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Printed from https://www.writing.com/main/books.php/entry_id/626804
Rated: E · Book · Cultural · #1510158
Hindi poems in Hindi script, mainly ghazals, Serial no. 1-700
#626804 added December 30, 2008 at 3:39pm
Restrictions: None
Poems / ghazals , no. 401-440 in Hindi script

४०१. बाज़ू पे भरोसा कर मत कोस सितारों को

बाज़ू पे भरोसा कर मत कोस सितारों को
इंसान हिला सकता है चाहे तो पहाड़ों को

गोता जो लगाते हैं वो पार पहुंचते हैं
कुछ ताकते रहते हैं दरया के किनारों को

जीवन की राहें कुछ आसां भी हैं मुश्किल भी
कुछ चुनते हैं फूलों को कुछ चुनते हैं खारों को

यादों का भरोसा क्या रहने दो माज़ी में
बेहतर है कि न खोलो सांपों के पिटारों को

सहरा-ओ-खिज़ां बेहतर गर हों वो हकीकत में
खोजो न खलिश नाहक ख्वाबों में बहारों को.


महेश चन्द्र गुप्त खलिश
३ अगस्त २००६








४०२. ख्वाबों को देखते हो बार बार किसलिये –RAMAS—ई-कविता, २४ अगस्त २००८


ख्वाबों को देखते हो बार- बार किसलिये
दिल तोड़ने वाले पे एतबार किसलिये

वो चलके आये इश्क में खुद ही हमारे घर
इज़हार प्यार का न हो स्वीकार किसलिये

तर्के-मोहब्बत का पयाम उनसे जब मिले
एक तीर सा सीने के न हो पार किसलिये

रोवो हज़ार बार वो न आयेंगे पलट
अश्कों को कर रहे हो यूं तुम ख़्वार किसलिये

दौलत के नशे में न यूं मग़रूर होइये
घर मुफलिसों का फूँकते हो यार किसलिये

राहें कंटीली चुन चुके उल्फ़त में जब ख़लिश
अब चुन रहे हो पांव से तुम खार किसलिये.


महेश चन्द्र गुप्त खलिश
३ अगस्त २००६

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तर्ज़—मिट्टी से खेलते हो बार बार किसलिये

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Wednesday, 3 September, 2008 7:10 PM
From: "Ms Archana Panda" panda_archana@yahoo.com

नमस्कार मित्रों ,
कभी कभी सोचती हूँ की इ कविता के किस किस कविता को, किस किस कवि को मैं बधाई दूँ ! हर कविता पहले से ज़्यादा अच्छी होती है | इसी कारण आज मैंने सोचा की आप सबको आज बताऊं की आपकी कृतियाँ मेरे लिए कितनी आदरणीय हैं!

चाहे वह खलिश जी की " ख़्वाबों को देखते हो बार बार किसलिए" की मर्मशील रचना हो या घायल जी की "दोपहर की धूप से " जैसी कोमल कविता

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४०३. तुम क्या हो मेरे दिल से पूछे ये कोई आ कर –४ अगस्त २००६ की गज़ल, ई-कविता को ४ अगस्त २००६ को प्रेषित


तुम क्या हो मेरे दिल से पूछे ये कोई आ कर
हैरत में पड़ा हूँ मैं किस्मत से तुम्हें पा कर

तुम गज़ल हो शायर की काफ़िया हसीं हो तुम
इस दिल में उतारा है नगमों में तुम्हें गा कर

एक झलक हो चन्दा की सावन के महीने में
लगता है अधिक सुन्दर बदलियों में जो छा कर

एहसास हो तुम गहरा जो दिल में ही बसता है
न वज़ूद है कुछ जिस का दिल के बाहर जा कर

आशिक हूँ खलिश तेरा फ़ैसला सुना मुझ को
तू चाहे तो हाँ कर दे न चाहे तो तू ना कर.


महेश चन्द्र गुप्त खलिश
४ अगस्त २००६







४०४. जीवन की बगिया में रमते देखा है कितने यारों को –५ अगस्त २००६ की गज़ल, ई-कविता को ५ अगस्त २००६ को प्रेषित



जीवन की बगिया में रमते देखा है कितने यारों को
कोई फूल चुन रहा क्यारी में कोई हटा रहा है खारों को

कुछ लोग आशियां चुनते हैं कुछ उसे बनाते हैं खन्डहर
कोई काट रहा बेदर्दी से कोई जोड़े कटे किनारों को

कुछ लोग बनाते हैं मूरत कुछ जबरन उस को तोड़ रहे
कोई शब्दों को इन्कार रहा कोई देता अर्थ इशारों को

कुछ प्रेम पुजारी हैं जग में कुछ पूजें केवल काया को
कोई नवजातों को त्याग रहा कोई पाले उन्ही बेचारों को

हैं खलिश सभी आज़ाद यहां सब अपना बोया खाते हैं
कोई शिष्य बने विद्वानों का कोई दे सम्मान गंवारों को.


