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Printed from https://www.writing.com/main/books/entry_id/626812
Rated: E · Book · Cultural · #1510158
Hindi poems in Hindi script, mainly ghazals, Serial no. 1-700
#626812 added December 30, 2008 at 4:52pm
Restrictions: None
Poems / ghazals , no. 476 - 500 in Hindi script
४७६. सांस मेरी एक दिन सो जायेगी—RAMAS—ईकविता ८ सितंबर २००८

सांस मेरी एक दिन सो जायेगी
ज़िन्दगी जाने कहीं खो जायेगी

दर्द में हस्ती मेरी हंसती रही
आखिरी लमहात में रो जायेगी

दौलते-ग़म है बहुत नायाब ये
दफ़्न मेरे साथ ही हो जायेगी

चल पड़े हैं हमसफ़र के संग अब
राह जाने कब किधर को जायेगी

फ़िक्र क्यों ये नाव जीवन की ख़लिश
चल पड़ी है तो कहीं तो जायेगी.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
२० अगस्त २००६
०००००००००००००

Tuesday, 9 September, 2008 2:11 AM
From: "krishna kanhaiya" kanhaiyakrishna@hotmail.com

खलिश साहब,
छोटे बहर में बहुत उम्दा कहा है।
आप बधाई के पात्र हैं

डॉ. कृष्ण कन्हैया
बर्मिंघम, इंग्लैंडKrishna Kanhaiya
०००००००००००

Monday, 8 September, 2008 9:57 PM
From: "Amar Jyoti" nadeem_sharma@yahoo.com

बहुत ख़ूब!
००००००००००००





४७७. मासूम गरदनों पर एक बरछी देखी है

मासूम गरदनों पर एक बरछी देखी है
इंसानियत की रूह कुछ डरती देखी है

बर्दाश्त से बाहर अब दहशतगर्दी फ़ैली
मज़हब की दुहाई पर खूँगर्ज़ी देखी है.

नागासाकी हीरोशिमा से भी बढ़ कर
एटम बम की छाया फिर पड़ती देखी है

दुनिया के मुल्क सभी तकते हैं सहमे से
ताकतवर मुल्कों की बदमर्ज़ी देखी है

प्यार की राहों में हम खलिश चले लेकिन
हमसफ़र की आंखों में खुदगर्ज़ी देखी है.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
३ सितम्बर २००६







४७८. अब कविता करना छोड़ दिया—६ सितम्बर की कविता, ईके को ५-९-०६ को प्रेषित

हैं भरे हॄदय में भाव उतरते शब्दों में कतराते हैं
निर्जीव लेखनी का माध्यम पा कर कुंठित हो जाते हैं
जिस दिल में छंद बसाये थे हम ने वह दिल ही तोड़ दिया
अब कविता करना छोड़ दिया

जो अब तक लिखा अधूरा था श्रोता न मुझ को मिला कभी
रोया न कोई सुन कर कविता न हॄदय किसी का खिला कभी
लेखनी अभी भी बहती है पर धार को हम ने मोड़ दिया
अब कविता करना छोड़ दिया

सुनते थे कवि की पहुंच रवि से भी आगे बढ़ होती है
कहते हैं कवि की पूछ सभी जन से आगे चढ़ होती है
सब सपने थे वह स्वप्न कलश खुद अपने हाथों फोड़ दिया
अब कविता करना छोड़ दिया

जो हम न करेंगे कविता तो क्या काव्य लुप्त हो जायेगा?
सरगम के सुर सो जायेंगे या ज्ञान गुप्त हो जायेगा?
खिसियाये कवियों की सूची में अपना नाम भी जोड़ दिया
अब कविता करना छोड़ दिया.

• बहर—Equivalent to iambic octameter

हैं भ//रे हॄद//य में भा//व उत//रते श//ब्दों में// कतरा//ते हैं//
निर्जीव लेखनी का माधय्म पा कर कुंठित हो जाते हैं
जिस दि//ल में छं//द बसा//ये थे// हम ने// वह दि//ल ही तो//ड़ दिया//

• तर्ज़—
जिस दिल में बसा था प्यार तेरा, वो दिल ही कभी का तोड़ दिया
जिस दि//ल में बसा// था प्या//र तेरा//, वो दि//ल ही कभी// का तो//ड़ दिया //


Jis dil mein basa tha pyaar tera
Us dil ko kabhi ka tod diya, haay, tod diya
Badnaam na hone denge tujhe
Tera naam hi lena chhod diya, haay, chhod diya
Jis dil mein basa tha pyaar tera

Saheli: Mukesh, Indeevar

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
५ सितम्बर २००६

०००००००००००००

From: Laxmi N. Gupta <lngsma@rit.edu>
Date: Sep 6, 2006 1:36 AM

अति सुन्दर। बधाई।
आपकी कविता से एक पुरानी कविता याद आ गई, जो एक युग पहले बम्बई से निकलने वाले श्री
वेंक्टेश्वर समाचार में पढ़ी थी:

कविता करना छोड़ दिया है
छोड़ सभी को केवल घर वाली से नाता जोड़ लिया है
जब किताब ले पढ़ने बैठूँ तभी भाव करवट लेते हैं
चाहे सर पर इम्तिहान हो पढ़ना दूभर कर देते हैं
एक्सर्साइज़ की कापी को कविता�"ं से बहर लेता हूँ
लोग पास हो जाते हैं, मैं सब्र फेल हो कर लेता हूँ

लक्ष्मीनारायण

००००००००००

From: Bhawna Kunwar <bhawnak2002@yahoo.co.in>
Date: Sep 6, 2006 1:00 PM
Khalish ji

Bahut ache bav han. aapko badhai.sach hi kaha ha aapne .

