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Printed from https://www.writing.com/main/books.php/entry_id/626918
Rated: E · Book · Cultural · #1510158
Hindi poems in Hindi script, mainly ghazals, Serial no. 1-700
#626918 added December 31, 2008 at 12:40am
Restrictions: None
Poems / ghazals , no. 601- 625 in Hindi script




६०१. साथी दिल मेरा लूट गया --२१ नवम्बर की गज़ल, ईके को २१-११-०६ को प्रेषित


साथी दिल मेरा लूट गया
मैं तनहा पीछे छूट गया

मन में इक सपन सजाया था
जब आंख खुली वो टूट गया

मैं जिस के भरोसे बैठा था
वो भाग ही मेरा फूट गया

न उगल सका न नीचे ही
मेरे मुंह का विष घूंट गया

न लौट के आना था उस को
वह मुझ से कह कर झूठ गया

सींचा था खलिश जतन से जो
वह किस कारण रह ठूंठ गया.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
२० नवंबर २००६






६०२. माना कि सर के बाल सारे हो गये सफ़ेद, रंगीन अभी भी मगर दिल का मिज़ाज़ है--१ दिसम्बर की गज़ल, ईके को १-१२-०६ को प्रेषित


माना कि सर के बाल सारे हो गये सफ़ेद, रंगीन अभी भी मगर दिल का मिज़ाज़ है
हम क्या जवाब दें जो हम से पूछते हैं लोग, कुछ तो बताइये जो जवानी का राज़ है

जिस को न मारा मौत ने वो फ़िक्र से मरा, होना है जो होगा भला क्या फ़िक्र में धरा
कल की ही फ़िक्र में ज़माना हो गया बूढ़ा, जीयो तो कल को भूल, मानो सिर्फ़ आज है

हसरत न कीजिये पराई देख कर दौलत, जो दूर से दिखती है वो होती है परछाई
सोने का गो बना हो और हीरों से हो जड़ा, पूछे कोई शाहों से तो कांटों का ताज़ है

इंसान पाने का जतन करता है बस वही, जिस शय की कद्र उस की आंखों में जियादा हो
रूहानी खूबसूरती कोई तलाशता, कोई है जिस को अपने ज़ुल्फ़-ओ-खम पे नाज़ है

बंसी वही सुनाती है बिरहा की तान भी, जिस से खलिश सुना रहा कोई मिलन का राग
गम या खुशी की जैसी चाहे धुन निकालिये, ये ज़िन्दगी इंसान के हाथों में साज़ है.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
१ दिसम्बर २००६








६०३. हम को न खबर थी दुनिया में दिल की भी तिज़ारत होती है--२ दिसम्बर की गज़ल, ईके को २-१२-०६ को प्रेषित


हम को न खबर थी दुनिया में दिल की भी तिज़ारत होती है
आशिक के दिल में करूं ज़फ़ा ऐसी क्यों आदत होती है

नादान उमर, दिल भोला था हम इश्क अचानक कर बैठे
मालूम हुआ है अब हम को ये प्यार भी आफ़त होती है

माना हम मन्दिर मस्जिद में सज़दे न खुदा के करते हैं
हम प्यार जो सच्चा करते हैं ये भी तो इबादत होती है

नामुमकिन है अन्दाज़-ए-अदा उन की उल्फ़त के जान सकें
उन के सपनों में न आयें तो हम से शिकायत होती है

लाखों चलते हैं खलिश मगर मन्ज़िल कोई एक ही पाता है
न जाने क्या उन लोगों में ऐसी भी लियाकत होती है.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
१ दिसम्बर २००६






६०४. दोस्तों की दोस्ती भी देख ली--३ दिसम्बर की गज़ल, ईके को ३-१२-०६ को प्रेषित


दोस्तों की दोस्ती भी देख ली
गम भी देखे और खुशी भी देख ली

अश्क देखे हैं जो खुशियों में बहे
गम भरी फीकी हंसी भी देख ली

गर्दिश-ए-सहरा भी हम देखा किये
वादियों की दिलकशी भी देख ली

जो थे अनजाने वफ़ा उन से मिली
बेवफ़ाई यार की भी देख ली

झौंपड़ी का इश्क भी देखा खलिश
सेज सूनी, पर सजी, भी देख ली.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
२ दिसम्बर २००६








