिवा पाओगे

आप के इश्क पे एतबार तो है मुझ को मगर
जो कंवल मुरझा गया कैसे खिला पाओगे

मैंने शिद्दत से वफ़ाओं से मोहब्बत की थी
भूल से की जो जफ़ा वो न भुला पाओगे

तुम हो रंगीन शमा मैं हूं एक बुझता दिया
छोड़ो रहने दो खलिश तुम न निभा पाओगे


महेश चंद्र गुप्त खलिश
30 जून 2006


ooooooooooooooooo






३५५. प्रश्न बनते रहे


प्रश्न बनते रहे बन के बढ़ते रहे
ज़िन्दगी मेरी खुद प्रश्नमय हो गई
उत्तरों को निरन्तर मैं खोजा किया
किन्तु मेरी सकल वान्गमय खो गई

आज लगता है मैं एक खुद प्रश्न हूं
जिसका कोई समाधान सम्भव नहीं
काल के गाल में हूं पड़ा सोचता
क्या करूं मुझ को मरने का अनुभव नहीं

मै जिया तो मगर किसलिये मैं जिया
ज़िन्दगी को किसी की उबारा नहीं
मैं सहारे पे औरों के पलता रहा
दे सका पर किसी को सहारा नहीं

आज जीवन की अन्तिम घड़ी आ गई
और आरम्भ जीवन का कर न सका
आज कल आज कल में उमर चुक गई
मैं कदम कर्म भूमि पे धर न सका

बन के इक बोझ मैं इस धरा पर रहा
एक अभिशाप जीवन मेरा हो गया
अपने शैतान को मैं रहा पालता
मैने भगवान अपना खलिश खो दिया.


महेश चंद्र गुप्त खलिश
1 जुलाई 2006




३५६. ज़िन्दगी से रहा मैं सदा जूझता

ज़िन्दगी से रहा मैं सदा जूझता
हार मैने मगर फिर भी मानी नहीं
जीत किस की हुई मात किस को मिली
वास्तविकता है क्या मैने जानी नहीं

जब से सांसों का नगमा हुआ है शुरू
अनवरत पैर मेरे थिरकते रहे
कोई मुझ को निरन्तर नचाता रहा
और अरमान दिल में मचलते रहे

तार सप्तक में धुन अब निकलने लगी
अन्त नगमे का मानो निकट आ गया
अब समापन की बेला नहीं दूर है
क्षण अन्तिम गिराने का पट आ गया

आज मुझ को ज़माने न तुम दाद दो
अब न इस की मुझे कोई परवाह है
बस रूको एक पल मेरा नगमा सुनो
आखिरी बस मेरी एक यही चाह है

है मेरा तुम से वादा मगर दोस्तो
मेरे नगमे में पाओगे ऐसा असर
एक मन में बवंडर उठेगा घना
जो विचारों को रख देगा झकझोर कर

आज हूं कल न लेकिन मुझे पाओगे
भूल जाना कि कांटा खलिश दे गया
चाहे ठंडक की ही तुम को दरकार थी
माफ़ करना तुम्हें कुछ तपिश दे गया.

महेश चंद्र गुप्त खलिश
1 जुलाई 2006


****************






३५७. बहुत चल चुका अब रूका चाहता हूं


बहुत चल चुका अब रूका चाहता हूं
बहुत तन चुका अब झुका चाहता हूं

उलझ के कठिन राह में ज़िन्दगी की
लगता है जैसे थका चाहता हूं

खेलूंगा कब तक झूठा ये ड्रामा
दुनिया से अब मैं मुका चाहता हूं

बन के रहा मैं खरीदार अब तक
मगर आज खुद को बिका चाहता हूं

सहेजो सम्हालो न मुझ को खलिश तुम
ज़माने से अब मैं फिंका चाहता हूं.


महेश चंद्र गुप्त खलिश
4 जुलाई 2006





मैं शायर हूं मगर अदना सा छोटा सा
मैं सिक्का हूं मगर हलका सा खोटा सा

कोई ज़महूरियत का वास्ता मत दो मुझे
मैं शहरी हूं महज़ घेरा सा घोटा सा

मुझे तो हाल अपना देख के है लग रहा
मैं किस्मत पे कोई खाता हूं सोटा सा

गरीबी और ऊपर से ये मंहगाई
अपाहिज़ की कमर पे भूत मोटा सा

भला हो दर्द से खाली गज़ल क्योंकर ख़लिश
लगा रहता है घर में रोटियों का टोटा सा.