Bhawna Kunwar

०००००००००००००००००००००






४७९. ज़िन्दगी के रास्तों में मैं कहीं खो जाऊंगा


ज़िन्दगी के रास्तों में मैं कहीं खो जाऊंगा
लौट कर न आऊंगा

आज मेरी इक झलक तरसे तुम्हारी आंख को
एक पत्ता आज भारी पड़ गया है शाख को
एक दिन झोंका हवा का आयेगा झड़ जाऊंगा
लौट कर न आऊंगा

निज हॄदय की भावना को मार कर जीता रहा
प्रेम रस की आस में मैं अश्रु रस पीता रहा
अश्क चुक जायेंगे सूखे होंठ ही मर जाऊंगा
लौट कर न आऊंगा

झेला दीवानापन मेरा ऐ दोस्त मेरे शुक्रिया
और न तकलीफ़ दूंगा मेरे हमदम शुक्रिया
वक्त-ए-रूख्सत इत्तिला कर के न तुम को जाऊंगा
लौट कर न आऊंगा.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
५ सितम्बर २००६





४८०. दिल बता दे क्या करूं—७ सितम्बर की कविता, ईके को ७-९-०६ को प्रेषित


हर घड़ी दुनिया के सौ गम सह के भी मैं क्या करूं
चुप भी मैं कैसे रहूँ और कह के भी मैं क्या करूं
दिल बता दे क्या करूं

प्यार की मेरे तुम्हारी आंख में कीमत नहीं
भूल जाऊं मैं तुम्हें इस दिल की ये सीरत नहीं
और पास आने की भी लगती कोई सूरत नहीं
इक परेशानी में हूँ मैं अब करूं तो क्या करूं
दिल बता दे क्या करूं

मैं तेरी दुनिया से इक दिन दूर चला जाऊंगा
और गुज़रे वक्त की मानिन्द नहीं आऊंगा
वक्त-ए-रूख्सत भीगी पलकों से तराना गाऊंगा
ऐ मेरी बरबाद मोहब्बत बता दे क्या करूं
दिल बता दे क्या करूं


•बहर—Equivalent to iambic octameter

ह//र घड़ी// दुनिया// के सौ// गम स//ह के भी// मैं क्या// करूं//

•तर्ज़—
ऐ// गम-ए//-दिल क्या// करूं// ऐ वह//शत-ए//-दिल क्या// करूं //

Raaste Mein Ruk ke Dum Loo, Yeh Meri Aadat Nahi
Lautkar Vaapas Chala Jaoo, Yeh meri Fitrat Nahi
Aur Koi Humanwa Mil Jaaye, Yeh Kismat Nahi
Aye Gham-E-Dil Kya Karoo, Aye Vahshat-E-Dil Kya Karoo …?
-- Majaz, Talat


महेश चन्द्र गुप्त खलिश
५ सितम्बर २००६






४८१. है घुटन भरी इस जीवन में-- --८ सितम्बर की कविता, ईके को ७-९-०६ को प्रेषित

हर सांस मेरी बोझिल सी है
हर प्रीत बड़ी बेदिल सी है
और तनहाई कातिल सी है
ज्यों धुआं भरा मेरे मन में

है घुटन भरी इस जीवन में

मन में विचार तो आते हैं
अभिव्यक्ति से कतराते हैं
चाह कर भी दब न पाते हैं
आंखें गीली करते क्षण में

है घुटन भरी इस जीवन में

होता कोई उन्मुक्त गगन
उड़ता स्वतन्त्र मैं पंछी बन
मेरा घर होता सारा वन
होता न किसी के बन्धन में

है घुटन भरी इस जीवन में

क्यों सपने देख रहा गाफ़िल
सपनों से क्या होगा हासिल
उड़ने के नहीं रहा काबिल
क्या रखा है इस क्रन्दन में

है घुटन भरी इस जीवन में.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
७ सितम्बर २००६







४८२. आज रोटी के लिये अपने वतन से दूर हूं--९ सितम्बर की कविता, ईके को ७-९-०६ को प्रेषित


आज रोटी के लिये अपने वतन से दूर हूं
माफ़ करना माँ कि किस्मत से बहुत मज़बूर हूँ

चाहता था मैं भी कदमों में तेरे कुछ पा सकूँ
बैठ कर गोदी में तेरे प्यार का सुख पा सकूँ
दर्द से मैं रो सकूँ उन्मुक्त हो कर गा सकूँ
न बुढ़ापे की मैं लाठी बन सका हूँ क्रूर हूँ

माफ़ करना माँ कि किस्मत से बहुत मज़बूर हूँ

कष्ट सह कर गर्भ में रखा मुझे पाला मुझे
खुद रही भूखी दिया निज मुख का निवाला मुझे
जो संजोया स्वप्न तिस अनुरूप ही ढाला मुझे
किन्तु तुझ को भूल मैं अपने नशे में चूर हूँ

माफ़ करना माँ कि किस्मत से बहुत मज़बूर हूँ

है ये मेरा प्रण कि इक दिन लौट कर मैं आऊंगा
बैठ चरणों में तेरे तव वन्दना मैं गाऊंगा
प्रायश्चित पापों का अपने एक दिन कर जाऊंगा
ज़िन्दगी भर के लिये माँ मैं तेरा मश्कूर हूँ

माफ़ करना माँ कि किस्मत से बहुत मज़बूर हूँ

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
७ सितम्बर २००६

डॉ० भावना कुँअर की कविता माँ मुझे भी प्यारी है.... से प्रेरित--
[रोजी रोटी के लिए अपने वतन से दूर हूँ जन्मदिन पर जा भी नहीं सकती चैट कर सकती हूँ,फोन कर सकती हूँ और वैब कैम पर देख सकती पर इतने सब से मन कहाँ मानता है क्योंकि माँ से बढकर इस दुनिया में है ही क्या माँ तो सबको ही प्यारी होती है०००