६०५. वो जो हो गये शहीद-ए-वतन--४ दिसम्बर की नज़्म, ईके को ४-१२-०६ को प्रेषित


वो जो हो गये शहीद-ए-वतन
वो जो खो गये गुलाब -ए-चमन

वो जो चढ़ गये सूली पे हंस
जिन्हें मौत में भी आया रस

जिन की मांओं ने कष्ट झेले थे
वो जो कुल के चराग अकेले थे

जिन की यादों में मेले लगते थे
जिन के जलसों में फूल सजते थे

वो सितारों में आज सजते हैं
तारीख में ही बसते हैं

उन्हें हम आज दिल से भूले हैं
हो के आज़ाद ऐसे फूले हैं.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
३ दिसम्बर २००६

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from roop hans <roophanshabeeb@yahoo.com
date Dec 5, 2006 12:46 AM
subject Re: [ekavita] ६०५. वो जो हो गये शहीद-ए-वतन--४ दिसम्बर की नज़्म


Khalish Sahib, aapne bilkul sach likha hai "unhen aaj dil se bhoole hain; ho ke azaad aise phoole hain." bahut khoob.! aur ismen kafi tour se galati hamari nasal ki bhi hai, nayee peeDhi ke bachhon ko hamane kuchh sikhaya nahin hai , aur khaaskar America jaise mulkon men aakar ham ne apni hindi/urdu zubaan tak nahin sikhayee ye zayada freedom men rakha apne bachon ko. aakhir yeh jimmewari bhi hamari hi thi ki unhen sikhate, samjhate.Mere bete ne jo america men pala america men "Gandhi movie apni marzi se poore mahine dekhi apne kamare men," aur jab Hindostaan gaya voh 13 saal ka tha,aur gareebi aur population dekhi to ro paDa, aur Gandhi Ghat par ja kar bahut ro kar duaa ki man hi man men. maine kaha beta chalo deri ho rahi hai, aur pochha rasate men tum kaya soach rahe the aur itane udaas the jawaab mila Dad main duaa kar raha tha ki India ko ab unki (Gandhi ) ki zayaadah zaroorat hai, to main duaa kar raha tha ki ab fir se wapis aa jao.../'Habeeb'

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from Ripudaman Pachauri <pachauriripu@yahoo.com>
date Dec 4, 2006 11:17 PM

ViDamBhnaa yah hai kee...
shaheedon ko log appricate bahut karte hain...sab chaahte hain.. kee
qurbani deni chaahiye. par apne ghar mein koi shaheed nahin
chaahta....

kyaa vichaar hai aap ka ?

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६०६. दिल का मालिक जिन्हें बना बैठे […………बैठे, (प्रथम, एक नज़्म): ६०६. दिल का मालिक जिन्हें बना बैठे—५ दिसम्बर की नज़्म, ईके को ५-१२-०६ को प्रेषित

दिल का मालिक जिन्हें बना बैठे
जिन पे हम चैन-ए-दिल लुटा बैठे

जिन्हें उल्फ़त के राज़ बतलाये
जिन्हें अन्दाज़-ए-इश्क सिखलाये

जिन की खातिर लड़े ज़माने से
तोडे़ सारे रवाज़ पुराने से

जिन के देखा किये बहुत सपने
न रहे गैर, अब हुए अपने

मेरी दुनिया में छा गये ऐसे
हैं वही, और कुछ नहीं जैसे

आज वो मेरे पास आये हैं
तोहफ़ा-ए-दिल भी साथ लाये हैं.