३५८. मैं शायर हूं मगर अदना सा छोटा सा—sent to EK, — ई-कविता को ९ अप्रेल २००८ को पुन:प्रेषित, 4 जुलाई 2006

मैं शायर हूं मगर अदना सा छोटा सा
मैं सिक्का हूं मगर हलका सा खोटा सा

कोई ज़महूरियत का वास्ता मत दो मुझे
मैं शहरी हूं महज़ घेरा सा घोटा सा

मुझे तो हाल अपना देख के है लग रहा
मैं किस्मत पे कोई खाता हूं सोटा सा

गरीबी और ऊपर से ये मंहगाई
अपाहिज़ की कमर पे भूत मोटा सा

भला हो दर्द से खाली गज़ल क्योंकर ख़लिश
लगा है घर में जैसे रोटियों का टोटा सा.


महेश चंद्र गुप्त खलिश
4 जुलाई 2006
००००००००००००००

From: "Prem Sahajwala" <pc_sahajwala2005@yahoo.com>

Date: Wed, 9 Apr 2008 01:29:40 -0700 (PDT)

Khalish Bhai
Ghazal kee duniya mein bane raho. Bahut achha likhte ho. Jald hi sitare kee tarha tank jaoge. pcs
००००००००००००



३५९. इतनी जल्दी क्या है तुझ को लोक सभा में जाने की


इतनी जल्दी क्या है तुझ को लोक सभा में जाने की
नेताओं संग बैठ जरा कुछ बातें हैं समझाने की

पहली बात कभी न भूलो वोट बैंक तैय्यार करो
एस सी एस टी ओ बी सी का मज़हब का व्यापार करो
सीख कला तू राज नीति की खिचड़ी अभी पकाने की
इतनी जल्दी क्या है तुझ को लोक सभा में जाने की


दूजी बात ये गांठ बांध लो कुर्सी कभी न छोड़ो तुम
तीजी देश भक्ति का चोला बात बात पर ओढ़ो तुम
चौथी आदत डालो रिश्वत खाने और खिलाने की
इतनी जल्दी क्या है तुझ को लोक सभा में जाने की

करो नाम की पूजा लेकिन इतना ध्यान जरा देना
गांधी केवल एक, सोनिया, मोहनदास भुला देना
टिकट नहीं पाये तो ठानो पार्टी नई बनाने की
इतनी जल्दी क्या है तुझ को लोक सभा में जाने की

इतनी जल्दी क्या है तुझ को लोक सभा में जाने की
नेताओं संग बैठ जरा कुछ बातें हैं समझाने की

महेश चंद्र गुप्त खलिश
8 जुलाई 2006

तर्ज़--

इतनी जल्दी क्या है तुझ को साजन के घर जाने की
सखियों के संग बैठ जरा कुछ बातें हैं समझाने की










३६०. खाते हैं ठोकरें मगर हैं हम अड़े हुए


खाते हैं ठोकरें मगर हम हैं अड़े हुए
हैं फ़ालतू से रहगुज़र पे हम पड़े हुए.

अब और दो कदम का है बाकी बचा सफ़र
हम बारहा गिरे हैं लेकिन फिर खड़े हुए

चलते रहो बेखौफ़ जब तक चल रही है सांस
रहना है एक दिन तो कबर में गड़े हुए

चाहे चखो चाहे हमें थूको या रौन्द दो
हम पक चुके हैं फ़क्त समर हैं झड़े हुए

इतना ही खलिश रह गया है अब मेरा वज़ूद
माजी के आईने मैं हैं इक नग जड़े हुए

महेश चंद्र गुप्त खलिश
10 जुलाई 2006

समर=फल






३६१. देख, सुन, ठहर ज़रा,अभी तो मैं जवान हूं –एक और गज़ल, ई-कविता को ९ अप्रेल २००८ को प्रेषित


देख, सुन, ठहर ज़रा,अभी तो मैं जवान हूं
हुस्न पर अभी तो तह-ए-दिल से मेहरबान हूं

क्या हुआ अगरचे झुर्रियां पड़ी हैं गाल पर
जोश है अभी जवां, बुलन्दियों की खान हूं

मूंछ हो गयी सफ़ेद, ये तो कुछ ख़ता नहीं
आज भी मैं सूरमापने की पहचान हूं

माना चाल में मेरी ख़म जरा सा आ गया
महफ़िलों की आज भी मैं कसम से जान हूं

उम्र साठ की तो क्या, दिल है मेरा तीस का
ज़ुल्फ़-ओ-रुखसार का अभी भी कद्रदान हूं

मेरे पास कमसिनो एक पल तो बैठ लो
जाने कितने रोज़ का खलिश मेहमान हूं.