माँ मुझे भी प्यारी है, माँ तुम्हें भी प्यारी है
माँ इस दुनिया में, सबसे ही न्यारी है।]

००००००००००००००००००

From: Sameer Lal <sameerlal_1@yahoo.com>
Date: Sep 7, 2006 11:01 PM

खलिश साहब,

"चाहता था मैं भी कदमों में तेरे कुछ पा सकूँ
बैठ कर गोदी में तेरे प्यार का सुख पा सकूँ
दर्द से मैं रो सकूँ उन्मुक्त हो कर गा सकूँ
न बुढ़ापे की मैं लाठी बन सका हूँ क्रूर हूँ

माफ़ करना माँ कि किस्मत से बहुत मज़बूर हूँ"


बहुत मार्मिक रचना है. भीतर तक झंकझोर दिया. अति सुंदर.
आज भारत मे वन्दे मातरम का शताब्दी समारोह मनाया जा रहा है...मां की वन्दना की शताब्दी...कुछ अचरज होता है, मगर ऎसा ही है, कुछ पंक्तियां लिखी थी:

वन्दे मातरम
आज इस धरा पर, अजब सा काम हो गया,
माँ की वन्दना, भाव नही एक गान हो गया.
सियासती ये साजिशें तुम पहचान लो इन्हें
आपस मे तुम लड़ो, तो इनका काम हो गया.
०००००००००००००००००००००००००००००००

From: Mona Hyderabadi <mona_hyderabadi@yahoo.co.in>
Date: Sep 9, 2006 8:08 AM

Khalishji,

Man ko sparsh karne waali rachna ke liye badhaayi .Khaaskar ye panktiyaan bahut sundar hain
कष्ट सह कर गर्भ में रखा मुझे पाला मुझे
खुद रही भूखी दिया निज मुख का निवाला मुझे
जो संजोया स्वप्न तिस अनुरूप ही ढाला मुझे
किन्तु तुझ को भूल मैं अपने नशे में चूर हूँ

माफ़ करना माँ कि किस्मत से बहुत मज़बूर हूँ
mona

०००००००००००००००

From: rama dwivedi <ramadwivedi@yahoo.co.in>
Date: Sep 10, 2006 3:52 PM
खलिश जी,
मां के लिए लिखी गयी
ह्रदयस्पर्शी कविता
दिल में गहरे उतर
गई।मां अनमोल
है।मैने भी मां के
लिए एक गीत लिखा था
।कुछ पन्क्तियाम पेश
हैं....
छोड कर मां को दिल
के दो टुकडे हुए
फिर भी जीवन का
दस्तूर करती रही
मेरे जीवन की
घडियां बिखरती रहीं

वक्त जाता रहा मैं
तडपती रही
मां के आंचल को मैं
तो तरसती रही....
पूरा गीत अलग से भेज
रही हूं।
सुन्दर रचना के लिए
बहुत बहुत बधाई।
सादर,
डा.रमा द्विवेदी








४८३. बेअसर मैं रोज़ होता जा रहा

बेअसरमैं रोज़ होता जा रहा
कोई अन्दर से मुझे है खा रहा

ज़िन्दगी पेचीदा कितनी हो गयी
गैर मुमकिन है मगर सुलझा रहा

क्यों भला रूख पे हों ताब-ओ-नूर अब
मैं तराना अलविदा का गा रहा

है सभी पर जो जहां में मेहरबां
अब भरोसा सिर्फ़ है उस का रहा

कोई दुनिया में नहीं उस के सिवा
जाते जाते सब को यह समझा रहा

माफ़ करना दोस्त मेरी सब खता
है नज़र में अब अन्धेरा छा रहा

और जी कर क्या करूंगा मैं खलिश
बारहा यह ख्याल मुझ को आ रहा.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
७ सितम्बर २००६





४८४. कोई हमप्याला बने तो ज़हर भी मैं पी सकूं

कोई हमप्याला बने तो ज़हर भी मैं पी सकूं
हमसफ़र कोई मिले तो ज़िन्दगी मैं जी सकूं

मेरी वीरानी को कोई तो कभी रोशन करे
कोई तो हो जिस के बैठूं पास जब भी मन करे
जो मुझे बहलाये मेरे दर्द-ए-दिल को कम करे
देख कर पलकों को जिस की चाक दिल को सी सकूं

हमसफ़र कोई मिले तो ज़िन्दगी मैं जी सकूं

आज मैं सड़कों पे फिरता कोई भी अपना नहीं
एक रोटी के सिवा मेरा कोई सपना नहीं
कौन सी है रात जब गम सहना तड़पना नहीं
पांव में ताकत नहीं दो गाम अब चल भी सकूं

हमसफ़र कोई मिले तो ज़िन्दगी मैं जी सकूं

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
८ सितम्बर २००६









४८५. ऐ मेरे प्यारे सनम, कुछ तो कर मुझ पे करम, आ जा मेरे पास

ऐ मेरे प्यारे सनम, कुछ तो कर मुझ पे करम, आ जा मेरे पास

तू अगर हंस हंस के मांगे जान भी दे देंगे हम
जान तो क्या चीज़ है ईमान भी दे देंगे हम
तू ही मेरी आरज़ू है, तू ही मेरी आबरू, तू ही मेरी आस
ऐ मेरे प्यारे सनम, कुछ तो कर मुझ पे करम, आ जा मेरे पास

एक वकत था जब मेरे पहलू से न उठते थे तुम
मेरे दम से जीते मेरे दम से आह भरते थे तुम
उस वकत को याद कर, कुछ तो ले मेरी खबर, दिल की सुन अरदास
ऐ मेरे प्यारे सनम, कुछ तो कर मुझ पे करम, आ जा मेरे पास

आज वो दिन क्यूं न आएं जब बने थे हमसफ़र
मुन्तज़िर मेरी नज़र की आप की थी हर नज़र
आप की यह बेरुखी, लमहा लमहा हर घड़ी, कर रही उदास
ऐ मेरे प्यारे सनम, कुछ तो कर मुझ पे करम, आ जा मेरे पास.