महेश चन्द्र गुप्त खलिश
६ अगस्त २००६

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४०५. मेरे जीवन में तो हैं ग़म और तनहाई, क्यों पायल की झंकार कहीं से आती है –७ अगस्त २००६ की गज़ल, ई-कविता को ७ अगस्त २००६ को प्रेषित


मेरे जीवन में तो हैं ग़म और तनहाई, क्यों पायल की झंकार कहीं से आती है
डर लगता है रंगीन बहारों से मुझको, एक अनजानी सी चिंता मुझे सताती है

ठंडी आहें ही बस मेरी चिर साथी हैं, इन से ही जीवन भर का गहरा नाता है
मेहमान नया जो आने वाला है मुझसे न जाने कितने दिन का साथ निभाता है

आओ खुशियो तुम आओ तुम्हारा स्वागत है, पर समझौता तुमको ग़म से करना होगा
दर्दों ने दिल को दिया सहारा है अब तक, उनके संग कदम मिला कर ही चलना होगा

आ जाओ बहारो, ग़र तुम में जज़्बा हो तो अपनी शिद्दत से ग़म को खुशी बना देना
हैं दिल के द्वार खुले, ख़ुशियो आ जाओ मग़र, ग़म ताक रहा ड्यौढ़ी पर गले लगा लेना.


महेश चन्द्र गुप्त खलिश
४ अगस्त २००६






४०६. गमों का हो भला गहरी जो दिल में याद देते हैं

गमों का हो भला गहरी जो दिल में याद देते हैं
झलक जिस की गज़ल में पा सुखनवर दाद देते हैं

बना रहता है बोझा यूं तो दिन में भी मेरे दिल में
मगर लमहात रातों के बहुत गम लाद देते हैं.

ज़माने में बहुत हैं गम मगर गम और भी तेरे
गमों में डूब जाने में बहुत इमदाद देते हैं

मेरे दिल में भरा आहों का अश्कों का समन्दर है
नज़र तुम को भरे दिल से ये जायदाद देते हैं

बहुत है शुक्रिया तुम ने दिया हम को दिल-ए-आबाद
बदले में खलिश तुम को दिल-ए-बरबाद देते हैं.


महेश चन्द्र गुप्त खलिश
७ अगस्त २००६







४०७. मैं दीन-ओ-ईमां भूल गया हर कसम भी टूट गयी मेरी


मैं दीन-ओ-ईमां भूल गया हर कसम भी टूट गयी मेरी
वो मन्दिर मस्जिद जाने की भी आदत छूट गयी मेरी

जब मस्त हवा के झोंके ने पलटा हिज़ाब को शोखी से
वो एक झलक पल में रूहानी फ़ितरत लूट गयी मेरी

जो लौट के उस ने एक नज़र देखा न इस दीवाने को
यूं लगा मेरी गुस्ताखी से महबूबा रूठ गयी मेरी

खत लिखे उसे उल्फ़त में पर वे बन्द-लिफ़ाफ़ा लौट आये
तब लगा कि दुनिया गर्क हुई किस्मत ही फ़ूट गयी मेरी

अब ये आलम है सूफ़ीपन का चोला फिर से ओढ़ा है
बैठे हैं तसबीह हाथ लिये वो मय की घूंट गयी मेरी.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
७ अगस्त २००६







408. गज़लों को मेरी सब पढ़ते हैं कोई काश मुझे भी पढ़ पाता


गज़लों को मेरी सब पढ़ते हैं कोई काश मुझे भी पढ़ पाता
चेहरे तो मुझे कई दिखते हैं नज़रों में मेरी कोई चढ़ पाता

जिसने जैसे चाहा मुझ को वैसे ही सदा नचाया है
अपने दिल की इच्छा पूरी करने को मैं भी अड़ पाता

जो भी कोई फूल मिला मुझ को रंग था पर रस और गंध न थे
मिलता कोई सच्चा मीत मुझे जिस की मनमूरत गढ़ पाता

कुछ हॄदयों का स्पन्दन होता झंकॄत होती मन वीणा भी
मैं भी कोई मनमोहक सूरत दिल के दर्पण में जड़ पाता

अब हुईं अतीत सभी आशा न मन है न कोई मूरत है
हूँ पीत वर्ण पत्ता क्यों न मैं खलिश शीघ्र ही झड़ पाता.



महेश चन्द्र गुप्त खलिश
७ अगस्त २००६






409. एक कली खिली थी बगिया में वह मन्द मन्द मुस्काती थी

एक कली खिली थी बगिया में वह मन्द मन्द मुस्काती थी
औरों से नज़र मिलाने को वह अकुलाती शरमाती थी

थी गंध बहुत भीनी उस की सारी बगिया थी महक उठी
था रूप रंग उस का झीना अपने मद में मदमाती थी

जब मन्द पवन के हिचकोले गुदगुदी उठाते तन मन में
दिल था अधीर होता उस का अपने पर स्वयं लजाती थी

चंचलता देख कभी उस की माली जो चिंतित होता था
वह परवाह तनिक न उस की कर अपने में ही खो जाती थी

फिर एक दिवस ऐसा आया बगिया में झंझावात उठा
उन क्रूर थपेड़ों को कोमल वह कली न कुछ सह पाती थी

कुछ क्षण की वह रौरवता थी कमसिनपन उस ने कुचल दिया
नीरवता जीवन भर की उस एक पल की याद दिलाती थी.