महेश चंद्र गुप्त खलिश
10 जुलाई 2006
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From: "bhupal sood" <ayan_bhupal@yahoo.co.in
Date: Wed, 9 Apr 2008 07:52:23 +0100 (BST)

wah janab. khooooooooooooooob. par disha badal gayi hai isme. koi nahi, aap bare hain, jaisa chahen. ha ha ha
bhupal sood

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362. उम्र का अपनी खयाल आता है


उम्र का अपनी खयाल आता है
दिल में अजब सा सवाल आता है

ज़ुल्फ़ तू संवारता है गज़लों की
भूल बैठा है कि काल आता है

दूर क्यों तू मौत को समझ बैठा
वक्त चल के टेढ़ी चाल आता है

भेड़िया अकसर शिकार करने को
ओढ़ कर गीदड़ की खाल आता है

और जी कर क्या करेगा अब खलिश
क्या किया अब तक मलाल आता है.


महेश चंद्र गुप्त खलिश
11 जुलाई 2006


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३६३. मैं बूढ़ा बरगद भले मगर..........


मैं बूढ़ा बरगद भले मगर देखो तो ये विस्तार मेरा
छाया दूंगा सबको चाहे तुम मानो न आभार मेरा

तुम चाहे मुझ से ग्रहण करो चाहे तुम मुझ को ठुकराओ
दशकों सदियों का अनुभव है मत होने दो बेकार मेरा

अचरज से जो तुम ताक रहे वह सब मैं देख चुका कब का
मैं परे ताकता हूं सब से क्या समझोगे संसार मेरा

आशीष सुनो मेरे दिल की मत मीठी बातों पर जाओ
रूखा रूखा सा लगता है माना तुम को व्यवहार मेरा

जाते जाते यह कहता हूं सच्चाई को सीखो गुणना
जब नहीं रहूंगा खलिश एक दिन ढूंढोगे किरदार मेरा.


महेश चंद्र गुप्त खलिश
11 जुलाई 2006





३६४. आज लाई ज़िन्दगी किस अजब मुकाम पर

आज लाई ज़िन्दगी किस अजब मुकाम पर
टिक रहा है होश बस एक और जाम पर

यूं बदल गया ज़माना आजकल नज़र सभी
डालते हैं बाहरी सिर्फ़ ताम झाम पर

इंसानियत कभी थी बशर की रौशनी
आज वह अकड़ रहा सिर्फ़ टीमटाम पर

न कसम उठाओ तुम दीन-ओ-ईमान की
बिक रहे हैं आज ये ठीकरों के दाम पर

कूच के वकत खलिश सूफ़िया कलाम लिख
लिख चुका गज़ल बहुत शोखियों के नाम पर.

महेश चंद्र गुप्त खलिश
11 जुलाई 2006






365. आज आतंक की इन्तहा हो गयी


आज आतंक की इन्तहा हो गयी
शांति दुनिया की जड़ से तबाह हो गयी

कोई गोली कहीं कोई बम है कहीं
क्यों अमन की हवा अब हवा हो गयी

हैं कितने यतीम और बेवा हुए
आज शिशुओं की मुस्कान आह हो गयी

सहमी सहमी सी भीगी सी है हर नज़र
एक फुलवारी अफ़सोसगाह हो गयी

भाईचारे से सब लोग मिल कर रहें
सिर्फ़ ख्वाबों सी मन की ये चाह हो गयी

अब तलक थी यहां भोर की लालिमा
आज रंग-ए-तबाही से स्याह हो गयी

आदमी आदमी का है दुश्मन बना
क्या प्रलय की खलिश इब्तदा हो गयी.