तर्ज़—

ऐ मेरे प्यारे वतन, ऐ मेरे बिछड़े चमन, तुझ पे दिल कुर्बान

Movie Name: Kabulivala
Singer(s): Manna Dey
Music Director(s): Salil Chaudhari
Lyricist(s): Prem Dhawan


Eh mere pyaare watan, eh mere bichhde chaman,
tujh pe dil qurbaan
Tu hi meri aarzoo, tu hi meri aabroo, tu hi meri jaan

(Tere daaman se jo aaye un hawaao ko salaam
Choom lu main us zubaan ko jispe aaye tera naam) - 2
Sabse pyaari subaah teri, sabse rangeen teri shaam
Tujh pe dil qurbaan ...

(Maa ka dil banke kabhi seene se lag jaata hai tuu
Aur kabhi nanhi si beti ban ke yaad aata hai tu)
Jitna yaad aata hai mujhko, utna tadpaata hai tu
Tujh pe dil qurbaan ...

(Chhod kar teri zameen ko door aa pahonche hain ham
Phir bhi hai ye hi tamanna tere zarro ki qasam)
Ham jaha paida huwe, us jagaah pe hi nikle dam
Tujh pe dil qurbaan ...


महेश चन्द्र गुप्त खलिश
८ सितम्बर २००६







४८६. दिल टूट गया, कैसे टूटा कुछ फ़र्क नहीं पड़ता इस से—RAMAS—ईकविता, ९ सितंबर २००८

दिल टूट गया, कैसे टूटा, कुछ फ़र्क नहीं पड़ता इससे
तुम चले गये न आने को अब सबब भला पूछें किससे

रुसवा तुमको कैसे कर दें, क्या बात हुई कैसे कह दें
इलज़ाम लगेगा हम पर ही हम दिल का हाल कहें जिससे

खुद आग लगायी है हमने, रोने से क्या हासिल होगा
समझाया सबने दूर रहो जल जाओगे इस आतिश से

अनजानी प्यार की राहें थीं हम कदम-कदम पर फ़िसल गये
तुमने जो हमको दिये सनम, थे चुम्बन भरे हुए विष से

नादाँ थे ख़लिश निकल बैठे हम यूँ ही प्यार के तूफ़ां में
दिल तो बुझ जाता है ग़म की इक हल्की-सी भी बारिश से.


महेश चन्द्र गुप्त खलिश
८ सितम्बर २००६










४८७. आज जाने क्या हुआ दिल को मेरे

आज जाने क्या हुआ दिल को मेरे
इस को है एह्सास कि तुम हो मेरे

प्यार दे दो मुझ को तुम बेइन्तहा
और सब कुछ दिल से भुला दो मेरे

तुम भी मेरे कातिलों में थे शुमार
बन रहे हो दोस्त इतने जो मेरे

घाव ये पल में हरे हो जाएंगे
इस तरह न दाग-ए- दिल खुरचो मेरे

वक्त-ए-रुखसत तो पकड़ लो हाथ को
दिल में आ जाये सुकूं कुछ तो मेरे

लो सम्हालो खलिश अपनी याद को
गज़ल-ओ-अशआर सब ले लो मेरे

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
८ सितम्बर २००६







४८८. याद में तेरी आंसू जो बहाये कागज़ पे वो गिरे तो शेर बन गये

याद में तेरी आंसू जो बहाये, कागज़ पे वो गिरे तो शेर बन गये
सूनी रातों में तुम तो न आये, तुम्हारे प्यार की वो टेर बन गये

तूने जो भी कहा वो न समझ सके न अपनी बात ही समझा पाये तुझे
तेरे इशारों का जो राज़ न जाना किस्मत का एक दिन वो फेर बन गये

चन्द लमहों का था साथ तुम्हारा ज़िन्दगी भर का हम समझ बैठे
लगा हमें जैसे दुनिया-ए- प्यार के बेताज बादशाह कुछ देर बन गये

जानते न थे गंवा के सब कुछ हम लौट आयेंगे यूं खाली हाथ ही
जीत कर तुम्हारा प्यार एक पल सोचा मोहब्बत के दिलेर बन गये

वफ़ाओं के बदले जफ़ा मिली खलिश प्यार की मन्ज़िल मिल के भी न मिली
असूलों की तरह जज़बात निभाए वही बरबादियों का ढेर बन गये.

तर्ज़—

लिखे जो खत तुझे वो तेरी याद में हज़ारों रंग के नज़ारे बन गये



Movie Name: Kanyadaan, 1968


Singer(s): Mohammad Rafi

Music Director(s): Shankar, Jaikisan

Lyricist(s): Neeraj


Likhe jo khat tujhe woh teri yaad mein hazaaron rang ke nazaare ban gaye
Sawera jab huwa to phool ban gaye jo raat aayi to sitaare ban gaye
Likhe jo khat tujhe…

Koyi naghma kahin gunja, kaha dil ne ke tu aayi
Kahin chatki kali koyi, main ye samjha tu sharmaayi
Koyi khushboo kahin bikhri, laga ye zulf laheraayi
Likhe jo khat tujhe

Fiza rangeen adaa rangeen, ye ithhlaana ye sharmaana
Ye angdaayi ye tanhaai, ye tarsa kar chale jaana
Bana de na kahin mujhko, jawaan jaadu ye diwaana
Likhe jo khat tujhe.

