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Rated: E · Book · Cultural · #1510158
Hindi poems in Hindi script, mainly ghazals, Serial no. 1-700
#626881 added December 30, 2008 at 11:45pm
Restrictions: None
Poems / ghazals , no. 526-550 in Hindi script


५२६. लब पे उल्फ़त का तराना और दिल का साज़ हो-- १६ अक्तूबर की गज़ल, ईके को १८-१०-०६ को प्रेषित


लब पे उल्फ़त का तराना और दिल का साज़ हो
दोस्ती का इस तरह अन्दाज़-ओ-आगाज़ हो

हम को ऐसे देखते हैं मानो हम हैं अजनबी
आशिकाना याखुदा उन का भी कुछ मिज़ाज़ हो

जी नहीं सकते मगर सूरत बदलने की नहीं
कोई हो तरतीब ज़िन्दगी का कुछ इलाज़ हो

मैं बहुत घबरा गया हूं आलम-ए-तनहाई में
मेरे कानों में जो आये कोई तो आवाज़ हो

नाम पे मज़हब के खलिश बम चलें न गोलियां
प्यार से रहने का दुनिया में कभी रिवाज़ हो.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
१८ सितम्बर २००६





५२७. मेरे मन में रह रह कर बस यह विचार कौन्ध जाता है—२१ अक्तूबर की कविता, ईके को २२-१०-०६ को प्रेषित


मेरे मन में रह रह कर के एक यही ख्याल आ जाता है
जो होता ‘अच्छा होता है’ क्यों यह सदा कहा जाता है

सोचा इस पर बहुत समय तो अब यह बात समझ आई है
जो बहुजन हिताय: सुखकर हो अच्छा उसे कहा जाता है

हो सकता है हम को कोई कड़वी घटना रास न आये
किन्तु भला उस से औरों का हो यह संभव रह जाता है

जग का केन्द्रबिन्दु कोई भी मानव एक नहीं हो सकता
क्यों उस की इच्छा ही सर्वोपरि हो प्रश्न उभर जाता है

होंगे राम नियन्ता जग के छिनी मगर उन की ही पत्नी
ऐसा हुआ न होता तो क्या रामायण में रह जाता है

कालकूट से जला कंठ शिव का इस को अच्छा ही मानो
वरना देवगणों का विषमॄत होना ही तो रह जाता है

फ़र्स्ट क्लास से दक्षिण अफ़्रीका में गांधी गये निकाले
इसी दुखद घटना को सत्याग्रह का जन्म कहा जाता है

हम क्यों न हॄदयंगम कर लें शाश्वत सत्य यही है जग में
अच्छा होता है वह भी विपरीत हमारे जो जाता है

किन्तु भूल कर भी ओ मानव कर्म त्याग किंचित न करना
हो अधिकार कर्म पर केवल, फल पर नहीं कहा जाता है.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
१८ सितम्बर २००६











P ५२८. तेरी चौखट पे न शाम और सहर आऊंगा -- १८ अक्तूबर की गज़ल, ईके को १८-१०-०६ को प्रेषित


तेरी चौखट पे न शाम और सहर आऊंगा
तेरी बस्ती में न अब आठ पहर आऊंगा

अलविदा दोस्त, खुदा तुम पे मेहरबान रहे
न मैं अब लौट के इस गांव-ओ-शहर आऊंगा

तुम को माना कि मोहब्बत से परेशान किया
अब न ढाने को कभी तुम पे कहर आऊंगा

अब शिकायत न जफ़ाओं की किसी को होगी
न मैं चखने न चखाने ये ज़हर आऊंगा

जब भी गुज़रूंगा खलिश भूल के इन राहों से
याद आयेगी तो पल भर को ठहर जाऊंगा.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
१९ सितम्बर २००६



P ५२९. क्या बोलूं और क्यों बोलूं मैं, जो बोलूं उस में तथ्य नहीं--२१ सितम्बर की गज़ल, ईके को २१-९-०६ को प्रेषित


क्या बोलूं और क्यों बोलूं मैं, जो बोलूं उस में तथ्य नहीं
शब्दों का अर्थ अधूरा है उन में भावों का सत्य नहीं

भावों से भरा हॄदय है पर वे जिव्हा तक आयें कैसे
जिव्हा में तो अनुभूति नहीं बोलना हॄदय का कॄत्य नहीं