महेश चंद्र गुप्त खलिश
13 जुलाई 2006




३६६. मैं न मैं हूं तुम न तुम हो दोनों ही कुछ बदल गये हैं –RAMAS—ईके, २० अगस्त २००८

मैं न मैं हूं, तुम न तुम हो, दोनों ही कुछ बदल गये हैं
राहे-मंज़िल से लगता है दोनों ही कुछ फिसल गये हैं

हम थे, तुम थे, परवाह हमने कभी ज़माने की न की थी
पर किस्मत की ठोकर खा कर दोनों ही कुछ संभल गये हैं

कभी बिताया करते थे हम रातें बांहों ही बांहों में
बातों ही बातों में अब तो बरछी भाले निकल गये हैं

बरसेगा यूं ज़हर ज़ुबां से हमको ये मालूम नहीं था
लफ़्ज़ों की चोटों से मानो दोनों के दिल कुचल गये हैं

ये मत सोचो ख़लिश तुम्हारी करने चला शिकायत सबसे
दिल के ख़्याल दबा न पाया अशआरों में मचल गये हैं.

महेश चंद्र गुप्त खलिश
१५ जुलाई २००६

००००००००००००

Wednesday, August 20, 2008 12:22 PM
From: "Pandeys" hipandey2004@yahoo.com

Wonderful !...

ये मत सोचो ख़लिश तुम्हारी करने चला शिकायत सबसे
दिल के ख़्याल दबा न पाया अशआरों में मचल गये हैं.

Hrishikesh

००००००००००००००००००




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३६७. हम सफ़ल हों सदा यह ज़रूरी नहीं


हम सफ़ल हों सदा यह ज़रूरी नहीं
जग से ले लें विदा यह ज़रूरी नहीं

आप को देख हो आप के रूप पर
सारी महफ़िल फ़िदा यह ज़रूरी नहीं

आप के जाम को हर गली में खुला
एक हो मयकदा यह ज़रूरी नहीं

आप दो गाम मन्ज़िल को खुद न चलें
हो सहायक खुदा यह ज़रूरी नहीं

प्यार करते हैं जो उन की तकदीर में
हो मिलन ही बदा यह ज़रूरी नहीं

गर मोहब्बत खलिश रास न आये तो
न कभी हों जुदा यह ज़रूरी नहीं.

महेश चंद्र गुप्त खलिश
15 जुलाई 2006






368. महज़ लफ़्ज़ों से क्या होगा जो मन में भावना न हो


महज़ लफ़्ज़ों से क्या होगा जो मन में भावना न हो
चलेंगे तीर कैसे जब दिलों का सामना न हो

तिलक चंदन बुतों पर थोपने से कुछ नहीं मिलता
असर कैसे दुआ में हो जो मन में कामना न हो

निभाने वाले वैसे भी निभा जाते हैं दुनिया में
क्या होगा ऐसे रिश्ते से जो दिल से मानना न हो

सिरफ़ हाथों में डालें हाथ तो क्या रंग आयेगा
बढ़े क्यों इश्क गर आंखों में आंखें डालना न हो

ज़माने में मोहब्बत एकतरफ़ा क्यों खलिश कीजे
बढ़ाये कोई क्योंकर हाथ जो गर थामना न हो.

महेश चंद्र गुप्त खलिश
15 जुलाई 2006





३६९. नारी तुम नर की कारक हो उठो स्वयं को पहचानो


नारी तुम नर की कारक हो उठो स्वयं को पहचानो
अपनी सीमा बहुत रखी अब नर की सीमा पहचानो

सहनशीलता धर्मभीरुता पतिव्रत के भूषण पहने
काहिल ज़ाहिल पति को अपना परमेश्वर तुम मत मानो

पिता पति और पुत्र सहारे जीवन क्यों अपना काटो
नारी के दरज़े को नर के दरज़े से ऊपर जानो

साम दाम और दन्ड भेद, छ्ल-बल में तुम किस से कम हो
नर के अत्याचारों पर अंकुश धरने की तुम ठानो.


महेश चंद्र गुप्त खलिश
16 जुलाई 2006


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३७०. नर और नारी के अंतर को नर कोई जान नहीं सकता


नर और नारी के अंतर को नर कोई जान नहीं सकता
नारी के मन के भावों को किन्चित पहचान नहीं सकता

माता न कुमाता हुई कभी यह सत्य आज भी शाश्वत है
पर माँ ही करे भ्रूण हत्या मन इस को मान नहीं सकता

नर से आगे बढ़ने का व्रत तो ठान लिया है नारी ने
पर पति से आगे बढ़ने की मन उस का ठान नहीं सकता

नारी चाहती सधवा रहना यम को भी वश करना चाहे
यदि जोर चले पत्नी का तो पति तज निज प्राण नहीं सकता

दिन लदे कभी के पति पत्नी को निज पादुका समझता था
नारी अब हुई आधुनिक है पति अंकुश तान नहीं सकता.