उन पे कुर्बान जां खलिश मेरी
रहूं ता-उम्र बन के मैं चेरी.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
३ दिसम्बर २००६





६०७. हम उन्हें दिल ये अपना दे बैठे […………बैठे, (द्वितीय, एक गज़ल): ६०७. हम उन्हें दिल ये अपना दे बैठे—६ दिसम्बर की गज़ल, ईके को ६-१२-०६ को प्रेषित


हम उन्हें दिल ये अपना दे बैठे
आफ़तों की बहार ले बैठे

जिस में नये रोज़ तूफ़ां उठते हैं
ऐसे दरया में कश्ती खे बैठे

जाने इस प्यार की है क्या मन्ज़िल
ऊंट करवट किस ओर से बैठे

जैसे नागिन हो कोई बल खाती
ज़ुल्फ़ वो यूं संवार के बैठे

कुछ न कर पाये हम मोहब्बत में
दिल में शक यूं हज़ार थे बैठे

जो खलिश थे गरूर के पुतले
क्यों पशेमान आज वे बैठे.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
३ दिसम्बर २००६







६०८. किसलिये उन से दिल लगा बैठे ………बैठे, (तॄतीय, एक नगमा): ६०८. किसलिये उन से दिल लगा बैठे —७ दिसम्बर की गज़ल, ईके को ७-१२-०६ को प्रेषित



चोट खुद अपने दिल पे खा बैठे
किसलिये उन से दिल लगा बैठे

लाख दुनिया ने हम को समझाया
है वफ़ा क्या ये हम को बतलाया
डूबती नाव में क्यों जा बैठे
किसलिये उन से दिल लगा बैठे

दिल भी टूटा वो ख्वाब भी टूटे
प्यार के वायदे रहे झूठे
वो जो भूले से मुस्करा बैठे
किसलिये उन से दिल लगा बैठे

राज़ उन के न हम समझ पाये
उन की बातों से ऐसे भरमाये
हम ये समझे वो दिल गंवा बैठे
किसलिये उन से दिल लगा बैठे

दिल ने खाया खलिश है वो झटका
अब ये आलम है बदहवासी का
मौत को पास हम बुला बैठे
किसलिये उन से दिल लगा बैठे

चोट खुद अपने दिल पे खा बैठे
किसलिये उन से दिल लगा बैठे.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
४ दिसम्बर २००६

तर्ज़—
दो घड़ी वो जो पास आ बैठे
हम ज़माने से दूर जा बैठे






६०९. मुझे जब उन का गम तनहाई में आ के सताता है—२१ जुलाई की गज़ल, ईके को २२-७-०७ को प्रेषित



मुझे जब भी गम-ए-तनहाई आ कर के सताता है
तभी ख्यालों में उन का चेहरा आ के मुस्कराता है

जो मैं रातों को सोता हूं तो उन से दूर होता हूं
बज़रिए ख्वाब पर दीदार उन का हो ही जाता है

जो मैं राहों में चलता हूं तो होता है गुमां मुझको
कि साया तैरता उन का हवा में साथ आता है

चमन-ओ-वादियों के बीच से जब भी गुज़रता हूं
उन्ही की खुशबुएं झोंका हवा का संग लाता है

वो पोशीदा रहेंगे कब तलक मुझ से खलिश आखिर
न जाने जन्म का कितने हमारे बीच नाता है.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
६ दिसम्बर २००६






६१०. क्या सखि साजन……….ईके को भेजी बिना तिथि के, ७-१२-०६ को

कभी हैं हीरो कभी हैं ज़ीरो रंग बदलें ज्यों गिरगिट
घर में डींग बजायें बाहर वालों से जाते पिट
खेलें ऐसा खेल कमेन्ट्री जिस की होती गिटपिट
क्या सखि साजन, ना री पगली खेलन वाले किरकिट

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
७ दिसम्बर २००६







६११. ज़िन्दगी पर हज़ार पहरे हैं--८ दिसम्बर की गज़ल, ईके को ८-१२-०६ को प्रेषित


ज़िन्दगी पर हज़ार पहरे हैं
इस दिल पे दाग गहरे हैं

पीतल के हैं असल में जो
दिखते बड़े सुनहरे हैं

सुन के भी जो नहीं सुनते
दुनिया में सब से बहरे हैं

नकाब की ज़रूरत क्या
बदलें वो रोज़ चेहरे हैं

रस्ते में पा खलिश हम को
हो शर्मसार ठहरे हैं.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
७ दिसम्बर २००६