कविता ढलती है भावों में शब्दों की उस को क्या परवाह
शब्दों का राज गद्य पर है, कविता पर आधिपत्य नहीं

दरकार गद्य को है केवल कुछ पूर्व-नियोजित शब्दों की
कविता उठती है भावों से, वह तो शब्दों की भॄत्य नहीं

रामायण हो या गीता हो कविता अनित्य है, गद्य खलिश
शब्दों में ढलता रहता है कहलाये क्यों वह सद्य नहीं.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
१९ सितम्बर २००६



From: harsh_y71 <harsh_y71@hotmail.com>
Date: Sep 21, 2006 1:47 PM
Subject: [ekavita] Re: ५२à

प्रिय महेश जी,
भाई वाह।
भाव, ह्रदय, जिव्हा, कविता, शब्द ---- इन सबka इतना Philosophical नज़रिया सचमुच
अद्भुत है. बहुत सच कहा है आपने "कविता ढलती है भावों में ------
हर्ष
००००००००

From: jasmine jaywant <jasminejaywant@hotmail.com>
Date: Sep 22, 2006 8:52 AM
Khalish ji aapki kavita achhi lagi.

"zikr hota hai jab qayamat ka
tere jalwon ki baat hoti hai.." ki yaad dila gayi. us mein kaha gaya tha,
"na zuban ko dikhai deta
na nighaon se baat hoti hai..."

Jasmine

०००००००००००००



P ५३०. यह जीवन है जीवन में तो दुख सुख होते ही रहते हैं-- २८ सितम्बर की गज़ल, ईके को २८-९-०६ को प्रेषित


यह जीवन है जीवन में तो दुख सुख होते ही रहते हैं
वे नादां हैं जो घबरा कर इन से रोते ही रहते हैं

रोने से दुख किंचित न घटे हम उन के चिन्तन से केवल
क्यों बीज अकर्मण्यता के नाहक बोते ही रहते हैं

जो आना है, जो बीत गया, इन दोनों ही कल की चिन्ता
जो करते हैं वे वर्तमान अपना खोते ही रहते हैं

चिंता को चिता समान समझ कुछ दूर सदा रहते इन से
कुछ अपने दिल में चिन्ता को हर दम न्योते ही रहते हैं

ज्यों पानी में भीगी कपास, चिन्ता से दुख भारी होते
क्यों खलिश सदा चिन्तित रह कर हम दुख ढोते ही रहते हैं.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
२१ सितम्बर २००६







५३१. न होता इश्क तो क्यों गम मेरे दिल पर कहर करते--२३ सितम्बर की गज़ल, ईके को २३-९-०६ को प्रेषित


न होता इश्क तो क्यों गम मेरे दिल पर कहर करते
ये अच्छा था बिना उन के अकेले ही गुज़र करते

न मिलते वो कभी मुझ को तो मेरे दिल में क्यूं आते
न भरते आह हम न याद ही शाम-ओ-सहर करते

न होता गम जुदाई का ज़फ़ा का न गिला होता
न यूं लाचार हो कर के तमन्ना-ए-ज़हर करते

अगर कांटों से न होतीं भरी ये इश्क की राहें
न करना इश्क ये ऐलान क्यों गांव-ओ-शहर करते

खलिश न इश्कोग़म होते तो क्यूंकर शायरी होती
मिलाते काफ़िया न हम पैमाएश-ए-बहर करते.

तर्ज़—

न मिलता गम तो बरबादी के अफ़साने कहां जाते
अगर दुनिया चमन होती तो वीराने कहां जाते

चलो अच्छा हुआ अपनों में कोई गैर तो निकला
अगर होते सभी अपने तो बेगाने कहां जाते

दुआएं दो मोहब्बत हम ने मिट कर तुम को सिखला दी
न जलते शम्मा में तो फिर ये परवाने कहां जाते

तुम्हीं ने गम की दौलत दी बड़ा एहसान फ़रमाया
ज़माने भर के आगे हाथ फ़ैलाने कहां जाते

--अमर, लता, शकील बदायूनी, नौशाद


महेश चन्द्र गुप्त खलिश
२१ सितम्बर २००६








५३२. फूल जो भी चुने एक दो रोज़ में खिल के मुरझा पराये वो सब हो चले-- २२ सितम्बर की गज़ल, ईके को २२-९-०६ को प्रेषित


