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Rated: E · Book · Cultural · #1510158
Hindi poems in Hindi script, mainly ghazals, Serial no. 1-700
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#626923 added December 31, 2008 at 1:00am
Restrictions: None
Poems / ghazals , no. 676- 700 in Hindi script


६७६. यादों ने तेरी दिल को फिर आज पुकारा है—२९ जनवरी की गज़ल, ईके को २९-१-०७ को प्रेषित --RAMAS


यादों ने तेरी दिल को फिर आज पुकारा है
ग़म ही तो मेरे जीने का एक सहारा है

वो तो न मिले लेकिन जो दर्द मिला उनका
उस दर्द के ही दम पर ये वक्त गुज़ारा है

अरसा बीता फिर भी बस रहा तसव्वुर में
पुरफ़िज़ां वही रंगीं नदिया का किनारा है

दिल के बदले हमने पाये हैं दो आंसू
देखें वो कभी आके क्या हाल हमारा है.

जब उनकी निगाहों को बेचैन हुई आंखें
यादों ने ख़लिश आकर पलकों को संवारा है.


महेश चन्द्र गुप्त खलिश
२८ जनवरी २००७








६७७. जब तुम न हुए मेरे दुनिया भी मिली तो क्या

जब तुम न हुए मेरे, दुनिया भी मिली तो क्या
काटों की बहार आई, बगिया भी खिली तो क्या

रोशनी न हो पाई गम के अंधियारे में
दिल ही दिल में मेरे जो आग जली तो क्या

तकरार-ओ-रंजिश में हम जिया किये दोनों
इक उम्र बिता मन की जो गांठ खुली तो क्या

क्या सर्द हवाएं थीं, जम गया जोश सारा
अब शाम है जीवन की ये बर्फ़ गली तो क्या

ता-उम्र तो ठुकराया, पर वक्त-ए- वसीयत पर
अब उन की बातों में मिसरी जो घुली तो क्या

हम भूल गये उस को गफ़लत में जवानी की
याद हम को खुदा आया जब उम्र ढली तो क्या

कोई ऐब खलिश बाकी जीवन में नहीं छोड़ा
रूहानी जज़्बे की अब शम्म जली तो क्या.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
२९ जनवरी २००७






६७८. अपने न हुए अपने गैरों का भरोसा क्या

अपने न हुए अपने, गैरों का भरोसा क्या
औलाद जो खून पिये, पाला और पोसा क्या

हाथों को हिलाये बिन, हासिल न हुआ कुछ तो
हाथों की लकीरों को बेकार में कोसा क्या

बारात चली सज के और वक्त-ए-निकाह आया
हामी न भरी दुलहन ने तो हाल-ए-नौशा क्या

हरकत तो हुई लब की सीने में बर्ख नहीं
धड़कन न बढ़ी दिल की एहसास-ए-बोसा क्या

दम प्यास से निकले है सहरा में खलिश मेरा
साया मंडराता है गिद्धों के गिरोह सा क्या.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
२९ जनवरी २००७





६७९. दिल तोड़ हमें गम की दौलत जो अता की है

दिल तोड़ हमें गम की दौलत जो अता की है
इतना तो बता देते कि कौन खता की है

वो तो न कहेंगे दिल मालूम तुझे होगा
गुस्ताख अदा उन के संग कौन बता की है

थी मेरी मोहब्बत ही जीने की वज़ह मेरी
ठुकरा के वफ़ा मेरी हस्ती को धता की है

पूछे तो कभी जा कर कोई हुस्न की मलका से
खुशियों की जमा पूंजी किस किस को सता की है

सूरत से खलिश लगते ज्यादा ही खफ़ा हैं वो
माज़ी की मेरे शायद कुछ बात पता की है.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
२९ जनवरी २००७







६८०. एक बार कभी मेरे वो सामने आ जायें

एक बार कभी मेरे वो सामने आ जायें
दिल की इस धड़कन को कुछ थामने आ जायें

मेहमान है कुछ दिन का कोई उन को खबर दे दे
क्या हाल है आशिक का ये जानने आ जायें

रो देंगे कसम से जब देखेंगे मेरी सूरत
है प्यार हमें उन से ये मानने आ जायें

जाते हैं सभी यूं तो वादी-ओ-गुलशन में
खेमा-ए-वफ़ा सहरा में तानने आ जायें

बेरंग बहुत दुनिया लगती है खलिश अब तो
लमहात को उल्फ़त से वो सानने आ जायें.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
२९ जनवरी २००७