महेश चंद्र गुप्त खलिश
16 जुलाई 2006







३८३. हासिल मुझे है सब मग़र मज़बूर हूँ यारो --RAMAS, ई-कविता, २१ अगस्त २००८


हासिल मुझे है सब मग़र मज़बूर हूँ यारो
दुनिया में नेमतों से बहुत दूर हूँ यारो

किससे कहूं दिल की कोई अपना नहीं लगता
समझे ज़माना है बहुत मग़रूर हूँ यारो

मुझ को सुने बगैर तुम आलिम समझते हो
ज़र्रानवाज़ी का बहुत मश्कूर हूँ यारो

मुझ में, मेरे कलाम में तल्ख़ी है इस कदर
इक शख़्सियत दुनिया को नामंज़ूर हूँ यारो

नये दौर के माफ़िक नहीं अब रह गया हूं मैं
गुज़रे ज़माने का ख़लिश दस्तूर हूँ यारो.

महेश चंद्र गुप्त खलिश
२३ जुलाई २००६





३८७. आज मैं अपनी कलम से स्वयं हतप्रभ हो गया—Subject to correction. [But, retain the last line, which has been revised]


आज मैं अपनी कलम से स्वयं हतप्रभ हो गया
चल पड़ी सहसा वह कागज़ स्वयं लिखित हो गया

ढल गये शब्दों में वह अक्षर जो अंकित हो गये
शब्द परिवर्तित स्वयं ही गीत में फिर हो गये

शारदा माँ ने चमत्कृत और भी फिर कर दिया
गीत को कोमल मधुर स्वर तार सप्तक का दिया

गीत-स्वर के संग फिर स्वर वाद्य-वीणा के मिले
तो लगा स्वर्गीय सुख जैसे कि श्रोता को मिले

आत्मिक आनन्द उस पल हर दिशा में छा गया
जिस घड़ी सरस्वती प्रसाद को मैं पा गया





३८९. प्यार मिले जब यौवन से तो सुन्दरता अधिकाता


प्यार मिले जब यौवन से तो सुन्दरता अधिकाता
ज्यों केवल छू लोहे को पारस सोना कर जाता

कविता के बोलों को गायक जब सुस्वर से गाये
भावों को मन के भीतर वह और अधिक पैठाये

कंठ-स्वर और वाद्य-स्वर मिल ऐसा समा बन्धायें
ज्यों कोकिला स्वर्ग सी अपनी मीठी तान सुनायें

इस संगीत लहर पर थिरके जब जब नर्तन बाला
मानो स्वर्ण कलश में प्रस्तुत होती मादक हाला

प्रेम बढ़ाये सुन्दरता, संगीत बढ़ाये कविता
विरह बढ़ाये प्रेम और श्रोता से बढ़ती कविता

हाला, संगीतज्ञ, कवि, नर्तकी और फ़नकार
पीने वाले, श्रोता, दर्शक न हों तो बेकार.






३९३. एक उन की नज़र का उठना था..........[Subject to correction—ref: the other computer]


एक उन की नज़र का उठना था और मेरे दिल पे तीर चले
जैसे कोई फ़ौज़ हो तिफ़्लों की उस पर खूनी शमशीर चले

है इश्क बला आशिक खुद ही कातिल को पास बुलाता है
और चाहता है माशूक उस का मासूम फ़ना दिल चीर चले

कुछ और नहीं ये प्यार की राहें केवल भूल-भुलैय्यां हैं
इक बार जो इन में फ़ंस जाये उस की न कोई तदबीर चले

बिखरे इन प्यार की राहों में अनगित कांटे ही कांटे हैं
हो जायें छलनी पांव यहां बच कर जितना राहगीर चले


हम प्यार का सज़दा करते हैं ये प्यार भी एक इबादत है
आशिक के दिल में खलिश भले चाहे कितनी ही पीर चले.