फूल जो भी चुने एक दो रोज़ में खिल के मुरझा पराये वो सब हो चले
चार कांटे जो दामन से लिपटे मेरे संग मेरे वो सारे सफ़र को चले

जो जफ़ाएं हुईं जो खताएं हुईं जो सितम हम ने तुम पे किये प्यार में
मेरे महबूब करना मुझे माफ़ तुम याद कर के उन्हें आज हम रो चले

किस का कीजे यकीं हैं यहां गैर सब मतलबी खुदगरज़ है ये सारा जहां
दो कदम साथ चल के जुदा हो गये खा कसम-ए-वफ़ा संग थे जो चले

दी मदद जिस को एहसां भी जिस पे किया हम पे इलज़ाम उस ने लगाये बहुत
नेकियां उम्र भर हम तो करते रहे तोहमत-ए-बदी हम मगर ढो चले

दिल को नीलाम कर इश्क पाया मगर हम हिफ़ाज़त न उस की खलिश कर सके
प्यार की सिर्फ़ यादें बचा के रखीं बाकी दुनिया की दौलत को हम खो चले.

तर्ज़—

एक भूला पथिक एक भटका पथिक एक सहमा पथिक वह वहां कौन है
पंथ ने तो समर्पण किया पुष्प का किन्तु क्यों फिर खड़ा रह गया मौन है
--रमानाथ अवस्थी
[उन की यह कविता ४० वर्ष पूर्व पढ़ी थी. आज तक न भूल पाया हूं. अच्न्छी कविता की यही पहचान है.]

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
२१ सितम्बर २००६




P ५३३. तुम रहे चुराते आंख हमसफ़र बन के भी-- १७ अक्तूबर की गज़ल, ईके को १८-१०-०६ को प्रेषित

तुम रहे चुराते आंख हमसफ़र बन के भी
मेरे न हुए, संगी हो कर जीवन के भी

मुझ को अपना कहते यह एक रहा सपना
न पास आ सके मेरे तन और मन के भी

हर पीड़ा से मेरी खुद को अनजान रखा
न रहे कभी दो झूठे मधुर वचन के भी

झंकार न मेरे कंगना की तुम तक पहुंची
रातों को तुम्हें बुलाने को वे खनके भी

पायल का तो अस्तित्व रहा बस पांवों में
जो सजना की खातिर नाचे और छनके भी

इस जीवन में अब खलिश और क्या आस करूं
क्या मेरे पास बचा अतिरिक्त रुदन के भी.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
२२ सितम्बर २००६





P ५३४. हो चाहत तो हम को बता दीजियेगा-- २४ सितम्बर की गज़ल, ईके को २४-९-०६ को प्रेषित

हो चाहत तो हम को बता दीजियेगा
नज़र का सन्देसा भिजा दीजियेगा

तुम को है भेजा सलाम-ए-मोहब्बत
कबूल हो तो हम को जता दीजियेगा

न तड़पाओ इतना कि हम होश खो दें
हैं गुस्ताख इलज़ाम ना दीजियेगा

अगर मर गये हम तो ज़ुल्फ़ों से अपनी
कबर पे कली इक सजा दीजियेगा

हमें दिल में रख के निगाहों पे अपनी
खलिश सख्त पहरा बिठा दीजियेगा.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
२२ सितम्बर २००६





तर्ज़—


अजी रूठ कर अब कहाँ जाइयेगा
जहाँ जाइयेगा हमें पाइयेगा

निगाहों में छुपकर दिखाओ तो जानें
ख़यालों में भी तुम न आओ तो जानें
अजी लाख परदे में छुप जाइयेगा
नज़र आइयेगा नज़र आइयेगा

जो दिल में हैं होठों पे लाना भी मुश्किल
मगर उसको दिल में छुपाना भी मुश्किल
नज़र की ज़ुबाँ को समझ जाइयेगा
समझ कर ज़रा गौर फ़रमाइयेगा

ये कैसा नशा हैं ये कैसा असर हैं
न काबू में दिल हैं न बस में जिगर हैं
ज़रा होश आ ले फिर जाइयेगा
ठहर जाइयेगा ठहर जाइयेगा
----आरज़ू, हसरत, लता

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
२२ सितम्बर २००६

०००००००००००००००००००००

From: kusum sinha <kusumsinha2000@yahoo.com>
Date: Sep 30, 2006 9:53 PM

khalishji
namaskar
aap ne khub likh hai. mujhe bahut achhi lagi aapki
gazal baDHAI
kusum
०००००००००००००००००००