६८१. मेरे जीवन मैं भी है नवजीवन का उल्लास

मेरे जीवन मैं भी है नवजीवन का उल्लास
मेरे मन के उपवन में भी छाया है मधुमास

मेरा भी यौवन इठलाता मदमाती है चाल
मैं भी न्यौछावर हो सकता हूं कर उन्नत भाल

मेरे भी मन में उठती है रात दिवस ज्वाला
मेरे भी स्वप्नों में नर्तन करती हैं बाला

मेरे वक्षस्थल में भी धड़कन करती है नृत्य
मेरा मन भी बन बैठा है कामदेव का भृत्य

उपालम्भ ऐसे में सहसा उठता है मन में
क्या पशु-सम क्रीड़ा करने ही पाया था तन मैं

क्या अपनी ही स्वार्थ-सिद्धि को जीऊं मैं जग में
क्या अपने ही सुख दुख को रखूं केवल दृग में

नहीं मुझे इस धारा से हट कर चलना होगा
मेरे हाथों मेरे अंतर से छ्ल ना होगा.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
२९ जनवरी २००७








६८२. बचपन की मुलाकातें इस दिल में समायी हैं—३० जनवरी की गज़ल, ईके को ३०-१-०७ को प्रेषित

Note—Old timers, for better and fuller appreciation and enjoyment of this ghazal, before reading further, please hum the following immortal tune / number—
बचपन की मोहब्बत को दिल से न ज़ुदा करना

****

बचपन की मुलाकातें इस दिल में समायी हैं
तुम आये तसव्वुर में आंखें भर आयी हैं

मैं कैसे भुला दूं जो दिल में है बसी सूरत
उल्फ़त की सनम तुम ने ही रीत सिखायी हैं

है गूंज रही अब तक गम के मारे दिल में
नग़मा-ए-मोहब्बत की जो तान सुनायी हैं

जंज़ीर बनीं थीं जो ज़ुल्फ़ें थीं नागिन सी
उन कैदों से ज्यादा मज़बूर रिहाईं हैं

हम से न मिलोगे अब तुम को भी पता है ये
क्यों झूठ खलिश हम को उम्मीद बन्धायीं हैं.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
३० जनवरी २००७

तर्ज़:
ओ जी ओ…….

बचपन की मोहब्बत को दिल से न जुदा करना
जब याद मेरी आये, मिलने की दुआ करना

घर मेरी उम्मीदों का सूना किये जाते हो
दुनिया ही मोहब्बत की लूटे लिये जाते हो
जो गम दिये जाते हो उस गम की दवा करना
जब याद मेरी आये, मिलने की दुआ करना

सावन में पपीहे का संगीत सुनाऊंगी
फ़रियाद तुम्हें अपनी गा गा के सुनाऊंगी
आवाज़ मेरी सुन के दिल थाम लिया करना
जब याद मेरी आये, मिलने की दुआ करना

--बैजू बावरा, लता, नौशाद, शकील बदायूनी







६८३. मन्ज़िल का निशां मालूम नहीं

मन्ज़िल का निशां मालूम नहीं
क्या दिल में निहां मालूम नहीं

कुछ तुम ने कहा कुछ मैंने सुना
क्यों रुका समां मालूम नहीं

खो गये तुम भी खो गये हम भी
था कौन कहां मालूम नहीं

न आग हुई न चिनगारी
क्यों उठा धुआं मालूम नहीं

वो कब अनजाने से दिल के
बन गये मेहमां मालूम नहीं

एक हलकी सी ज़ुम्बिश कैसे
बन गयी तूफ़ां मालूम नहीं

कब खलिश मोहब्बत में उन की
निकलेगी जां मालूम नहीं.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
३० जनवरी २००७