Jahaan tu hai waha main hun, mere dil ki tu dhadhkan hai
Musaafir main tu manzil hai, main pyaasa hun tu saawan hai
Meri duniya ye nazrein hain, meri jannat ye daaman hai
Likhe jo khat tujhe…


महेश चन्द्र गुप्त खलिश
८ सितम्बर २००६





४८९. मजाज़ के नगमे की और वॄद्धि

ऐ गम-ए-दिल क्या करूं ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूं

शहर की है रात मैं नौशाद-ओ-नाकारा फिरूं
जगमगाती जागती सड़कों पे आवारा फिरूं
गैर की बस्ती है कब तक दर-ब-दर मारा फिरूं
ऐ गम-ए-दिल क्या करूं ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूं

झिलमिलाते कुमकुमों की राह में जन्ज़ीर सी
रात के हाथों में दिन की मोहिनी तसवीर सी
मेरे सीने पर मगर जैसे कोई शमशीर सी
ऐ गम-ए-दिल क्या करूं ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूं

रात हंस हंस के ये कहती है कि मयखाने में
फिर किसी शहनाज़-ए-लाला-रोख के कहसाने में चल
ये नहीं मुमकिन तो फिर ऐ दोस्त वीराने में चल
ऐ गम-ए-दिल क्या करूं ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूं

एक महल की आड़ से निकला वो पीला माहताब
जैसे मुल्ला का अमामा जैसे बनिये की किताब
जैसे मुफ़लिस की जवानी जैसे बेवा का शबाब
ऐ गम-ए-दिल क्या करूं ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूं

ये रूपहली छांव ये आकाश पर तारों का जाल
जैसे सूफ़ी का तसव्वुर जैसे आशिक का खयाल
आह लेकिन कौन समझे कौन जाने जी का हाल
ऐ गम-ए-दिल क्या करूं ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूं

रास्ते में रूक के दम लूं ये मेरी आदत नहीं
लौट कर वापस चला जाऊं मेरी फ़ितरत नहीं
और कोई हमनवा मिल जाये ये किस्मत नहीं
ऐ गम-ए-दिल क्या करूं ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूं

०००००००००००००००००००००००००००
००००००००००००००००००००००००००

हर किसी को आज मेरे जीने पे एतराज है
मुखतलिफ़ दुनिया का मुझ से नुक्ता-ए-अन्दाज़ है
पंख जिस के कट गये मन मेरा वो परवाज़ है
ऐ गम-ए-दिल क्या करूं ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूं

प्यार की मेरे तुम्हारी आंख में कीमत नहीं
भूल जाऊं मैं तुम्हें इस दिल की ये सीरत नहीं
और पास आने की भी लगती कोई सूरत नहीं
ऐ गम-ए-दिल क्या करूं ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूं


दूर दुनिया से तेरी इक रोज़ चला जाऊंगा
और गुज़रे वक्त की मानिन्द नहीं आऊंगा
वक्त-ए-रूख्सत भीगी पलकों से तराना गाऊंगा
ऐ गम-ए-दिल क्या करूं ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूं

हर घड़ी दुनिया के सौ गम सह के भी मैं क्या करूं
चुप भी मैं कैसे रहूँ और कह के भी मैं क्या करूं
इक परेशानी में हूँ मैं अब करूं तो क्या करूं
ऐ गम-ए-दिल क्या करूं ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूं

मेरी वीरानी को कोई तो कभी रोशन करे
कोई तो हो जिस के बैठूं पास जब भी मन करे
जो मुझे बहलाये मेरे दर्द-ए-दिल को कम करे
ऐ गम-ए-दिल क्या करूं ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूं

आज मैं सड़कों पे फिरता कोई भी अपना नहीं
एक रोटी के सिवा मेरा कोई सपना नहीं
कौन सी है रात जब गम सहना तड़पना नहीं
ऐ गम-ए-दिल क्या करूं ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूं

पांव में ताकत नहीं दो गाम अब चल भी सकूं
हमसफ़र कोई मिले तो ज़िन्दगी मैं जी सकूं
देख कर पलकों को जिस की चाक दिल को सी सकूं
ऐ गम-ए-दिल क्या करूं ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूं

वक्त-ए-रूख्सत इत्तिला कर के न तुम को जाऊंगा
ज़िन्दगी के रास्तों में मैं कहीं खो जाऊंगा
अश्क चुक जायेंगे सूखे होंठ ही मर जाऊंगा
ऐ गम-ए-दिल क्या करूं ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूं

झेला दीवानापन मेरा ऐ दोस्त मेरे शुक्रिया
और न तकलीफ़ दूंगा मेरे हमदम शुक्रिया
तेरे दम पे जी लिया अब तक बहुत मैं शुक्रिया
ऐ गम-ए-दिल क्या करूं ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूं

आज मेरी इक झलक तरसे तुम्हारी आंख को
एक पत्ता आज भारी पड़ गया है शाख को
कौन भर पाएगा मेरे दिल के इस सूराख को
ऐ गम-ए-दिल क्या करूं ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूं









४९०. ऐ मेरी बरबाद मोहब्बत बता दे क्या करूं-- १० सितम्बर की कविता, ईके को ९-९-०६ को प्रेषित


हर घड़ी दुनिया के सौ गम सह के भी मैं क्या करूं
चुप भी मैं कैसे रहूँ और कह के भी मैं क्या करूं
गम भरी दुनिया में दो दिन रह के भी मैं क्या करूं
ऐ मेरी बरबाद मोहब्बत बता दे क्या करूं