महेश चन्द्र गुप्त खलिश
८ अगस्त २००६






४१०. माँ भला चुकाऊँ ॠण कैसे


माँ भला चुकाऊँ ॠण कैसे.

सौ कष्ट उठा अपने तन में
भूखा रह भोजन दिया मुझे
कितने मन में सपने पाले
दुख सहे मगर सुख दिया मुझे

भूलूँ वह त्याग के क्षण कैसे
माँ भला चुकाऊँ ॠण कैसे.

मेरा बालक मन रखने को
परियों की कथा कहीं तुम ने
मेरे सिर छाया करने को
बारिश और धूप सहीं तुम ने

जोड़े तुम ने तॄण तॄण कैसे
माँ भला चुकाऊँ ॠण कैसे.

भगवान नहीं देखा लेकिन
तुम ही भगवान की मूरत हो
मेरा मन कहता है जग में
सब से सुन्दर तुम सूरत हो

पूजूं मैं मात चरण कैसे
माँ भला चुकाऊँ ॠण कैसे.


महेश चन्द्र गुप्त खलिश
८ अगस्त २००६







411. वो हम से इश्क करते हैं मगर हम से लजाते हैं


वो हम से इश्क करते हैं मगर हम से लजाते हैं
यही अन्दाज़ उन के और भी दिल को लुभाते हैं

कभी सुनने को चन्द अल्फ़ाज़ मेरे वो तरसते थे
मगर हर लफ़्ज़ पर अब दस शिकन चेहरे पे लाते हैं

हमारा बोलना है इस सरीखा नागवार उन को
कि सुनते एक हैं और लाख वो हम को सुनाते हैं

तबीयत क्या है उन की किस तरह अन्दाज़ यह कीजे
जरा अन्गुली दबा दें तो धता हम को बताते हैं

खलिश नादान थे हम तो मोहब्बत में बहुत लेकिन
वो हम को राज़ उल्फ़त के नये हर दिन सिखाते हैं.


महेश चन्द्र गुप्त खलिश
६ अगस्त २००६







४१२. इंसान से दूर जो जाओगे


इंसान से दूर जो जाओगे
भगवान को कैसे पाओगे

नर नारायण के रिश्ते को
आखिर किस तरह निभाओगे

इंसान रचा है ईश्वर ने
क्या रचना को ठुकराओगे

इंसानियत का मूल्य क्या
तुम धर्म से निम्न लगाओगे

तुम अपना कर के इंसां को
खुद उस को ही अपनाओगे.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
६ अगस्त २००६









४१३. तुम कर रहे हो धर्म का उपहास किसलिये


तुम कर रहे हो धर्म का उपहास किसलिये
साधु फ़कीर सन्त से परिहास किसलिये

हों इल्म के तगमे मुबारक इल्म वालों को
तुम तोड़ते अनपढ़ का हो विश्वास किसलिये

बाजू में ताकत है तो खींचें शौक से तलवार
निर्बल से उस की छीनते हो आस किसलिये

जो प्रार्थना करते हैं उन को करने दीजिये
फ़रियाद का बल सुन के अट्टहास किसलिये

संसार में विज्ञान ही सब कुछ नहीं खलिश
है नॄत्य और संगीत में मिठास किसलिये.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
६ अगस्त २००६

तर्ज़—पतिता—मिट्टी से खेलते हो…..







४१४.जिसे ज़िन्दगी ने भुला दिया खोई सी मैं वो याद हूं—RAMAS, ई-कविता, २५ अगस्त २००८

जिसे ज़िन्दगी ने भुला दिया खोयी हुयी इक याद हूं
जो कभी क़बूल न हो सकी वो बेअसर फ़रियाद हूँ

जो उठी कभी दिल में मेरे न जी सकी न मर सकी
जो लबों पे आ के न आ सकी वो नामुराद मुराद हूँ

वो ही मुकदमा है मग़र हैं वकील काज़ी मुख़्तलिफ़
न फ़ैसला जिसका हुआ वो सिलसिला-ए- फ़साद हूँ

कोई रस नहीं कोई रंग नहीं कोई दोस्त मेरे संग नहीं
ख़ुशियों से न कुछ वास्ता बस इक दिले-बरबाद हूँ

बिन काफ़िये की हूं गज़ल बेताल हूँ नग़मा खलिश
निकली नहीं दिल से किसीके, ऊपरी वो दाद हूँ.


महेश चन्द्र गुप्त खलिश
७ अगस्त २००६

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Monday, August 25, 2008 10:41 PM
From: "smchandawarkar@yahoo.com"

डॉ गुप्त जी, बहुत खूब! बधाई!