६८४. चेहरे पे हंसी, न मन में खुशी, दिल में आहें, गीली आंखें –ईकविता, ७ मई २००७

चेहरे पे हंसी, न मन में खुशी, दिल में आहें, गीली आंखें
पुर-अश्क बनी हैं क्यों जो थीं पुर-नूर कभी नीली आंखें

पहलू में हमारे मिलते थे दुनिया के जिन को लाख सुकूं
नाराज़ हैं कुछ दिखलाते हैं अब लाल कभी पीली आंखें

अन्दाज़-ए-अदा कैसे कहिये, इन में हैं सौ सौ रंग भरे
पूरी कातिल, अधखुली मगर हैं नीन्द से ये ढीली आंखें

रुखसार जो उन का देख लिया अब और बचा क्या जो देखें
एक लमहा उन की झलक मिली, इक उम्र तलक जी लीं आंखें

जिस पल बेपरदा हुये उसी पल आंखें चार हुयीं यकदम
कर ली है सूरत कैद ख़लिश, लो हम ने अब सी लीं आंखें.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
३० जनवरी २००७

०००००००००००००००००

Wednesday, 7 May, 2008 11:04 AM
From: "Prem Sahajwala" pc_sahajwala2005@yahoo.com

महेश भाई,
इस तड़कती भड़कती ग़ज़ल में ये शेर सब से ज़्यादा तड़कता भड़कता है

रुखसार जो उन का देख लिया क्या बचा देखने को बाकी
एक लमहा उन की झलक मिली, इक उम्र तलक जी ली

वैसे मैं आप की ग़ज़लों का प्रशंसक बन गया हूँ. जैसा मैंने पहले सुझाव दिया था, शीघ्र ही कोई संग्रह छपवायें. मैं उस की सब से पहली प्रति खरीदूंगा.
प्रेम सहजवाला
०००००००००००००००
Wednesday, 7 May, 2008 11:28 AM
From: "Om Prakash Tiwari" omtiwari24@gmail.com
इस ग़ज़ल की तो हर पंक्ति जानदार है सरकार । बधाई ।
- ओमप्रकाश तिवारी

०००००००००००००००









६८५. वो वादा कर के भूल गये मैं प्रीत निभा कर हार गया—RAMAS, ईकविता, ११ सितंबर २००८


वो वादा करके भूल गये मैं प्रीत निभाकर हार गया
वो आ न सके मेरे दर पे मैं उनके दर सौ बार गया

क्या कहिये उनसे मिलने की कुछ ऐसी अजब कहानी है
एक चितवन ने मारा उनकी, खाली मेरा हर वार गया

आये तो थे वो मिलने को पर मिलने के पल यूं बीते
वो ज़ुल्फ़ झटक के अलग हुये, रोना मेरा बेकार गया

ये इश्क बला है बहुत अजब, मत इस के चक्कर में पड़ना
दर-दर की ठोकर खाते हैं, सब साख गयी, व्यापार गया

न सनम मिला न सरमाया, ये जीना भी कुछ जीना है
यूं जीवन ख़लिश कटा मेरा, इक-इक लमहा दुश्वार गया.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
३० जनवरी २००७







६८६. लोग डरते हैं जिन की अज़मत से—३१ जनवरी की गज़ल, ईके को ३१-१-०७ को प्रेषित



लोग डरते हैं जिन की अज़मत से
हम भी वाकिफ़ हैं उन की फ़ितरत से

झाड़ से कुरसियों पे आ बैठे
आज उल्लू खुदा की कुदरत से

भैंस जो कल तलक चराते थे
बन गये हैं वज़ीर किस्मत से

कब्र में जिन के पांव लटके हैं
खेलते हैं वो हुस्न-ओ-इस्मत से

वे हैं कुछ शौकिया खलिश ऐसे
दूर ही रहना उन की सोहबत से.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
३० जनवरी २००७

[अज़मत—बड़प्पन, प्रसिद्धि]





६८७. क्यों ऐसी बरसात न होती— बिना तिथि की गज़ल, ईके को ३०-१-०७ प्रेषित


क्यों ऐसी बरसात न होती

जब प्रीतम आयें तो बरसे छ्म छ्म सारी रात
शीत पवन सिहरन उपजाये होवें कम्पित गात
काले अंधियारे को तड़िता फिर फिर देवे मात
मन के भीतर घर के बाहर होवे झंझावात

जो स्वप्नों की माल पिरोती
क्यों ऐसी बरसात न होती

आये वो बरसात युगों तक जो फिर रुक न पाये
टूटें सभी बान्ध और पहरे लाज खड़ी मुस्काए
अन्तर्मन तक गहिन पिपासा एक बार बुझ जाये
बुझ बुझ जाये तो भी वह मादकता को अधिकाये.