दूर दुनिया से तेरी इक रोज़ चला जाऊंगा
दिल में तेरे नाम से रख के न गिला जाऊंगा
इल्तज़ा कर के सदा तेरा हो भला जाऊंगा
ऐ मेरी बरबाद मोहब्बत बता दे क्या करूं

आज मैं सड़कों पे फिरता कोई भी अपना नहीं
एक साथी के सिवा मेरा कोई सपना नहीं
कौन सी है रात जब गम सहना तड़पना नहीं
ऐ मेरी बरबाद मोहब्बत बता दे क्या करूं

आज मेरी इक झलक तरसे तुम्हारी आंख को
एक पत्ता आज भारी पड़ गया है शाख को
कौन भर पाएगा मेरे दिल के इस सूराख को
ऐ मेरी बरबाद मोहब्बत बता दे क्या करूं

हमसफ़र कोई नहीं संगी नहीं साथी नहीं
एक तनहा ज़िन्दगी है कोई मुलाकाती नहीं
आज कोई भी नज़र मुझ तक पहुंच पाती नहीं
ऐ मेरी बरबाद मोहब्बत बता दे क्या करूं

मेरी वीरानी को कोई तो कभी रोशन करे
कोई तो हो जिस के बैठूं पास जब भी मन करे
जो मुझे बहलाये मेरे दर्द-ए-दिल को कम करे
ऐ मेरी बरबाद मोहब्बत बता दे क्या करूं

प्यार की मेरे तुम्हारी आंख में कीमत नहीं
भूल जाऊं मैं तुम्हें इस दिल की ये सीरत नहीं
और पास आने की भी लगती कोई सूरत नहीं
ऐ मेरी बरबाद मोहब्बत बता दे क्या करूं

हर किसी को आज मेरे जीने पे एतराज है
मुखतलिफ़ दुनिया का मुझ से नुक्ता-ए-अन्दाज़ है
पंख जिस के कट गये मन मेरा वो परवाज़ है
ऐ मेरी बरबाद मोहब्बत बता दे क्या करूं

पांव में ताकत नहीं दो गाम अब चल भी सकूं
हमसफ़र कोई मिले तो ज़िन्दगी मैं जी सकूं
देख कर पलकों को जिस की चाक दिल को सी सकूं
ऐ मेरी बरबाद मोहब्बत बता दे क्या करूं

वक्त-ए-रूख्सत इत्तिला कर के न तुम को जाऊंगा
ज़िन्दगी के रास्तों में मैं कहीं खो जाऊंगा
अश्क चुक जायेंगे सूखे होंठ ही सो जाऊंगा
ऐ मेरी बरबाद मोहब्बत बता दे क्या करूं

झेला दीवानापन मेरा ऐ दोस्त मेरे शुक्रिया
गो कि मेरे साये रहे तुझ को घेरे शुक्रिया
हो चुके एह्सान मुझ पर बहुत तेरे शुक्रिया
ऐ मेरी बरबाद मोहब्बत बता दे क्या करूं.

मैं दिल-ए-बरबाद पर कैसे खुशी बरपा करूं
आलम-ए-तनहाई में ऐ दिल बता मैं क्या करूं
सर्द काली रात में परछाई से डरता फिरूं
ऐ मेरी बरबाद मोहब्बत बता दे क्या करूं.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
९ सितम्बर २००६






४९२. आखिरी जाना मुकाम बाकी है--१२ सितम्बर की गज़ल, ईके को ९-९-०६ को प्रेषित

आखिरी जाना मुकाम बाकी है
रुखसती करना सलाम बाकी है

यूं तो अपना दे चुके सब कुछ तुम्हें
कागज़ों पे करना नाम बाकी है

घाव तो तुम दे चुके छिड़को नमक
ये अभी मेरा ईनाम बाकी है

दाद महफ़िल ने कभी न दी मुझे
कर लो हूट ये भी काम बाकी है

हड्डियां तो गल गईं भीतर तलक
बाहरी लटका ये चाम बाकी है

ज़िन्दगी भर जाम नशीला पिया
पीना अब ज़हरीला जाम बाकी है

कीजिये टूटा हुआ ये दिल कबूल
आप की उल्फ़त का दाम बाकी है

दे गयी हिम्मत जवाब ऐसे पल
सिर्फ़ मन्ज़िल चार गाम बाकी है

जश्न-ए-बरबादी मनाएं हम खलिश
आखिरी जीवन की शाम बाकी है.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
९ सितम्बर २००६

०००००००००००००००

From: Praveen Parihar <p4parihar@yahoo.co.in>
Date: Sep 10, 2006 12:33 AM

शरद जी एंव खलिश जी,
बहुत अच्छा लिखा है। मैं भी कुछ इसी तर्ज़ पर कहना चाहुँगा।

००००००००

From: S.M.Chandawarkar <chandawarkar@vsnl.net>
Date: Sep 10, 2006 11:17 AM

शरद जी, डा. गुप्ता जी,
आप दोनों की गज़लें बहुत सुंदर हैं। दोनों को मैं ने अपने संग्रह में रखा है।

इसी रदीफ़ काफ़िये से मिलती जनाब हसन कमाल की एक सुंदर गज़ल आप की सेवा में प्रस्तुत कर रहा हूं।