है मुकद्दमा वो ही मग़र हैं वकील काज़ी मुख़्तलिफ़
न फ़ैसला जिसका हुआ वो सिलसिला-ए- फ़साद हूँ

वकील साहब! इस का हल तो आप को हि ढूंढना पडेगा!

सस्नेह, सीताराम चंदावरकर
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Tuesday, August 26, 2008 12:05 AM
"Amar Jyoti" <nadeem_sharma@yahoo.com>

इसी बात को फ़ैज़ ने कुछ ऐसे कहा है:-
"बने हैं अहल-ए-हविस मुद्दई भी मुन्सिफ़ भी,
किसे वकील करें, किससे मुदावा चाहें।"
सादर,
अमर
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Tuesday, August 26, 2008 9:17 AM
From: "Rakesh Khandelwal" rakesh518@yahoo.com

महेशजी, सुन्दर है आप का ख्याल

जो उठी कभी दिल में मेरे न जी सकी न मर सकी

जो लबों पे आ के न आ सकी वो नामुराद मुराद हूँ



सादर, राकेश

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४१५. मुझे लूट ले, मुझे कत्ल कर, जरा मुस्करा, मेरे पास आ

मुझे लूट ले, मुझे कत्ल कर, जरा मुस्करा, मेरे पास आ
मेरी ज़िन्दगी में रंग भर, तू बन के मेरी आस आ

गुज़रा हूँ मैं उस दौर से जिसे भूलना ही मुफ़ीद है
आ भर दे मुझ में रवानगी, हूँ बेइन्तहा उदास आ

माज़ी तो मेरा सियाह है, उम्मीद कुछ कल की नहीं
तू आज कर रौशन मेरा तू बन के लमहा खास आ

पी कर ज़हर की तल्खियां मैं अब तलक जीता रहा
जीवन में रस तू घोल दे मानिन्द एक मिठास आ

जीऊंगा तनहा ज़िन्दगी दुनिया में यूं कब तक खलिश
बन के तू मेरी ज़ीस्त में एक प्यार का एहसास आ.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
८ अगस्त २००६







४१६. निभाना साथ तुम मेरा न तुम मुझ से खफ़ा होना


निभाना साथ तुम मेरा न तुम मुझ से खफ़ा होना
नहीं मुमकिन तुम्हारे प्यार में हम से जफ़ा होना

रंग-ओ-रूप भी उल्फ़त में होने चाहियें लेकिन
मोहब्बत में ज़रूरी है मगर दिल का सफ़ा होना

किताबी इल्म से हिकमत किसी को आ नहीं सकती
फ़ज़ल से उस के ही मुमकिन है हाथों में शफ़ा होना

नहीं हैं मरमरी बाहें ज़रूरी प्यार की खातिर
ज़रूरी आशिकों के बीच है लेकिन वफ़ा होना

तिज़ारत की खलिश दरकार उल्फ़त में नहीं होती
न हर्गिज़ कीजिये अनुमान नुक्सां या नफ़ा होना.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
८ अगस्त २००६







४१७. न तुम मुझको बुलाना न ही मेरे पास तुम आना

न तुम मुझको बुलाना न ही मेरे पास तुम आना
करूँ मैं किस तरह जीवन में अब ये आस तुम आना

नहीं मुझको भरोसा पास मेरे लौट आओगे
मगर ये सोचता हूँ दिल में कि फिर काश तुम आना

नहीं उम्मीद खुशियों की दिल-ए-बरबाद को है पर
मेरी तनहाई में बन के सहारा खास तुम आना

निराशाओं ने जीवन में किया है घर मेरे अब तक
मेरी दुनिया में बन के एक नया विश्वास तुम आना

बहुत मायूसियों में मैं खलिश जीता रहा अब तक
नया बन दो दिलों के बीच एक एहसास तुम आना.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
८ अगस्त २००६






४१८. कल तलक मैं जी रहा था बस इकहरी ज़िन्दगी

कल तलक मैं जी रहा था बस इकहरी ज़िन्दगी
मानो थी एक धूप में जलती दोपहरी ज़िन्दगी

काली ज़ुल्फ़ों ने किया है जब से मेरे दिल में घर
बन गयी तब से मेरी कितनी सुनहरी ज़िन्दगी

साथ दिल धड़क रहे हैं जो थे अब तक अजनवी
आ मिली है ज़िन्दगी में एक छरहरी ज़िन्दगी

क्या कहा किस ने कहा और क्यों कहा किस ख्याल से
बन गयी है इन सवालों की कचहरी ज़िन्दगी

ज़िन्दगी की एक एक सांस बोझिल थी बहुत
आज खलिश हो गयी कितनी फुरहरी ज़िन्दगी

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
८ अगस्त २००६

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४१९. आज क्यों आवाज़ मुझ को बार बार दे रहे