नये बीज जीवन में बोती
क्यों ऐसी बरसात न होती.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
३० जनवरी २००७

०००००००००००००

from Sandhya Bhagat <sandhya.kakhaga@gmail.com>
date Jan 31, 2007 6:29 AM

धन्यवाद गुप्ता जी,
ऐसे खूबसूरत स्वागत के लिए।

लगता है मीठी फुहारों की बरसात सी होती।
काश कि अनूप जी की छतरी पास में होती

आपकी रचना कैसी है अब शब्दों में क्या लिखना

०००००००००००







६८८. हूं कौन, कहां से आया था: गैर-मुरद्दफ़ गज़ल--१ फ़रवरी की गज़ल, ईके को १-२-०७ को प्रेषित


हूं कौन, कहां से आया था, इक रोज़ कहां पर जाऊंगा
है किसे खबर मैं धरती पर कितने दिन और बिताऊंगा

मेरा वज़ूद मिट जायेगा मत मुझे ढूंढना फिर कोई
होगा बाकी बस यही निशां कि मैं ख्वाबों में आऊंगा.

मैं आज यहां दम भरता हूं कल बन जाऊंगा एक स्वप्न
मेरी न कोई सीमा होगी मैं पूर्ण मुक्त हो पाऊंगा

यह दुनिया भी क्या दुनिया है बस इक कांटों की बस्ती है
विचरण करता उन्मुक्त गगन, मैं तारों के संग गाऊंगा

गर याद मेरी आ जाये तो अपना दिल हल्का मत करना
जो तुम्हें खलिश रोते देखा तो मैं भी अश्क बहाऊंगा.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
३१ जनवरी २००७





६८९. क्यों मैं नाहक स्वप्न संजोऊं—-६-३-०७ की कविता, ई-कविता को ६-३-०७ को प्रेषित


क्यों मैं नाहक स्वप्न संजोऊं

कभी नहीं पाया जो चाहा
ठगता मुझ को रहा दोराहा
होंठ हंसे पर हृदय कराहा
क्यों मैं पुष्प सेज पर सोऊं

क्यों मैं नाहक स्वप्न संजोऊं

सारे मेरे मिटे ठिकाने
मित्र हो गये सभी अजाने
जीवन लगता है बेमाने
क्यों फूलों के हार पिरोऊं

क्यों मैं नाहक स्वप्न संजोऊं

जीवन नहीं बचा अब बाकी
जीना मुझ को है एकाकी
कौन सुने जो कथा व्यथा की
क्यों करतल-रेखा को रोऊं

क्यों मैं नाहक स्वप्न संजोऊं.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
१ फ़रवरी २००७

०००००००००००

from "Rajbhasha,Patna" <rajbhashapatna@rbi.org.in> to mcgupta44@gmail.com
date Mar 6, 2007 10:21 AM
subject umda geet ke liye badhai

Doctor sahib

Namaskaar



`Kyon nahak main swapna sajaun' ek khoobsoorat geet hai jo dil ko chhoota aur sahlata hai.Aapko iske liye badhai.

Ek ghazal aapki khidmat men bhej raha hun.Sweekaar Karen.

Aapka

R.P.`Ghayal'

Manager

Rajbhash Cell.