०००००००००

from santosh kumar <ksantosh_45@yahoo.co.in
date Dec 8, 2006 12:00 PM

Khalish Ji,
सुन के भी जो नहीं सुनते
वही दुनिया में सब से बहरे हैं

क्या ज़रूरत नकाब की उन को
रोज़ जिन के बदलते चेहरे हैं

Bahut hee achche sher hai . ........Badhayee.
Santosh Kumar Singh

००००००००००००००

from S.M.Chandawarkar <chandawarkar@vsnl.net
date Dec 10, 2006 7:31 PM


डॉ गुप्त जी

आप की ग़ज़ल क्र. ६११: 'जिन्दगी पर हज़ार पहरे हैं' बहुत अच्छी लगी। बधाई!
मक्ते का शेर पढ कर शमीम जयपुरी का शेर याद आया:

तू ने तो तर्क़े मुहब्बत की कसम खाई थी
क्या तेरी आँख मुझे देख के भर आई है

सस्नेह
सीताराम चंदावरकर

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from Anoop Bhargava <anoop_bhargava@yahoo.com
date Dec 10, 2006 10:36 PM

खलिश साहब:

छोटे बहर की आप की यह गज़ल बहुत अच्छी लगी ।
सादर
अनूप

००००००००००००००००






६१२. मेरे मन में जितने गम थे उन को देखा तो भूल गया--९दिसम्बर की गज़ल, ईके को ९-१२-०६ को प्रेषित


मेरे मन में जितने गम थे उन को देखा तो भूल गया
इक पल जो साथ मिला उन का ये मुर्झाया मन फूल गया

उन की मुस्कान कभी रोते दिल में खुशियां भर देती थी
अब मुस्काते हैं तो मानो जैसे दिल में चुभ शूल गया

अरमानों के तिनके चुन कर ख्वाबों का महल बनाया था
तूफ़ां-ए-ज़फ़ा ऐसा गुज़रा कि प्यार मेरा बन धूल गया

न होश रहा हम दीवाने यूं प्यार में उन के हो बैठे
दिल ही पूंजी थी खो बैठे न ब्याज मिला और मूल गया

है वतन खलिश भूला उस को, उस माता की कुर्बानी को
जिस का बेटा हंसते हंसते फांसी के तख्ते झूल गया.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
८ दिसम्बर २००६






६१३. ग़मों को हम सहन कर पायें, आदत हम ने डाली है —१० दिसम्बर की गज़ल, ईके को १०-१२-०६ को प्रेषित

ग़मों को हम सहन कर पायें, आदत हम ने डाली है
चले आयें अभी कितने, जगह इस दिल में खाली है

अंधेरों में हमें रहने की आदत पड़ गई ऐसी
हमें परवाह नहीं कि रात रौशन है कि काली है

चलो कुछ तो मिला है आज उन से शुकरिया उन का
लबों से आई जो उन के लगे मीठी ये गाली है

शऊर हम को नहीं, है इश्क की दीवनगी ऐसी
शकल उजबक सी दिखती है कि ज्यों कोई मवाली है

खलिश दिलबर के राज़-ए-दिल बहुत ढूंढा किये लेकिन
छिपा कर के कहां रखी न जाने दिल की ताली है.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
१० दिसम्बर २००६

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date Dec 12, 2006 1:46 AM

आदरणीय गुप्ता जी,
हमें परवाह नहीं रात रोशन है कि काली है। रचना में दम है। इधर कुछ समय से लिखने-पढ़ने की दुनिया
से कुछ कट सा गया था। अब आपलोगों की अच्छी-अच्छी रचनाएं मिलेंगी तो अपना जोश भी जागेगा।
इसलिए तड़ातड़ दो-तीन ग़ज़लें और भेज डालिए।
शुक्रिया