आज क्यों आवाज़ मुझ को बार बार दे रहे
एक बुझती ज़िन्दगी को क्यों बहार दे रहे

एक दिन तुम को मेरी आवाज़ सुनना था मुहाल
प्रेम की क्यों आज हौले से पुकार दे रहे

जो खिंचे खिंचे रहे थे कल तलक वो आज क्यों
प्रेम के सन्देस हो के बेकरार दे रहे

बीती मुलाकात की गवाही एक मौन सी
आज भी वादी के वो बूढ़े चिनार दे रहे

कल जिन्हें अशर्फ़ियां महंगी थीं कौड़ी के भाव
आज धेले में खलिश वो दिनार दे रहे.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
८ अगस्त २००६


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४२०. एक अथाह समुद्र में नन्ही थी सीपी सो रही


एक अथाह समुद्र में नन्ही थी सीपी सो रही
स्वयं से अनजान स्वप्न के जगत में खो रही

लहर से करती किल्लोलें पवन से अठखेलियां
शंख और कौड़ी थे उस के मित्र और सहेलियां

वर्ष बीते एक दिन सीपी मिली इक शन्ख से
प्रेम-जग में वे उड़े मानो लगा कर पन्ख से

एक दिन फिर भावनाओं ने उन्हें दी यूं सलाह
आशियाना प्यार में अपना बनाओ यह कहा

प्रेम मंत्रणा को निज हॄदय में उन्होंने गुना
और फिर बारह अगस्त दो हज़ार छह चुना

युग-युगों तक प्रेम पथ सीपी तुम्हारा हो प्रशस्त
चिर तुम्हें आशीष दे घनश्याम जी का वरद हस्त

आज ई-कविता में खलिश का सन्देश बह रहा
तुम रहो प्रसन्न सीपी रोम रोम कह रहा.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
१२ अगस्त २००६

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४२१. आज मैं तनहा हूँ लेकिन कल तलक महफ़िल में था


आज मैं तनहा हूँ लेकिन कल तलक महफ़िल में था
कोई भी मेरा नहीं कल तक किसी के दिल में था

वक्त पलटा खा गया जो थी वफ़ा बन गयी जफ़ा
कोई दिन था जब मेरा दिल भी किसी के तिल में था

मिल रहीं हैं आज गो सहरा की मुझ को ठोकरें
एक दिन मेरा कदम भी दिलकशीं मन्ज़िल में था

बीच दरया के भंवर में आज गोते खा रहा
वक्त गुज़रा जब ठिकाना मेरा भी साहिल में था

न मिला मुझ को खुदा और न मिला महबूब ही
असलियत है ये खलिश दोनों के नाकाबिल मैं था.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
१७ अगस्त २००६

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४२२. जब यार मिला हम ने सोचा ता-उम्र मोहब्बत करना है


जब यार मिला हम ने सोचा ता-उम्र मोहब्बत करना है
अब बिछुड़ गया है यार तो हम को हर दम आहें भरना है

हर दम आहें भरने से क्या यार हमें मिल जायेगा
दिन रात आग में जलने से तो अच्छा इक दिन मरना है

जब यार नहीं तो आखिर अब इस दुनिया में क्या रखा है
जीयें क्यों यार बिना हम को अब मरने से क्या डरना है

क्या अरमां थे जब हमने अपना बाग-ए-इश्क लगाया था
मालूम न था इस चमन की किस्मत में तो सिर्फ़ उजड़ना है

दो नन्हीं नन्हीं कौंपल थीं जो शर्मा कर मुसकाईं थीं
पर खलिश यहां अंज़ाम लिखा बिन पतझड़ के ही झड़ना है.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
१९ अगस्त २००६






४२३. आज भी तेरा सनम दिलकश बहुत रूखसार है

आज भी तेरा सनम दिलकश बहुत रूखसार है
आज भी शोखी-ए-पेच-ए-ज़ुल्फ़ बरकरार है

गेसुओं में आज भी तेरे है खुशबू की झलक
आज भी होठों पे तेरे सुरखियों की है ललक

आज भी बाहें हैं तेरी गुदगुदी और मरमरी
चाल तेरी सर्पिणी सी आज भी है मद भरी

पर ज़हर छलका है आज तेरी आंखों में सनम
याद में मेरी जो अकसर रात दिन रहतीं थीं नम

आज अंगारे तेरे लब से बरसते हैं सनम
जिन के नगमों से कभी दिल का सुकूं पाते थे हम

कल तलक तू थी मोहब्बत की सिरफ़ मूरत सनम
हाय खलिश बन गयी तू आज सूरत-ए-सितम.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
१९ अगस्त २००६






४२४. आज बतला दे कोई किस रास्ते को जाऊं मैं

आज बतला दे कोई किस रास्ते को जाऊं मैं
या पिला दे जाम पी कर के जिसे सो जाऊं मैं

आज मत मुझ को बुलाओ आज मत आवाज़ दो
आज दिल करता है कि तनहाई में खो जाऊँ मैं

आंसुओं को सोख कर बाहर से मुस्काता रहा
गो कि दिल ने बारहा चाहा कि बस रो जाऊँ मैं

ज़िन्दगी का बोझ सारी उम्र मैं ढोता रहा
क्यों न इस को छोड़ कर इस से बरी हो जाऊं मैं