Reserve bank of India,Patna

Mobile no:9835031523
[Talked to him. He publishes on anubhooti-hindi.com.org]
००००००००००००००००००





६९०. ये उम्र गुज़र ही जायेगी मर मर के भी हम जी लेंगे--३ फ़रवरी की गज़ल, ईके को ३-२-०७ को प्रेषित



ये उम्र गुज़र ही जायेगी मर मर के भी हम जी लेंगे
हंस हंसके तुम्हारे हाथों से ये जाम ज़हर का पी लेंगे

जब से हैं आंखें चार हुयीं इस दिल पे कहर सा टूटा है
सोचा था हुस्न के पहलू में जीने का मज़ा हम भी लेंगे

तुम सब के दिल में छायी हो सब ही तो तुम्हारे आशिक हैं
मिल जाये तुम्हारा हाथ हमें दिल से ये दुआ किस की लेंगे

किस को हमदम चुनना चाहोगे और जनम ग़र दूं तुम को
जब खुदा ये हम से पूछेगा तो नाम तुम्हारा ही लेंगे

कोई पूछेगा किस ने हम को अपने से किया है बेगाना
हम नाम तुम्हारा न लेंगे होठों को खलिश हम सी लेंगे.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
१ फ़रवरी २००७

००००००००००००

from kusum sinha <kusumsinha2000@yahoo.com>
date Feb 3, 2007 8:52 PM

aderniy Guptaji
namaskar bahut hi sundar gazal hai bahut hi
sundar aap likhte hain
badhai
kusum
०००००००००००००००००००००००

from Devi Nangrani <devi1941@yahoo.com
date Feb 6, 2007 3:00 AM

Maheshji
ati sunder Matle se aagaz kiya hai gazal ka
ये उम्र गुज़र ही जायेगी मर मर के भी हम जी लेंगे
हंस हंसके तुम्हारे हाथों से प्याला ये ज़हर का पी लेंगे

Kaise kahte kisko kahte, goonge bahron ki nagri hai
Jo jaam milega hathoN mein, chup chap usi ko pi lenge.
meri gazal pasand karne ke liye abhari.
wishes
devi

==========================









६९१. दो गाम चले और छोड़ गये इस साथ को उन के क्या कहिये: गैर-मुरद्दफ़ गज़ल--२ फ़रवरी की गज़ल, ईके को २-२-०७ को प्रेषित


दो गाम चले और छोड़ गये इस साथ को उन के क्या कहिये
लाज़िम है यही उन के गम को उन की यादों के संग सहिये

देखे हैं बहुत गुब्बारे जो इतना फूले कि पस्त हुए
बेहतर है यही कि दुनिया में अपनी हद के अन्दर रहिये

नई रीत चलाने से अकसर दुनिया दुश्मन हो जाती है
महफ़ूज़ रहेंगे आप अगर दरया में सब के संग बहिये

मंशा ही नहीं माद्दे की भी दरकार है मन्ज़िल की खातिर
गाड़ी क्या खाक चलेगी वो हों जंग लगे जिस के पहिये

इकरार हुआ हामी भी भरी काज़ी ने निकाह भी कर डाला
किस्मत से खलिश लड़ना कैसा मन ही मन में अब क्यों दहिये.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
२ फ़रवरी २००७






६९२. सब अन्धेरे रात के छंट जायेंगे

सब अन्धेरे रात के छंट जायेंगे
एक दिन ये गम सभी कट जायेंगे

देख कर सच्चाई को झूठे निशां
रास्ते से खुद-ब-खुद हट जायेंगे

जान ले दुश्मन ये मुल्क-ए-हिन्द का
जान ले मैदान में डट जायेंगे

कुछ असर ऐसा करेगी इक निगाह
जो सगे हैं उन के दिल फट जायेंगे

गांठ में पैसा घटेगा जब खलिश
दोस्त भी ये देखना घट जायेंगे.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
३ फ़रवरी २००७








६९३. मैं अधूरी ज़िन्दगी जीता रहा हूं— बिना तिथि की गज़ल, ईके को ३-२-०७ प्रेषित

मैं अधूरी ज़िन्दगी जीता रहा हूं
बिन नशे का जाम मैं पीता रहा हूं

हमसफ़र कोई नहीं अब तक मिला
प्यार के एहसास से रीता रहा हूं

मेरे कहने का न होगा एतबार
सोच कर ये होंठ मैं सीता रहा हूं

जी रहा हूं ज़िन्दगी इक बे-वज़ूद
एक लमहा बस गया- बीता रहा हूं

चाह कर भी मैं अमल न कर सका
मैं खलिश पढ़ता सदा गीता रहा हूं.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
३ फ़रवरी २००७