अभिरंजन कुमार
०००००००००००००






६१४. जब उन्होंने दाद दी तो सिर्फ़ इतना हम कहे—११ दिसम्बर की गैर-मुरद्दफ़ (बिना रदीफ़ की) गज़ल, ११-१२-०६ को प्रेषित


जब उन्होंने दाद दी तो सिर्फ़ इतना हम कहे
आप का करम कलम से आज अश्क हैं बहे

है हमारे रुख पे नूर की झलक मिली उन्हें
वो क्या जानें उन के वास्ते हैं कितने गम सहे

अश्क तो बहे मगर न आग को बुझा सके
ज़ाहिराना मुस्कराते दो बिचारे दिल दहे.

हम भी थे जवान आसमान में उड़े बहुत
जब ज़मीन पर गिरे वो ख्वाब के महल ढहे

लमहे आये हैं खलिश वो ज़िन्दगी में बारहा
जब लगा कि इस जहां में हम रहे कि न रहे .

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
११ दिसम्बर २००६







६१५. लो चुकी ज़िन्दगी मौत का है समां -- १२ दिसम्बर की गैर-मुरद्दफ़ (बिना रदीफ़ की) गज़ल, ईके को १२-१२-०६ को प्रेषित


लो चुकी ज़िन्दगी, मौत का है समां
एक लमहा है दोनों के अब दरमियां

जो उजड़ा ज़मीं पे तो गम कुछ नहीं
अब फ़लक पर बनेगा मेरा आशियां

न हस्ती न कुछ भी है मेरा वज़ूद
क्यों रहें इस जहां में कदम के निशां

चाहे मायूस है मेरा चेहरा मगर
मेरी फ़ितरत में हैं लाख शोले निहां

अलविदा कर चला मैं जहां को खलिश
अब हुआ खत्म चाहती हैं ये दूरियां.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
११ दिसम्बर २००६

०००००००००

from roop hans <roophanshabeeb@yahoo.com
date Dec 12, 2006 5:26 PM
subject Re: [ekavita] ६१५. लो चुकी ज़िन्दगी मौत का है समां --१२ दिसम्बर की गैर-मुरद्दफ़ (बिना रदीफ़ की) गज़ल

"chahe mayoos hai mera chehra magar ;
meri fitrat men hai lakh shole nihan..."
Khalish bhai, aapko daad dene men main baDi kotahi karta hun, lekin jaise mera naam hans hai, moti dekh raha nahin jata hai, aapka yeh sheyer kalam toD sheyer hai.JIO/'Habeeb'

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from Abhiranjan Kumar <lekhak@abhiranjankumar.com
date Dec 13, 2006 1:52 AM
subject [ekavita] खलिश जी और हबीब जी।

आदरणीय खलिश जी
आपके बुढ़ापे में इतनी जवानी है तो जवानी में कितनी जवानी रही होगी। क्या खूब हो अगर आप अपनी
जवानी के दिनों के कुछ शेर भी अर्ज कर ही डालें।
बहरहाल आपकी ग़ज़लों की रवानी और इस बहती हुई जवानी पर मुझ जैसे जवानों को भी ईर्ष्या करने को
जी चाहता है।
सादर,
आपका
अभिरंजन कुमार

>
> हबीब जी,
>
> शुक्रिया. खुदा की मेहरबानी है कि आप जैसे सुखनवर मेरी कलम की रौ में रवानगी की
> झलक पाते है. मुझे त०#8249; ग०#8250;ल के बुनियादी पहलू, बहर का हिसाब-किताब, यह
सब कुद#8250;
> नहीं आता. कहते हैं खुदा जब हुस्न देता है, न०#8250;ाकत आ ही जाती है. उसी तरह शायद
> बुढ़ापा सर पे आता है त०#8249; तबीयत शायराना ह०#8249; ही जाती है. कुद#8250; ई-कविता
की संगत का
> असर है, कुद#8250; अंग्रे०#8250;ी में कविता करने का, कि कभी कभी मेरी लिखी
ग०#8250;ल ऐसी बन जाती
> है कि आप की दाद पा ही जाती है.
>
> खलिश
०००००००००००००००००००००