यक़ीन टूट चुका है, गुमान बाक़ी है
हमारे सर पे अभी आसमान बाक़ी है

उन्हें ग़ुरूर कि फ़रियाद का चलन न रहा
हमें यक़ीन कि मुंह में ज़ुबान बाक़ी है

हर एक सम्त से पथराव है मगर अब तक
लहू लुहान परिंदे में जान बाक़ी है

मिला न जो हमें क़ातिल का आस्तीन 'हसन'
उसी लहू का ज़मीं पर निशान बाक़ी है

सस्नेह
सीताराम चंदावरकर

००००००००००००००००००००००००००००००

From: Bhawna Kunwar <bhawnak2002@yahoo.co.in>
Date: Sep 10, 2006 7:52 PM
खलिश जी
आपकी रचना बहुत ही सराहनीय एवम भावों से भरी है । आपको इस रचना पर बहुत बहुत बधाईयाँ आशा है भविष्य में भी माँ सरस्वती के आशीर्वाद से आपकी लेखनी ऐसी ही उच्च कोटि की रचनाओं पर चलती रहेगी और हम ई कविता के सदस्यों का भरपूर रसास्वादन करती रहेगी ।
डॉ० भावना कुँअर








४९३. ज़िन्दगी को ढूंढता मैं - कहां गया—RAS—ईकविता, १५ अक्तूबर २००८

ज़िन्दगी को ढूंढता मैं कहां- कहां गया
मौत का आलम मिला मैं जहां- जहां गया

मुस्कराहट में दबी- दबी सी एक आह थी
कांपते लबों में एक अनबुझी सी चाह थी
सांस- सांस में छिपी दर्द की कराह थी
खौफ़ से भरी डरी- डरी हर इक निगाह थी

ज़िन्दगी को ढूंढता मैं कहां- कहां गया
मौत का आलम मिला मैं जहां- जहां गया

जो बुलन्द दिल दिखे, उनमें खाइयां मिलीं
पाक हाज़ियों के घर भी सुराहियां मिलीं
डोलतीं हसीन रुख पे हवाइयां मिलीं
क्रीम पाउडर तले लाख झाइयां मिलीं

ज़िन्दगी को ढूंढता मैं कहां- कहां गया
मौत का आलम मिला मैं जहां- जहां गया

ज़िन्दगी का ये तमाम ताम- झाम झूठ है
इम्तिहान झूठ, रस्म-ए-इनाम झूठ है
पांच साल के लिये चुनावे-आम झूठ है
दावा कि हुकूमत-ए-अवाम है ये झूठ है

ज़िन्दगी को ढूंढता मैं कहां- कहां गया
मौत का आलम मिला मैं जहां- जहां गया

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
९ सितम्बर २००६







४९४. रोशनी के साये में कितना अन्धेरा पल रहा

रोशनी के साये में कितना अन्धेरा पल रहा
प्यार में कोई जफ़ा कर के वफ़ा को छ्ल रहा

ज़िन्दगी को याद करते है सभी ये भूल कर
मौत का सन्देश सांस सांस में है चल रहा

आज जो महफ़ूज़ सा है तख्त पे बैठा हुआ
कौन जाने देखने को आफ़ताब कल रहा

लमहा लमहा जा रहा है ज़िन्दगी कम हो रही
जिस्म का हिस्सा भी कोई धीरे धीरे गल रहा

मौत से आगाह दुनिया में नहीं कोई बशर
जैसे मन्द आग में परवाना कोई जल रहा

मून्द ले खतरे से कोई आंख शुतुरमुर्ग ज्यों
सोचता इन्सान है कि वक्त-ए-मौत टल रहा

याद तू परवरदिगार को ज़रा कर ले खलिश
वक्त लगातार तेरे जीने का है ढल रहा.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
९ सितम्बर २००६







४९५. आज लग रहा है मैंने ज़िन्दगी बेकार जी

आज लग रहा है मैंने ज़िन्दगी बेकार जी
लाइलाज़ मर्ज़ का रहते हुए बीमार जी

क्या किया हासिल मशक्कत कर के सारी उम्र भर
आधे पेट रह के मैंने ज़िन्दगी दुश्वार जी

कुछ कमाने के लिये मेहनत तो करते हैं सभी
मैंने अपनी ज़िन्दगी करते हुए बेगार जी

एक हसरत थी कि कोई अश्क मेरे पौंछता
ज़िन्दगी लुटा के गुल और सह के खार जी

बच रहे हैं ज़िन्दगी के चार दिन फ़कत खलिश
मौज़ मस्तियों को कर रहा है बार बार जी.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
९ सितम्बर २००६






४९६. आज क्यों आवाज़ उन को दे रहे हो बार बार

आज क्यों आवाज़ उन को दे रहे हो बार बार
वो न आएंगे पलट चाहे बुलाओ बार बार

प्यार दिया गैर को उन को फ़कत इंकार ही
अपने पहलू में बुलाते रह गये जो बार बार

बेकरार क्यों हो उन की बेरुखी से आज तुम
वो तुम्हारी बेरुखी को सह गये गो बार बार

जागते वो रह गये सोते रहे तुम बेखबर
लमहे ऐसी मुश्किलों के उन को न दो बार बार

तुम को उन से प्यार था या सिर्फ़ दिखावा खलिश
ऐसे सवालात में गुम हो गये वो बार बार.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
९ सितम्बर २००६







४९७. वो थे पत्थर दिल मगर वो आज पिघले तो सही

वो थे पत्थर दिल मगर, वो आज पिघले तो सही
इश्क के उन के ज़हन में आये मसले तो सही

छोड़ कर दुनिया दिमागी, शुक्रिया सरकार का
दिल की दुनिया में कदम हैं आज निकले तो सही

ज़िन्दगी की चाल अपने बस में वो समझा किये
राह-ए-उल्फ़त में भला वो आज फ़िसले तो सही

संग चलने में हमारे शर्म आती है उन्हें
प्यार की राहों में निकले आज इकले तो सही

है सनम भोला खलिश कुर्बान उस पे जान है
रात की रंगीनियों का आज रस ले तो सही.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
९ सितम्बर २००६