P ५३५. है गज़ल मेरी कुछ आवारा लिखना ही मेरी मस्ती है– बिना तिथि की गज़ल, ईके को २२-९-०६ को प्रेषित


है गज़ल मेरी कुछ आवारा लिखना ही मेरी मस्ती है
जो कहते हैं वो कहा करें कि कलम मेरी कुछ सस्ती है

बन्धना होता हम को हद में तो रहते हम रजवाड़ों में
है रोक कलम पे नहीं यहां यह शायर दिल की बस्ती है

दुनिया में शायर की आलिम या नादां कोई नहीं होता
लफ़्ज़ों का यहां वज़ूद नहीं बस जज़्बातों की हस्ती है

दीवान-ए- गालिब को बेशक आदाब बजाता हूं लेकिन
मैं उस से हट कर लिखता हूं गो दुनिया मुझ पर हंसती है

काफ़िया गज़ल में लाज़िम है, है असर कहीं इस से लाज़िम
है असली गज़ल खलिश वो ही जो दिल में गहरी धंसती है.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
२२ सितम्बर २००६






५३६. कवि का है मनोविज्ञान बहुत बेढब वह अजब खिलाड़ी है-- बिना तिथि की गज़ल, ईके को २२-९-०६ को प्रेषित


कवि का है मनोविज्ञान बहुत बेढब वह अजब खिलाड़ी है
वह कर सकता है प्रेम मगर लड़ने में बहुत अनाड़ी है

है पद्य प्रेम का पर्याय कवि लिखता है कविता में ही
जड़ काटे कोमल बन्धन की ऐसी ही गद्य कुल्हाड़ी है

नि:शंक भाव उठते कवि के कविता बहती उस की निर्झर
कवि पर जो अंकुश लगा सके न आगे है न पिछाड़ी है

कवि को स्वीकार नहीं है कि वह एक विधा में सीमित हो
हों फूल भी जिस में कांटे भी कवि वह गुलाब की झाड़ी है

म्लेच्छ और ब्राह्मण दोनों कवि की दुनिया के इक से हिस्से हैं
वह पंडित संग गंगाजल और पीता किसान संग ताड़ी है

कवि की वेदना ढुलकती है कविता से दिल की आंखों से
कब कर के सिंह गर्जना खलिश कवि की लेखनी दहाड़ी है.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
२२ सितम्बर २००६









५३७. मैं मिला उन से मगर मिल के भी तनहा ही रहा-- २५ सितम्बर की गज़ल, ईके को २५-९-०६ को प्रेषित


मैं मिला उन से मगर मिल के भी तनहा ही रहा
आंख को तो भायी सूरत किन्तु प्यासा जी रहा

क्या सबब था किसलिये आ कर किनारे के करीब
डूब गयी किश्ती बेचारा सोचता माझी रहा

इश्क की मन्ज़िल खतम मैखाने पे जा के हुयी
दर्द-ए-दिल न कम हुआ मैं जाम कितने पी रहा

जब घड़ा फूटा तो पंछी मुक्त हो कर उड़ गया
सो गया माटी में वो जो रौन्दता माटी रहा

और हट कर शायरी से काम क्या करते हैं आप
पूछा उन्होंने खलिश मैं होंठ अपने सी रहा.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
२३ सितम्बर २००६









५३८. एक नन्हा फूल कल तक था कली --२६ सितम्बर की गज़ल, ईके को २६-९-०६ को प्रेषित

एक नन्हा फूल कल तक था कली
आज चकित सा पवन में हिल रहा
रंग बिरंगी पंखुरियां देख कर
मन ही मन निज रूप पर था खिल रहा

तितलियों के संग वह मस्ती भरी
था अजब अठखेलियां सी कर रहा
कोई भंवरा गिर्द उस के घूम कर
था प्रणय का गान कर सुस्वर रहा

गंध मदमाती हॄदय को मोहती
छा रही उपवन में चारों ओर थी
पुष्प के रंगीन जीवन की यह
आज पहली पहली किन्चित भोर थी

किन्तु उस के भाग्य में कुछ और था
एक घटना अप्रतिम सी हो गयी
तोड़ कर कुचला नियति के हाथ ने
और सदा को गंध उस की सो गयी.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
२६ सितम्बर २००६