६९४. तीरगी ऐसी नज़र में छा गयी--४ फ़रवरी की गज़ल, ईके को ४-२-०७ को प्रेषित


तीरगी ऐसी नज़र में छा गयी
रात जिस को देख कर शर्मा गयी

जो अन्धेरा दिल में था बरपा मेरे
कुछ झलक उस की नज़र में आ गयी

बस गयीं तारीकियां दिल में मेरे
दिल की तनहाई उन्हें यूं भा गयी

शुक्रिया क्यों न करूं तनहाई का
जो अदा-ए-शायरी सिखला गयी

दाद मिल जाये सुखनबर की, लगे
रौशनी बुझती सी शम्म पा गयी

न खलिश घर के रहे न घाट के
जब तबीयत शायरी पे आ गयी.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
३ फ़रवरी २००७

०००००००००

from Rakesh Khandelwal <rakesh518@yahoo.com>
date Feb 5, 2007 12:00 AM

शुक्रिया क्यों न करूं तनहाई का
जो अदा-ए-शायरी सिखला गयी

महेशजी
अच्छा लगा आपका यह शेर.
सादर

राकेश

००००००००००००००००








६९५. मैं दूर हुआ क्योंकर उनसे अब इतनी दूर चला आया--५ फ़रवरी की [गैरमुरद्दफ़] गज़ल, ईके को ५-२-०७ को प्रेषित --RAMAS



मैं दूर हुआ क्योंकर उनसे अब इतनी दूर चला आया
न सूरत उनकी दिखती है न दिखता है उनका साया

यूं तो वे मेरे अपने हैं, रहते हैं सदा ख़यालों में
ख्वाबों में उनको देखा तो दिल हलके से है शरमाया

न अब वो मेरे पास रहे न कोई निशानी छोड़ गये
कुछ यादें हैं जो रखीं हैं वो ही हैं मेरा सरमाया

कुछ लमहे तल्ख़ बिताये थे पर दोष किसी को क्या दीजे
नादान बहुत थे हम दोनों बस इक दूजे को तरसाया

हमसफ़र बने पर उल्फ़त की राहों में कुछ उलझन भी थी
तब अकसर सोचा किये यही किसने किसका दिल तड़पाया

वो आज नहीं हैं तो लगता है ग़म कितने प्यारे थे उनके
पर ख़लिश करें क्या, होनी ने हर इंसां को है भरमाया.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
५ फ़रवरी २००७








६९६. काज़ी के पास ले के वो फ़रियाद आये हैं--६ फ़रवरी की गज़ल, ईके को ६-२-०७ को प्रेषित


काज़ी के पास ले के वो फ़रियाद आये हैं
इलज़ाम, दिल चोरी किया, हम पर लगाये हैं

क्या कत्ल के खिलाफ़ वो देंगे गवाहियां
कातिल के हाथ में वो ही खन्जर थमाये हैं

क्यों हम करें गिला कि वो पहचानते नहीं
महफ़िल में आये हैं मगर हम बिन बुलाये हैं

कल तक लुटा रहे थे वो हम पे हज़ार जान
कुछ बात कि आज वो दिखते पराये हैं

पहले दिखा के हम को हसीं जन्नतों के ख्वाब
अन्दाज़ दोज़ख के हमें उन ने दिखाये हैं

झूठी सजावटों से नहीं आयेगी बहार
क्यों फूल सहरा में खलिश नाहक सजाये हैं.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
५ फ़रवरी २००७




६९७. हृदय मिलाया

हृदय मिलाया
कोरी माया

एक अनजाना
द्वारे आया

मिला प्रेम से
गले लगाया

स्वप्न सजाया
टूटा पाया

सब से अपना
घाव छिपाया

नहीं किसी को
दर्द सुनाया

केवल आंखों
से छलकाया.