एक झूठी आस रोके है मगर मुझ को खलिश
देख लूं एक बार उन को फिर कहूं लो जाऊं मैं.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
१९ अगस्त २००६





४२५. ज़िन्दगी मेरी है मानो आइना टूटा हुआ


ज़िन्दगी मेरी है मानो आइना टूटा हुआ
गोया मैं सामान हूँ चौराहे पे छूटा हुआ

उन की उल्फ़त ने दिखाए बाग रंगीं चन्द रोज़
पर कसम से उन का हर इक वायदा झूठा हुआ

प्यारी प्यारी उन की सूरत यूं तो है लगती सदा
प्यार और आता है उन को देख कर रूठा हुआ

आंख जो उन से मिलीं बोया गया इक बीज सा
आज बढ़ कर प्यार का अल्लाह करम बूटा हुआ

एक धड़कते दिल की मेरे पास भी ज़ागीर थी
आज मैं राहगीर हूँ मानो खलिश लूटा हुआ.


महेश चन्द्र गुप्त खलिश
१९ अगस्त २००६

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४२६. न तुम मुझ से खफ़ा होना न मुझ से दूर जाना तुम

न तुम मुझ से खफ़ा होना न मुझ से दूर जाना तुम
गलत राहों पे जाऊं तो सनम वापस बुलाना तुम

मैं हूँ कमज़ोर नाज़ुक हूँ मगर टेढ़ा ज़माना है
सितम-ओ-गम से दुनिया के सनम मुझ को बचाना तुम

तुम्ही हो ज़िन्दगी मेरी न तुम मुझ से जुदा होना
सनम दिल में ही रखना न कभी दिल से भुलाना तुम

न जीते जी कभी ओझल मेरी आंखों से तुम होना
ज़रूरी हो अगर जाना तो फिर ख्वाबों में आना तुम

मुमकिन है फ़िसल जाऊं सनम दुनिया की राहों में
खता हो जाये तो उस को खलिश दिल पे न लाना तुम.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
१९ अगस्त २००६






४२७. दुनिया है दिखावे की असली हालात की कीमत कोई नहीं—RAMAS, ई-कविता, २७ अगस्त २००८

दुनिया है दिखावे की असली हालात की कीमत कोई नहीं
सुर ताल के आगे शायर के नग़मात की कीमत कोई नहीं

कोई और तराना लिखता है पर दाद किसी को मिलती है
तारीफ़ क़लम की होती है दावात की कीमत कोई नहीं

जो नाम वफ़ा का लेते हैं और रोज़ जफ़ाएं करते हैं
दिल तोड़ने वालों के दिल में जज़्बात की कीमत कोई नहीं

उल्फ़त में झूठे वादों पर ऐतबार सभी कर लेते हैं
कोई कितने अश्क बहाता है इस बात की कीमत कोई नहीं

तनहाई इश्क की मंज़िल है क्यों खोये हो रंगीनी में
दम चांद का ही सब भरते हैं और रात की कीमत कोई नहीं.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
५ अगस्त २००६
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Wednesday, 27 August, 2008 11:38 PM
From: "K.P.Tyagi" kp_kusum@yahoo.com

कोई और तराना लिखता है पर दाद किसी को मिलती है
तारीफ़ क़लम की होती है दावात की कीमत कोई नहीं

खलिश जी बहुत ही उम्दा.

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४२८. इश्क की मेरी बहुत है दुख भरी वो दास्तां

इश्क की मेरी बहुत है दुख भरी वो दास्तां
आज भी है कर रही यादें हरी वो दास्तां

जिस को परदे में रखा था हम ने सब दुनिया से दूर
आज सारी सुन रही है कचहरी वो दास्तां

थी रवानी जिस में तेरे और मेरे जज़्बात की
आज दुनिया को है केवल फुलझड़ी वो दास्तां

कितने अरमानों को दिल में दफ़्न कर चुके थे हम
आज जो छेड़ा तो आंखों से झड़ी वो दास्तां

दौर-ए-इश्क में मज़ाक बन के रह गये खलिश
आज लगती है फ़कत इक मसखरी वो दास्तां.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
२० अगस्त २००६







४२९. मैं अमॄत, बन विष घूंट गया

सबका मैं बहुत दुलारा था
कमसिन चितवन का प्यारा था
सब मुझ में ही मुँह जोहते थे
मुझ में प्रतिलक्षित होते थे
मैं शीशा था जो टूट गया

हर रोज़ नया इक सपना था
जिस को मैं समझा अपना था
जो आया था बन कर माली
कर गया वही बगिया खाली
मैं यौवन था कोई लूट गया

जो पाली आस कभी मैंने
जो करी प्रतिज्ञा थी मैंने
तूफ़ां में तॄणवत सभी उड़े
मैं रहा देखता खड़े खड़े
मैं वादा था जो झूठ गया

कांटों में बदल गयीं कलियां
मातम में बदलीं रंगरलियां
है मौत का साया जीवन पर
डसते कोमलता को विषधर
मैं अमॄत, बन विष घूंट गया.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
२१ अगस्त २००६