५३९. हम पा न सके उस मन्ज़िल को जिस को ख्वाबों में पाया था--२७ सितम्बर की गज़ल, ईके को २७-९-०६ को प्रेषित


हम पा न सके उस मन्ज़िल को जिस को ख्वाबों में पाया था
जिस ने इस दिल को घेर लिया वह भूले गम का साया था

सोचा कुछ था कुछ और हुआ तकदीर के खेल निराले हैं
खंजर भौंका उस ने जिस को हंस हंस के गले लगाया था

दिल-लगी मेरी इकतरफ़ा थी मुद्दत पीछे यह राज़ खुला
जिस के दिल में थी नफ़रत वो क्यों मेरे दिल को भाया था

विश्वास भला किस का कीजे अपने भी आज पराये हैं
मेरे गम पर मुसकाया वो मैं जिसे देख मुसकाया था

हम चुप हैं आज खलिश लेकिन अपने पर वो शर्मिन्दा है
दिल आज तड़पता है उस का जिस ने हम को तड़पाया था.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
२६ सितम्बर २००६

०००००००००००००

From: S.M.Chandawarkar <chandawarkar@vsnl.net>
Date: Sep 28, 2006 7:44 PM

डॉ. गुप्त जी,

आप की ग़ज़ल ५३९ - हम पा न सके..' क मक्ता पढ़ कर 'सीमाब' एक पुरानी ग़ज़ल याद आई। इ-कविता के सदस्य इस का आनंद ले सकते हैं।

'होना ही पड़ा मायल बाकरम, कायम वे सितम पर रह न सके
पत्थर का दिल रखने वाले, इक आह भी मेरी सह ने सके

ऐ शम'अ बता परवानों से बर्ताव किया तू ने कैसा
इक रात के मेहमां भी तेरी महफ़िल में सलामत रह न सके

आंसू न समझ इस को नादां, यह पिघला हुआ अंगारा है
जो आग लगा दे सीने में, और दीद-ए-तर से बह न सके

उम्मीद जिसे कहते हैं 'सीमाब' कायम उसी पर है यह दुनियां
छूट जाए अगर दामन इस का तो कोई भी ज़िंदा रह न सके'

सस्नेह
सीताराम चंदावरकर

०००००००००००००००००००

From: ganesh sharma <ganeshteztarrar@yahoo.co.in>
Date: Sep 28, 2006 9:57 AM

Dear khalish jee,

aapki rachna ati sundar hai mere man ko bhayee hai
padh kar dhadkan huee prafullit mand mand muskayee hai

yah gazal to hai pratibimb kayee hridayon ki manodasha deekhe
jaane kitne hridayon ki baaten aapke man me samayee hai

Ganesh

०००००००००००००००००









५४०. समझो न मुझे शोले से कम मैं यादों की चिनगारी हूं-- १५ अक्तूबर की गज़ल, ईके को १५-१०-०६ को प्रेषित

समझो न मुझे शोले से कम मैं यादों की चिनगारी हूं
जो छिपा रखे हैं सीने में उन अश्कों की पिचकारी हूं

एक झलक तुम्हारी दिखला दे कोई ले ले चाहे जान मेरी
देखो ये तमन्ना तो मेरी कैसा अजीब व्यौपारी हूं

मेरे दिल में मौज़ूद हो तुम मालूम है अब न आओगे
फिरता दुनिया की राहों में ले कर मैं याद तुम्हारी हूं

बरबाद हूं फ़ाकामस्त हूं मैं दुनिया से हूं बेज़ार बहुत
हूं पड़ा अगर राहों में तो समझो न महज़ भिखारी हूं

मुफ़लिस हो गया खलिश तो अब बचते हैं यूं दुनिया वाले
ज्यों छूने से लग जायेगी मैं ऐसी एक बीमारी हूं.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
२८ सितम्बर २००६







५४१. ज़िन्दगी जरा बता क्या मेरा कसूर है-- २९ सितम्बर की गज़ल, ईके को २९-९-०६ को प्रेषित