गम ने कैसा
खलिश सताया

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
५ फ़रवरी २००७








६९८. तनहाई में ही सिर्फ़ तेरा नाम लेता हूं

तनहाई में ही सिर्फ़ तेरा नाम लेता हूं
न सुन पाये कोई ये सोच कर दिल थाम लेता हूं

मुझ को वफ़ा या इश्क में चाहे ज़फ़ा मिले
दिल में समझ के हुस्न का ईनाम लेता हूं

बर्दाश्त रुसवाई तेरी मैं कर नहीं सकता
हूं पाक-दिल खुद पे मगर इल्ज़ाम लेता हूं

यूं तो नहीं है शौक मुझ को मय-ओ-मीना का
गम गल्त करने के लिये हर शाम लेता हूं

ज़ाहिर खलिश हो जाये न ये राज़ेमोहब्बत
आंखों ही आंखों में तेरा पैगाम लेता हूं.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
६ फ़रवरी २००७







६९९. रस्म वफ़ा की पुरानी हो गयी

रस्म वफ़ा की पुरानी हो गयी
बे-असर अब ये कहानी हो गयी

ज़ुर्म के चेहरे पे तो थीं झुर्रिय्यां
मुफ़्त में रुसवा जवानी हो गयी

दिल-ए-आशिक तोड़ने का शुक्रिया
दिल-ए-शायर में रवानी हो गयी

हमसफ़र बन के चले थे जो कभी
दोस्ती उन की अजानी हो गयी

दास्तान-ए-इश्क है इतनी खलिश
बेवज़ह ही खींचतानी हो गयी.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
६ फ़रवरी २००७



६९९ अ. एक कतअ

तिशनगी ऐसी कि किसी मय से न बुझे
आग इक ऐसी कि समन्दर से न बुझे
चोट-ए-दिल ऐसी किसी कुर्बत से न बुझे
गम-ए-तनहाई लगा तू ही गले तुझे.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
६ फ़रवरी २००७

००००००००००००००००००००

from roop hans <roophanshabeeb@yahoo.com
date Feb 6, 2007 8:00 PM

Khalish ji,
Bahut khoob aur sahi hai aapka kat'a/
maine jo likha hai kayee baar mout se bahir nikal kar yeh sheyer diya hai zamane ko. Bahut kuchh kah nahin sakta , e kavita men . bus itna hi kahoonga
"NOTHING IS IMMPOSSIBLE TO GOD"/'Habeeb'

०००००००००००००
























P७००. प्यार तुझ से है मुझे इतना वतन—बिना तिथि की गज़ल, ई-कविता को ६-२-०७ को प्रेषित


प्यार तुझ से है मुझे इतना वतन
है बुलन्द परचम तेरा जितना वतन

रात की तनहाई में परदेस में
याद आता है मुझे कितना वतन

लौटना मुमकिन नहीं लगता है अब
बन के खाली रह गया सपना वतन

सोचता हूं क्या ज़रूरत थी मुझे
छोड़ कर जो आ गया अपना वतन

जीना लिखा था खलिश परदेस में
मौत को मिल जाय बस अपना वतन.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
६ फ़रवरी २००७

००००००००००

from Devi Nangrani <devi1941@yahoo.com
date Feb 6, 2007 7:31 PM

Mahesh ji

सोचता हूं क्या ज़रूरत थी मुझे
छोड़ कर जो आ गया अपना वतन.

aap to delhi mein rahte hain na. Mera aana hua tha do din par mil na
payi. Bus Bhopal ka trip acha raha.
aap ki koi gazal ki kitaab ho to mujhe post kariye

Bahut khoob likha hai. kya ise main Tohfa samajh kar apne paas
rakhOOn? ya copy right aapka hai???mazaak kar rahi hoon

Add: 9-D Corner View Society
15/33 Road, Bandra
Mumbai 400040

ph: 9867855751

saadar
Devi

aapki gazals ka aakash bahut vistrat hai.

००००००००००००००००००

from roop hans <roophanshabeeb@yahoo.com
date Feb 6, 2007 8:16 PM
Khalish Sahib , aakhri lines ke liye meri daad liziye./Jio/'Habeeb'

०००००००००००००००००

from Devi Nangrani <devi1941@yahoo.com>

date Feb 18, 2007 11:53 PM

Maheshji, aapka kaht vatan ke naam ek yadgaar geet hai, ati sunder
bhav aur bhasha, mubarak ho,
devi

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