४३०. यूं तसल्ली आप के आने का वादा दे गया


यूं तसल्ली आप के आने का वादा दे गया
कोई सपना ज्यों हकीकत का इरादा दे गया

लफ़्ज़ और जज़्बात की दूरी खतम होती नहीं
उन का वो ढाढस बन्धाना गम ज़ियादा दे गया

होती है शिद्दत कभी ऐसी भी प्यार और ज़हर में
दोगुना हम को नशा वो जाम आधा दे गया

आज अखरोटों को पोता ले रहा है शज़र से
जिस का सालों साल पहले बीज दादा दे गया

न खलिश कमज़ोर समझो मुफ़लिसी की आह को
मात और शह एक अदना सा पियादा दे गया

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
२१ अगस्त २००६

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४३१. प्यार कर के न कुछ भी मिला प्यार में—RAMAS—ई-कविता २९ अगस्त २००८

प्यार करके न कुछ भी मिला प्यार में
है वफ़ा ही ज़फ़ा का सिला प्यार में

रोकने से न आंधी रुकी इश्क की
काफ़िला धड़कनों का चला प्यार में

दिल जो टकराये तो ये नहीं दुश्मनी
जीत और हार का क्या गिला प्यार में

प्रश्न कितने उठे पर न उत्तर कोई
है सवालों का क्यों ये किला प्यार में

इश्क के रास्ते हैं नुकीले ख़लिश
दिल सभी का यहां है छिला प्यार में.


महेश चन्द्र गुप्त खलिश
८ अगस्त २००६
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Friday, August 29, 2008 5:03 AM
From: "Amar Jyoti" nadeem_sharma@yahoo.com

'जीत और हार का क्या गिला…'

फ़िराक़ ने कुछ ऐसे कहा है:-

'तुझे घाटा न होने देंगे कारोबारे उल्फ़त में,
हम अपने सर तेरा ए दोस्त हर नुकसान लेते हैं।'
सादर,
अमर




४३२. मैं ढूंढता हूँ उस को शायद जो खो गया है

मैं ढूंढता हूँ उस को शायद जो खो गया है
है दूर फिर भी दिल में बस गहरा वो गया है

मुसकान मेरे लब पे भूले भी आये कैसे
अहसास हर खुशी का जैसे कि सो गया है

ज़ाहिर करें क्यों सब पे ये राज़-ए-मोहब्बत
कोई बीज आ के दिल में उल्फ़त का बो गया है

शिद्दत-ए-इश्क मेरी लाएगी उन को वापस
नाराज़ हम से हो कर महबूब गो गया है

उल्फ़त के रास्ते और मंज़िल हैं एक जैसे
जीता वही खलिश है लुट कर के जो गया है

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
२३ अगस्त २००६
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४३३. तुम्हारी याद हमने अपने दिल में यूं बसाई है

तुम्हारी याद हमने अपने दिल में यूं बसाई है
सुलगती आग जैसे अपने घर में खुद लगाई है

किया है इश्क उन से जिन को हम से सिर्फ़ नफ़रत है
सज़ा-ए-मौत अपने आप को नाहक सुनाई है

वही छाये हैं रात-ओ-दिन हमारे दिल की दुनिया में
न कुछ हम को जहां में और अब पड़ता दिखाई है

सियह रातें भी उन के नाम से हो जाये हैं रोशन
बिना उन के हमें पुर-चान्द रातों में सियाही है

रहें वो दूर तो हम को खलिश जीना भी दूभर है
वो पास आयें तो लगता है कि दुनिया मुस्कराई है.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
२३ अगस्त २००६

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४३४. धूप चमकी जब तलक साया भी संग चलता रहा

धूप चमकी जब तलक साया भी संग चलता रहा
और रात आई तो साये ने सिरफ़ इतना कहा

रोशनी का साथ मैंने ज़िन्दगी भर क्यों दिया
ताप मैंने धूप का अपने बदन पे क्यों सहा

कौन करता है यहां दुनिया में कमज़ोरों को याद
ख्वाब का मंज़र गरीबों का हमेशा है ढहा

मुफ़लिसी एक ज़ुर्म है मुफ़लिस का कोई हक नहीं
एक मवेशी की तरह उस को सभी ने है दुहा

दहशत-ओ-गर्दिश का तू ही है नहीं मारा हुआ
आज अपनी बेकसी पे मत खलिश आंसू बहा.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
२५ अगस्त २००६









४३५. एक मैं हूँ एक मेरी ज़िन्दगी बदनाम है –RAMAS—ईकविता, ३० अगस्त २००८


एक मैं हूँ एक मेरी ज़िन्दगी बदनाम है
है सफ़र सहरा का, मुश्किल एक चलना गाम है

हर कदम पे ज़िन्दगी लेती रही है इम्तिहाँ
न कभी फ़ुर्सत मुझे और न कभी आराम है

क्यों तमन्ना हो कि जियूं, क्यों कोई अरमान हो
उम्र का हर एक लमहा हो चुका नीलाम है

टूटकर इक फूल जूड़े से जनाज़े पे गिरा
वक्ते-रुख़्सत पा लिया कैसा हसीं ईनाम है

आलमे-रंग और बू के हम कभी थे मुंतज़िर
अब बहारों में झलकता मौत का पैगा़म है

न मिली दौलत ख़लिश और न मिला मुझ को खु़दा
इस जहां में हो गया जीना मेरा नाकाम है.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
२५ अगस्त २००६

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Saturday, 30 August, 2008 10:54 PM
From: "smchandawarkar@yahoo.com"

टूटकर इक फूल जूड़े से जनाज़े पे गिरा
खूबसूरत ये गज़ब का आखिरी ईनाम है

बहुत खूब, खलिश साहब!