ज़िन्दगी बता जरा क्या मेरा कसूर है
क्यों खुशी का साया मेरे ख्वाब से भी दूर है

मुद्दतें हुईं हैं मय का घूंट तक पिया नहीं
किसलिये निगाह में आज तक सरूर है

जब तलक जिया मैं ज़िल्लतों से जूझता रहा
मेरी मय्यत पे है जलसा कैसा ये शऊर है

दौलतों के गम से ज़िन्दगी बहुत उदास थी
आज सब लुटा दिया तो रुख पे नया नूर है

जल गयी रस्सी मगर बल नहीं गये अभी
इस कदर इंसान में क्यों खलिश गरूर है.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
२९ सितम्बर २००६










५४२. सोच के उठा था मैं कि तुम बुलाओगे मुझे--- ३० सितम्बर की गज़ल, ईके को ३०-९-०६ को प्रेषित


सोच के उठा था मैं कि तुम बुलाओगे मुझे
इंतज़ार था कि अपने पास लाओगे मुझे

था मैं इतमीनान से यूं कदम उठा रहा
कसमें जान देने की फिर खिलाओगे मुझे

डर रहा था एक बार फिर से फ़हरिस्त को
मेरी सब जफ़ाओं की तुम गिनाओगे मुझे

था यकीं कि मेरी बेवफ़ाई पे रो ज़ार ज़ार
अश्क की जुबां से अपना गम सुनाओगे मुझे

लग रहा था प्यार में दिल्लगी की तर्ज़ पे
कर के ज़िक्र गैर का तुम जलाओगे मुझे

मेरा था खयाल मुझे जान नादां इश्क में
रस्म-ए-मोहब्बत सनम फिर सिखाओगे मुझे

मैं पलट के आऊंगा पास ले बाहों का हार
वादा फिर से प्यार का जब दिलाओगे मुझे

ऐसा न खलिश हुआ मैं दूर ही होता गया
क्या खबर थी एक बार न बुलाओगे मुझे.

**********************

मैं ये सोचकर उसके दर से उठा था
के वो रोक लेगी मना लेगी मुझको

हवाओं में लहराता आता था दामन
के दामन पकड़कर बिठा लेगी मुझको

कदम ऐसे अंदाज़ से उठ रहे थे
के आवाज़ देकर बुला लेगी मुझको

मगर उसने रोका
न उसने मनाया
न दामन ही पकड़ा
न मुझको बिठाया
न आवाज़ ही दी
न वापस बुलाया

मैं आहिस्ता आहिस्ता बढ़ता ही आया
यहाँ तक के उससे जुदा हो गया मैं ...
--हकीकत, १९६४, कैफ़ी आज़मी, रफ़ी


महेश चन्द्र गुप्त खलिश
२९ सितम्बर २००६




५४३. ज़िन्दगी की रागिनी होगा तेरा शुक्रिया-- ७ अक्तूबर की गज़ल, ईके को ७-१०-०६ को प्रेषित

ज़िन्दगी की रागिनी होगा तेरा शुक्रिया
राग कुछ सुना नया कि झूमे ये थका जिया

जाने क्या कसूर था कि दिल को कुछ पता नहीं
छोड़ गम की धार में क्यों चले गये पिया

और क्या मिला हमें सिर्फ़ तेरा ही सितम
कौन जाने किस घड़ी तुम से प्यार था किया

क्या करें कि ये ज़माना चुप रहे किसी तरह
हम ने तेरे इश्क में ज़ुबां को अपनी सी लिया

राग दर्द से भरा सुनाओ आज तुम खलिश
धीमे धीमे बुझ रहा है आज प्यार का दिया.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
२९ सितम्बर २००६

०००००००००००००००००००

From: Devi Nangrani <devi1941@yahoo.com>
Date: Oct 8, 2006 3:34 AM

Guptaji
Aapki encyclopedia ki gahraiyOn mein doobkar kinaaare aane mein
samay lag jaata hai. Itne badi taksaal ke darwaaze ab khule hai ,
bada maza aata hai padne mein..

ज़िन्दगी की रागिनी होगा तेरा शुक्रिया
राग कुछ सुना नया कि झूमे ये थका जिया

Gazab ka makta hai. Daad maat ek ehsaas jataane ka maadhyam hai,
varna gazal likhna to koi aapse seekhe, You have covered every
possisble angle of life with great honesty and perfection, aisa main
maanti hoon.

राग दर्द से भरा सुनाओ आज तुम खलिश
धीमे धीमे बुझ रहा है मेरे प्यार का दिया.

apni ek gazal mein maine jaaane kyon apna vishwas jataaya hai

न बुझा सकेंगी ये आंधियां
ये चराग़े दिल है दिया नहीं.