३९८. आशिक को भला कब ग़म न था –RAMAS—ईकविता, २२ अगस्त २००८

आशिक को भला कब ग़म न था
कब राह-ए-इश्क में खम न था

कब राह-ए-ज़फ़ा को भूले तुम
कब मेरी वफ़ा में दम न था

उनका हर लफ़्ज़ गज़ल था यूं
काफ़िया- रदीफ़ से कम न था

कब खुश्क रहीं तेरी आंखें
कब दिल मेरा यूं नम न था


तुम तुम थे, मैं मैं रहा ख़लिश
बातों में कभी भी हम न था.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
३ अगस्त २००६
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Friday, August 22, 2008 8:04 AM
From: "Rakesh Khandelwal" rakesh518@yahoo.com

कब खुश्क रहीं मेरी आंखें
कब दिल मेरा यूं नम न था

तुम तुम थे, मैं मैं रहा ख़लिश
बातों में कभी भी हम न था.

महेशजी,
नितांत सुन्दर अभिव्यक्ति. आपके ये दोनों शेर विशेष अच्छे लगे.

सादर
राकेश
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Friday, August 22, 2008 9:06 AM
From: "Anoop Bhargava" anoop_bhargava@yahoo.com

महेश जी:गज़ल अच्छी लगी , विशेष रूप से ये शेर :

>तुम तुम थे, मैं मैं रहा ख़लिश
>बातों में कभी भी हम न था.

दूसरे शेर को ऐसे कहें तो ?

कब खुश्क रहीं तेरी आंखें
कब दिल मेरा यूं नम न था

सादर
अनूप

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३९९. हम को न पता था दुनिया में दिल की भी तिज़ारत होती है –RAMAS, ईकविता, २३ अगस्त २००८

हमको न पता था दुनिया में दिल की भी तिज़ारत होती है
चान्दी के सिक्कों में तुल कर बरबाद मोहब्बत रोती है

था सच्चा प्यार किया हमने क्या वज़ह है कुछ मालूम नहीं
है जवां किसी की किस्मत और तक़दीर किसी की सोती है

वो खेले दो दिन, चले गये, हम तड़प रहे हैं यादों में
आंसू की नदिया बहती है आंचल दिन-रात भिगोती है

जो दिल का दर्द बतायें तो इल्ज़ाम हमीं पर आता है
नन्ही सी जान तन्हाई में सौ ग़म उल्फ़त के ढोती है

है अजब ख़लिश ग़म की दौलत, ये बिना बटोरे बढ़ती है
जो अश्क हर अश्क मेरी आंखों से जो गिरता है प्यार का मोती है.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
३ अगस्त २००६

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Saturday, August 23, 2008 10:02 AM
From: "Om Dhingra" ceddlt@yahoo.com

हमेशा की तरह आपकी ग़ज़ल
कुछ कह जाती है---

हर अश्क मेरी आंखों से जो गिरता है प्यार का मोती है.

सादर नमन,
Sudha Om Dhingra
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Saturday, August 23, 2008 11:37 AM
From: kusumsinha2000@yahoo.com

Aderniy maheshji
namaskar
Bahut bahut badhai.Aapki gazalein man moh leti hain.Bahut khub bahut sundar
mujhe to aapki gazalein bahut achhi lagti hain aur mai use bar bar padhati rahti hun
badhai ho ek bar fir se
kusum
०००००००००००००









४००. पास आ के ले मेरा इम्तिहां चाहे फ़ेल कर चाहे पास कर


पास आ के ले मेरा इम्तिहां चाहे फ़ेल कर चाहे पास कर
मुझे आज़माए बिन सनम न यूं दूर जा न उदास कर

ये जो गुफ़्तगू है प्यार की इसे और तू रंगीं बना
न यूं आज रह पर्दानशीं मुलाकात आज तो खास कर

माना कि बंद निगाह से भी प्यार होता है मगर
जो कर ले कैद नज़र मेरी कुछ ऐसा अपना लिबास कर

है अभी तो इश्क की इब्तदा न अभी से इतना हताश हो
ये फलेगा नगमा-ए-प्यार तू ज़रा इस में और मिठास कर.

उन को मनाने के लिये लिख तो रहे हो तुम गज़ल
होगा न कुछ इस का असर मत खलिश नाहक आस कर

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
३ अगस्त २००६

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© Copyright 2008 Dr M C Gupta (UN: mcgupta44 at Writing.Com). All rights reserved.
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