६१६. वादे करना तो आसां है मुश्किल है उन्हें निभा देना—२३ जुलाई की गज़ल, ईके को २३-७-२००७ को प्रेषित


वादे करना तो आसां है मुश्किल है उन्हें निभा देना
अरमान जगाना आसां है मुश्किल है उन्हें दबा देना

दुनिया है दुश्मन आशिक की यहां कदम कदम पर पहरे हैं
आसां है करना इश्क मगर मुश्किल है इश्क छिपा देना

इस राह-ए-मोहब्बत में पल पल सौ दर्द ज़िगर में उठते हैं
रुसवां होना तो आसां है मुश्किल है अश्क बहा देना

सिलसिला वफ़ा का और ज़फ़ा का इक अनबूझ कहानी है
आसां है प्यार शुरू करना मुश्किल है प्यार भुला देना

जब तर्क मोहब्बत होती है तब खलिश बहुत दिल दुखता है
यादों का आना आसां है मुश्किल है याद मिटा देना.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
११ दिसम्बर २००६








६१७. वो प्यार तो करना चाहते हैं पर करने से कतराते हैं—२४ जुलाई की गज़ल, ईके को २४-७-२००७ को प्रेषित


वो प्यार तो करना चाहते हैं पर करने से कतराते हैं
लब हिलते हैं कुछ कहने को पर कहने से शरमाते हैं

पल भर को नज़र उठती है तो उठते ही फिर झुक जाती है
हम उन की अदाओं के सदके उन पर जी जान लुटाते हैं

उन के हुस्न और नज़ाकत की तारीफ़ भला कैसे कीजे
वो कोई परी या इंसां हैं ये सोच के हम भरमाते हैं

दिल की पुरज़ोर तमन्ना को उन पर ज़ाहिर कैसे कर दें
हो जायें खफ़ा न वो हम से यह सोच के हम रह जाते हैं

इज़हार न हम कर पाते हैं राहों में खलिश गर मिल जायें
पर रातों की तनहाई में दिल में सौ ख्वाब सजाते हैं.


महेश चन्द्र गुप्त खलिश
११ दिसम्बर २००६










६१८. अरमां हैं हज़ारों एक शब में ही खतम न कर-- १९ दिसम्बर की गज़ल, ईके को १९-१२-०६ को प्रेषित


अरमां हैं हज़ारों एक शब में ही खतम न कर
चमन के फूल सारे एक दिन में ही कलम न कर

ये माना कि हुकूमत ही रियाया को खिलाती है
मगर ऐ हुक्मरां ऐसे तो तू हम पे ज़ुलम न कर

रोमां, तुर्क, बर्तानी, बुलन्दी छू गयी सब को
हुए सब पस्त, ताकत का मेरे आका भरम न कर

इनायत है सनम की शुक्रिया है बारहा उन को
समाए न खुशी दिल में मेरे ऐसे करम न कर

बहुत सहने की यूं तो पड़ गयी है अब खलिश आदत
ये दिल ही टूट जाये दिल पे तू ऐसे सितम न कर.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
१२ दिसम्बर २००६









६१९. मैं भला कोयला काला हूं-- १४ दिसम्बर की कविता, ईके को १४-१२-०६ को प्रेषित


माना बाहर से काला हूं
भीतर से सीरत वाला हूं

दिन भर कोई स्वेद बहाता है
फिर चून कमा कर लाता है
कोयले पर उसे पकाता है
तब दो रोटी वह खाता है

है मेरा भाई एक बड़ा
हीरा बन चमके ताज जड़ा
कोई ताके उस को खड़ा खड़ा
उस के भ्रम में संसार पड़ा

है बड़ा भाई वह, अभिनन्दन
लेकिन सोचूं मैं मन ही मन
हीरे को तो करना धारण
ही बना दुश्मनी का कारण