सस्नेह
सीताराम चंदावरकर
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Tuesday, 2 September, 2008 1:55 AM
From: "meena sharma" thisismeena2000@yahoo.com

bahut khoob.; kamal kiya hai

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४३६. मेरी दुनिया लुट गयी मैं बेख़बर सोता रहा—RAMAS—ई-कविता, ३१ अगस्त २००८

मेरी दुनिया लुट गयी मैं बेख़बर सोता रहा
सौदा किस्मत का मेरी बाज़ार में होता रहा

मैंने दौलत जो कमायी पास मेरे न रही
जो मिला इक हाथ दूजे से उसे खोता रहा

आज तक अपनों से पाये सिर्फ़ मैंने खार ही
मैं मग़र गै़रों की खातिर फूल ही बोता रहा

हो गये अशआर खुद ही मय रदीफ़-ओ-काफ़िया
मैं क़लम को आंसुओं में सिर्फ़ डुबोता रहा

जो ख़लिश दिल पर लगे थे दाग़ मामूली न थे
क्यों उन्हें अश्कों से नाहक उम्र भर धोता रहा.


महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
२६ अगस्त २००६






४३७. तू आ जा मेरे पास

तू आ जा मेरे पास
मेरा दिल है उदास
अब तेरी ही आस
साजना…, साजना

जग हुआ बैरी आज
दिया कांटों का ताज
आई छोड़ सब लाज
साजना…, साजना

तेरी बन के रहूँ
बात दिल की कहूँ
दुख तेरे सहूँ
साजना…, साजना

तू जाना नहीं छोड़
नहीं तोड़ना ये डोर
कुछ मेरा नहीं जोर
साजना…, साजना

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
२५ अगस्त २००६





४३८. आप ने पुकारा हम को ज़न्नतें मिलीं

आप ने पुकारा हम को ज़न्नतें मिलीं
आप ने दी दाद हम को दौलतें मिलीं

हम कभी अनजान आप से थे बेखबर
आप पास आ गये दो किस्मतें मिलीं

एक था अंगना हमारा एक था वतन
उस को दो में बांटती अब सरहदें मिलीं

कर के जो सिंगार सोलह ही सदा मिले
आज क्यों चेहरे पे ये बिखरी लटें मिलीं

शाम को तो थे मेरे आगोश में खलिश
सुबह बिस्तरे में सिर्फ़ सलवटें मिलीं.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
३० अगस्त २००६






४३९. प्यार तो है गैर से और हम से फ़क्त दोस्ती

प्यार तो है गैर से और हम से फ़क्त दोस्ती
इम्तिहां लेती है कैसे कैसे सख्त दोस्ती

खून के रिश्ते भी कच्चे आज धागे बन गये
टूट जाती है जहां में आड़े वक्त दोस्ती

दोस्ती में और दगा में फ़र्क न बाकी रहा
जो कभी थी पाक आज है विषक्त दोस्ती

दोस्ती बेकार है गर हो दिखावे को महज़
दो दिलों के मेल से होती सशक्त दोस्ती

दोस्ती इंसान से तो हैं सभी करते खलिश
पर खुदा से ही करे हैं उस के भक्त दोस्ती.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
३० अगस्त २००६

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४४०. जो तुम्हारी बेरुखी से कत्ल मेरा दिल हुआ-- ३१ अगस्त की गज़ल, ३१-८-०६ को ईके को प्रेषित


जो तुम्हारी बेरुखी से कत्ल मेरा दिल हुआ
फिर कभी न बाद इस के प्यार के काबिल हुआ

कौन चारागर करेगा उस की गफ़लत का इलाज़
देख कर जो हुस्न के नाज़-ओ-अदा गाफ़िल हुआ

छीन बैठा है ये दिन का चैन और रातों की नीन्द
क्यों खुदारा आप के रूखसार पे ये तिल हुआ

देखने में तो बड़ा मासूम सा लगता था वो
कीजिये क्या एक दिन माशूक ही कातिल हुआ

खुद को क्या देगा सज़ा जिस की नज़र तोड़े नकाब
जो खलिश कहता था मैं नौशेरवां-ए-दिल हुआ.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
३० अगस्त २००६

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© Copyright 2008 Dr M C Gupta (UN: mcgupta44 at Writing.Com). All rights reserved.
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