I am posting it today, chalo mera hausla bada ye kya kam hai.
saadar
Devi

०००००००००००००००००



५४४. मैं इक मामूली शायर हूं मामूली सा ही लिखता हूं --बिना तिथि की गज़ल, ईके को २९-९-०६ को प्रेषित


मैं इक मामूली शायर हूं मामूली सा ही लिखता हूं
शायरी नहीं तुकबन्दी ही करने की क्षमता रखता हूं

स्वान्त: सुखाय: मैं लिखता हूं और खुद लिख कर पढ़ लेता हूं
रसहीन लगे औरों को पर बन भ्रमर स्वयं रस चखता हूं

काफ़िया रदीफ़ तो आसां हैं कोई खौफ़ नहीं इन का मुझ को
लिखता हूं जब मैं गज़ल बहर पर अकसर आन अटकता हूं

दीवान की बात नहीं करता हैं और सुखनबर कितने ही
देने से दाद नहीं थकता जब गज़लें उन की पढ़ता हूं

एक एक शेर के रंग कई एक एक लफ़्ज़ के सौ मतलब
कैसा वो गज़ब का लिखते हैं पढ़ कर हैरत से तकता हूं

मेरा दिल है भोला-भोला मन में आये लिख देता हूं
कुछ को है मगर एतराज़ कि मैं शायर एक कोरा सस्ता हूं

आदाब खलिश उन को जिन के अशआर की पूजा होती है
और उन को भी जो कहते हैं मैं इक नन्हा गुलदस्ता हूं.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
२९ सितम्बर २००६





५४५. दिल में तसवीर बनाई है वो नज़रों में लाऊं कैसे--- १ अक्तूबर की गज़ल, ईके को १-१०-०६ को प्रेषित


दिल में तसवीर बनाई है वो नज़रों में लाऊं कैसे
जहां कदम कदम पर पहरे हैं उस दुनिया में जाऊं कैसे

यूं तो मेरी नज़रों में वो दिन रात समाये रहते हैं
मिलने की सूरत कोई नहीं मैं चैन जरा पाऊं कैसे

मैं प्यार तो करता हूं लेकिन उन का दिल रखने की खातिर
ला दूंगा चान्द सितारे यह झूठी कसमें खाऊं कैसे

ऐसे भी लमहे गुज़रे हैं वो थे नज़दीक बहुत मेरे
मैं रहा सोचता बिन बुलाये मैं पास भला आऊं कैसे

गम और खुशी में फ़र्क न हो ऐसा तो मैं भी पीर नहीं
आंखें नम हों तो हंस हंस कर मैं गीत खलिश गाऊं कैसे

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
३० सितम्बर २००६






५४६. जीवन की राह -- १३ अक्तूबर की कविता, ईके को १३-१०-०६ को प्रेषित


जीवन है एक राह निरन्तर चलना है
रुक जाने का अर्थ यहां पर मरना है

यहां अनवरत हम चलते ही रहते हैं
थकते हैं फिर भी बढ़ते ही रहते हैं

लेकिन तभी एक चौराहा आता है
कदम लाल बत्ती पर झट रुक जाता है

तब लगता है पराधीन कितने हैं हम
नहीं स्वेच्छा से धर सकते एक कदम.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
१ अक्तूबर २००६







५४७. हरकत तो कर रहे हैं अब क्या उन के लब कहें-- ५अक्तूबर की गज़ल, ईके को ५-१०-०६ को प्रेषित


हरकत तो कर रहे हैं अब क्या उन के लब कहें
मालिक हैं अपने दिल के वो जो चाहे जब कहें

जज़्बात बरसाते हैं वो यूं बात बात में
कोई खबर नहीं कि वो क्या जाने कब कहें

शायद कभी कह पाएं उन से अपने दिल की बात
उन के मिज़ाज़ में दिखे नरमी तो तब कहें

कहने को कुछ उन से बहुत अरसे से हैं बेताब
पर बात ऐसी है कि जब हो जाए शब कहें

ऐसे भी आए वक्त राह-ए-इश्क में खलिश
गुज़री है सारी रात कि वो कुछ तो अब कहें.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
१ अक्तूबर २००६