मुझ में शोले की दमक छिपी
भट्टी की लौ की ललक छिपी
और अंगारों की चमक छिपी
ऊर्जा, इन सब की जनक, छिपी

माना बाहर से काला हूं
भीतर से सीरत वाला हूं

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
१२ दिसम्बर २००६

००००००००००

from santosh kumar <ksantosh_45@yahoo.co.in>
date Dec 15, 2006 4:20 PM

खलिश जी,
अच्छी कविता के लिए बधाई।
किन्तु -
मैं भला कोयला काला हूँ।
पर रोटी का रखवाला हूँ।।
वाली बात से मेरा विचार मेल नहीं खाता है। मेरा मानना है कि
कोयला जले तो स्वयं को राख कर देता।
अंगार बन कर दूसरों को खाक कर देता।
रखवाली में न देना छोड़ रोटी को कभी,
सानिध्य में पाकर उसे भी राख कर देता।।
सन्तोष कुमार सिंह









६२०. यही बेहतर था तुम को बज़्म में गाने नहीं देता-- १८ दिसम्बर की गज़ल, ईके को १८-१२-०६ को प्रेषित

यही बेहतर था तुम को बज़्म में गाने नहीं देता
दिल-ए-दुश्मन को हरगिज़ भी मैं बहलाने नहीं देता

मुझे मालूम होता जा के तुम वापस न आओगे
तो फिर ऐ बेवफ़ा पहलू से मैं जाने नहीं देता

अगर यह जान जाता आये हो बस चार ही दिन को
तो अपने दिल में मैं तुम को कभी आने नहीं देता

अगर एहसास होता तोड़ के इस दिल को जाओगे
तुम्हारी याद अपने दिल पे मैं छाने नहीं देता

मुझे मालूम होता मय तुम्हें माफ़िक न आयेगी
खलिश गम गल्त करने को ये पैमाने नहीं देता.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
१२ दिसम्बर २००६






६२१. दुनिया के किनारों को कभी का छोड़ आया हूं-- १७ दिसम्बर की गज़ल, ईके को १८-१२-०६ को प्रेषित


दुनिया के किनारों को कभी का छोड़ आया हूं
मैं रिश्ता-ए-मोहब्बत आज सब से तोड़ आया हूं

बहुत मैंने निभायी दोस्ती पर रास न आयी
वफ़ा की राह में यारो नये एक मोड़ आया हूं

नहीं मुमकिन कि आ जाये हंसी होठों पे इक पल को
मैं नाता ज़िन्दगी भर का गमों से जोड़ आया हूं

इज़ाज़त जिस की ज़माना कभी भी दे नहीं सकता
मैं अपने दिल में ऐसी आज ले के होड़ आया हूं

दुनिया में कदम रखने से पहले ही खलिश अपनी
किस्मत का घड़ा लगता है जैसे फोड़ आया हूं.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
१२ दिसम्बर २००६

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from roop hans <roophanshabeeb@yahoo.com>
date Dec 18, 2006 9:33 AM
subject Re: [ekavita] ६२१. दुनिया के किनारों को कभी का छोड़ आया हूं-- १७ दिसम्बर की गज़ल

Khalis ji itna bhi udaas no ho jao ham bhi ap ko payar karte hain ,ham bhi shayer hain hamko maloom hai aapki dimagi halat ka. ZINDAGI JINE KA NAAM HAI> KHUDKASI BUJHDILI HAI>JIO>AUR KHOOB JIO YEHI HABEEB KA PAIGAAM HAI>LOVE.'HABEEB"

००००००००००००००






६२२. आलम है जब चलने का तो क्यों नये खेमे लगा रहे-- १६ दिसम्बर की गज़ल, ईके को १६-१२-०६ को प्रेषित

आलम है जब चलने का तो क्यों नये खेमे लगा रहे
उजड़े घर को वक्त-ए-रुखसत में फिर क्यों तुम सजा रहे