४९८. बैठ कल्पना के पंखों पर बहुत लिख चुके कवि तुम अब तक-- १३ सितम्बर की गज़ल, ईके को ९-९-०६ को प्रेषित

बैठ कल्पना के पंखों पर बहुत लिख चुके कवि तुम अब तक
उगते सूरज की किरणों से इठलाती मदमाती शब तक

बहुत लिखा मदिरा पर तुम ने मधुशाला को अमर कर दिया
होठों के प्यालों की उपमा से मयमय कर डाले लब तक

बहुत हुआ धरती पर आओ पीड़ा को समझो जन जन की
ख्यालों की दुनिया में खुद को कवि तुम ढालोगे किस ढब तक

बदलो दिशा लेखनी की तुम मत सपनों का जाल बुनो अब
करो बखान भूख का कविवर नख शिख गान करोगे कब तक

तुम समाज के कर्णधार हो तुम हो संस्कॄति के संबल
देश काल की रक्षा हेतु शंखनाद पहुंचाओ सब तक

कट्टरपंथी उग्रवादियों ने आतंक बहुत फ़ैलाया
फ़ौलादी लेखनी बना कर लड़ो विजय न पाओ जब तक

आओ कवि रण प्रांगण में तुम दो अपनी कविता का नारा
प्रेम शान्ति को लाना होगा खलिश लेखनी रूके न तब तक.

प्रेरणा-स्रोत:

गीतकार जी की रचना—
लिखे गीत

लिखे गीत संध्या वंदन के
कल्पवॄक्ष, कानन नन्दन के
चित्रकूट के घाट घिसा जो
तुलसी बाबा ने चन्दन के

………………………..
………………………..
………………………..
……………………….

तुलसी के चौरे पर लिख कर
लिखा एक बूढ़े बरगद पर
वेदमंत्र ध्वनियों से गुंजित
लिखा सजी पूजा थाली पर

लेकिन फिर भी लगता मुझको
जैसे कुछ भी लिखा न मैने
लिखा न उन पर क्योंकर पूछें
सूनी आँखों के कुछ सपने

लिखा नहीं घुटती सांसों पर
अंतर में चुभती फ़ाँसों पर
चाँदी के वर्कों में लिपटे
हर इक बार मिले झाँसों पर

इसीलिये मैं बोझ कर्ज़ का लेकार काँधों पर फिरता हूँ
प्रश्न बना कर आज स्वयं को ,अपनी आँखों में तिरता हूँ.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
९ सितम्बर २००६

००००००००००००००००००००००

From: Bhawna Kunwar <bhawnak2002@yahoo.co.in>
Date: Sep 10, 2006 7:57 PM
खलिश जी
आपकी रचना बहुत ही सराहनीय एवम भावों से भरी है । आपको इस रचना पर बहुत बहुत बधाईयाँ आशा है भविष्य में भी माँ सरस्वती के आशीर्वाद से आपकी लेखनी ऐसी ही उच्च कोटि की रचनाओं पर चलती रहेगी और हम ई कविता के सदस्यों का भरपूर रसास्वादन करती रहेगी ।
डॉ० भावना कुँअर










४९९. आलम-ए-तन्हाई है आज दिल अकेला है

आलम-ए-तन्हाई है, आज दिल अकेला है
लग रहा सूना सा, ज़िन्दगी का मेला है

भूख सहने की अदा, ग़रीबी सिखाती है
पेट में दाना नहीं, जेब में न धेला है

पैदा सड़कों पे हुए, बाप का नाम नहीं
खेल किस्मत ने अजब, किस तरह खेला है

ग़म को सहने की भला, क्यूं न हद हो जाये
दर्द ज़िंदगी में बहुत, आज तक झेला है.

अलविदा आज तुम्हें, दोस्तो करता हूं
चुक रही आज ख़लिश, ज़िंदगी की बेला है.


तर्ज़—

पर्बतों के पेड़ों पर शाम का बसेरा है
--शगुन, १९६४, साहिर, रफ़ी/सुमन कल्याणपुर


पर्बतों के पेड़ों पर शाम का बसेरा है
सुरमई उजाला है, चम्पई अंधेरा है

दोनों वक़्त मिलते हैं दो दिलों की सूरत से
आसमां ने खुश होके रँग सा बिखेरा है

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
९ सितम्बर २००६





५००. तेरी दुनिया से बहुत दूर चला जाऊंगा

तेरी दुनिया से बहुत, दूर मैं जाऊंगा
लौट कर मैं वापस, फिर नहीं आऊंगा

आज जो तुम मुझ से, अंखियां चुराते हो
दूर इन आंखों से, डेरा लगाऊंगा

चाह कर के भी मुझे, ढूंढ नहीं पाओगे
आसमां से तक के, मन्द मुसकाऊंगा

छीन कर चैन मेरा, नींद नहीं आयेगी
आ के सपनों में तुम्हें, रोज़ भरमाऊंगा

लाख कर लेना जतन, नहीं भूलोगे मुझे
आऊंगा याद सनम, बड़ा तड़पाऊंगा

गीत मिलने का खलिश, गाओगे तुम जब भी
नगमा विरह का मैं, तुम को सुनाऊंगा.


तर्ज़—

पर्बतों के पेड़ों पर शाम का बसेरा है
--शगुन, १९६४, साहिर, रफ़ी/सुमन कल्याणपुर


पर्बतों के पेड़ों पर शाम का बसेरा है
सुरमई उजाला है, चम्पई अंधेरा है

दोनों वक़्त मिलते हैं दो दिलों की सूरत से
आसमां ने खुश होके रँग सा बिखेरा है

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
९ सितम्बर २००६


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