००००००००००००००

From: lavanyashah <lavanyashah@yahoo.com>
Date: Oct 5, 2006 11:19 PM


खलिशजी,
नमस्कार!
आपके नाम का अर्थ
आपहीने बतलाया कि - " PAIN "
होता है --
परँतु, आपकी हर ताजा
गजल, का अनुभव " elation"
करवा जाती है -
लिखते रहेँ ..
सादर - सस्नेह,

-- लावण्या

००००००००००००००००००००







५४८. गान्धी मैं शीश झुकाता हूं तुम ने हम को आज़ादी दी—२ अक्तूबर की गज़ल, ईके को २-१०-०६ को प्रेषित


गान्धी मैं शीश झुकाता हूं तुम ने हम को आज़ादी दी
हम इस का मोल नहीं समझे हम ने खुद को बरबादी दी

आज़ाद हुए हम आपस में लड़ने और मरने की खातिर
हम ने समाज का नंगापन तुम ने भारत को खादी दी

सच्चाई और अहिंसा के रस्ते को दिखलाया तुम ने
पर आज सियासत के उस्तादों ने हम को उस्तादी दी

तुम ने केवल आधी धोती से तन को ढकना सिखलाया
लूटो जनता का पैसा हर मंत्री ने यही मुनादी दी

हम जन-साधारण हैं खलिश तुम्हारी राह पे चल पाएं कैसे
इस एक बहाने की खातिर तुम को ‘थे संत’ उपाधि दी.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
गान्धी-जयन्ति, २ अक्तूबर २००६








५४९. कलम चलती रहे-- ३ अक्तूबर की गज़ल, ईके को ३-१०-०६ को प्रेषित
[6 syllables to a line]

कलम चलती रहे
गज़ल बनती रहे

फ़लक से चान्दनी
सदा छनती रहे

मय-ए- इश्क की
फ़िज़ां ढलती रहे

वफ़ा की आरज़ू
जवां पलती रहे

मोहब्बत की नज़र
हमें छलती रहे

ज़माने की नज़र
कहर करती रहे

दुनिया देख के
फ़कत जलती रहे

बहर में न खलिश
कोई गलती रहे.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
३ अक्तूबर २००६

00000000000

From: Mona Hyderabadi <mona_hyderabadi@yahoo.co.in
Date: Oct 3, 2006 3:08 PM

Khalishji,

Choti beher me(122, 212) me pyaari rachana hai.Magar ghazal ke niyamon se qaafiye sahi nahi hain kyonki ye sirf atukaant shabdon ko 'ti' badhaakar banaaye gaye.Ise geet keh sakte hain.In panktiyon ko zara si sudhaar ki zaroorat hai: (beher 21 aur na 1gina jaataa hai)

दुनिया देख के
फ़कत जलती रहे

बहर में न खलिश
कोई गलती रहे.

Sasneh, mona

०००००००००००००

From: Dr. Vinod Tewary <vinodtewary@gmail.com>
Date: Oct 3, 2006 12:15 PM
ई कविता के सब सदस्यों को नमस्कार । बहुत दिनों से आप सबकी अच्छी अच्छी कवितायें पढ रहा हूं। इधर अभिनव की आज की ग़ज़ल

"खोने से पहले " और उसके पह्ले "किताब की कविता" बहुत अच्छी लगी। ख़लिश साहब की ग़ज़लें ऒर नज़्में भी बहुत अच्छी हैं- बक़ॊल आप ही के- आप की क़लम चलती रहे। आज की यह नज़्म बहुत अच्छी लगी।

००००००००००००००००००००



५५०. धरम के नाम पर कोई किसी की जान लेता है-- ४ अक्तूबर की गज़ल, ईके को ४-१०-०६ को प्रेषित


धरम के नाम पर कोई किसी की जान लेता है
कतल जिस को किया उस को ही फिर इलज़ाम देता है

खुदा ने जब बनाया था तो इंसां पाक था कितना
बुराई के समन्दर में वो कश्ती आज खेता है

बड़ी मासूम ख्वाहिश-ओ-तमन्नाओं का खूं कर के
कोई आशिक समझता है किसी दिल का विजेता है

बदलते दम-ब-दम जब रंग देखा एक गिरगिट ने
किसी ने उस को समझाया डरो मत सिर्फ़ नेता है

सिरफ़ ख्वाबों से दुनिया की हकीकत टल नहीं सकती
खलिश बरबाद उम्मीदों को क्यों तू दिल में सेता है.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
३ अक्तूबर २००६



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