न वो दम है न वो खम है न वो चेहरा नूरानी
गई जवानी के जलवे अब क्यों दुनिया को दिखा रहे

बदले लोग ज़माना बदला न वो सुनने वाले हैं
ले कर टूटा साज़ हाथ में भूले नगमे सुना रहे

कश्ती तो हो गयी पुरानी है बहाव भी हलका ही
नहीं भरोसा थोड़ा पानी भी दरया में बना रहे

वक्त नहीं है काम बहुत है खलिश जरा अब तो चेतो
एक एक दिन कर के क्यों तुम जीवन अपना गंवा रहे.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
१३ दिसम्बर २००६

००००००००००००००

from Laxmi N. Gupta <lngsma@rit.edu
date Dec 17, 2006 12:05 AM

bahut sundar, khalish jii,

बदले लोग ज़माना बदला सुनने वाले नहीं रहे
ले कर टूटा साज़ हाथ में भूले नगमे सुना रहे

laxminarayan

००००००००००००००००००

from roop hans <roophanshabeeb@yahoo.com>
date Dec 17, 2006 10:53 PM

Khalish Bhai,
badle log zamana badala sunane vale nahin rahe
is jahan men 'Habeeb' koi sunane samajhane vale nahin rahe.

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६२३. हम जिये ज़िन्दगी शराफ़त में-- १३ दिसम्बर की गज़ल, ईके को १३-१२-०६ को प्रेषित

हम जिये ज़िन्दगी शराफ़त में
हैं इसी वज़ह आज आफ़त में

क्या बतायें दिन-ए-जवानी में
किस तरह हम फ़ंसे खुराफ़त में

वो भी क्या वक्त था कि रात-ओ-दिन
दिल को पाते थे एक शामत में

न जवानी बुलन्द कर पाये
है बुढ़ापा भी पस्त हालत में

छोड़ हिकमत खलिश चले आये
वक्त कटता है अब वकालत में.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
१३ दिसम्बर २००६







६२४. मेरे पास देने को अब क्या बचा है—२९ जुलाई २००७ की गज़ल, ई के को ३०-७-०७ को प्रेषित


मेरे पास देने को अब क्या बचा है
दे दो का क्यों शोर अब तक मचा है

अंगुल पे जिस ने सभी को नचाया
इशारों पे वो आज सब के नचा है

रहना भतीजे से डर के है अच्छा
हुआ क्या कि रिश्ते में कोई चचा है

लेते हुए चाहे लगता है प्यारा
रिश्वत का पैसा कभी न पचा है

ख्वाहिश न हो तो जियोगे खुशी से
तरीका यही इक खलिश को जंचा है.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
१३ दिसम्बर २००६






६२५. दगा दोगे तुम ये अगर जानता मैं तो दिल टूटने की शिकायत न करता-- १५ दिसम्बर की गज़ल, ईके को १५-१२-०६ को प्रेषित

दगा दोगे तुम ये अगर जानता मैं तो दिल टूटने की शिकायत न करता
अगर जानता दर्द है इश्क में तो उल्फ़त की हरगिज़ हिमायत न करता

मुझे क्या पता था जो होगा बुढ़ापा तो फ़रज़न्द मेरे लुटायेंगे दौलत
फटे हाल रहता न मैं ज़िन्दगी भर, ता-उम्र इतनी किफ़ायत न करता

नफ़ा और नुक्सां, खरच और आमद, इन्हीं में गुज़ारा है जीने का आलम
जज़्बा रूहानी जो फ़ितरत में होता, तो दुनिया के रंग पे कनायत न करता

थी उम्मीद लेकिन बड़े कांपते से हाथों तुम्हें एक तोहफ़ा दिया था
जो एहसास होता कि ठुकराओगे तुम नज़राना-ए-दिल इनायत न करता

खलिश दिल दिया है तुम्हें जां भी देंगे, न तुम ने कबूला, ये दीगर है मसला
दुश्मन भी कोई न यूं पेश आता, कोई और होता, रियायत न करता.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
१३ दिसम्बर २००६







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