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Rated: E · Poetry · Emotional · #1576729
Ghazals 1-60 (Part one of my book, due 10 September 2009.
I am glad to announce the publication of my first poetry book, a collection of Hindi ghazals. I intended to include 120 ghazals in it, but 6 were left out due to space constraints. All 120 are given here in 2 parts of 60 each. The details are as follows:

Title-- MAAZEE KI PARTON SE [From the layers of the past], in Hindi
Get up—128 pages, high quality paper, hard bound, 14 x 21 cm.
Writer—M C Gupta ‘Khalish’
Foreword—Shri Rakesh Khandelwal, the famous Hindi poet
Publisher—Ayan Prakashan, Delhi
Date of publication—10 September 2009
Price—Rs. 150/-


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माज़ी की परतों से

मन की बात--
कविता दिल से निकलती है. जो केवल कलम से निकले, वह कितना ही तराशा हुआ काव्य-शिल्प हो, दिल को नहीं छू सकता. जिस कविता ने दिल को न छुआ, उसे संपूर्ण कविता का दर्ज़ा नहीं दिया जा सकता. इस संकलन की कविताएं दिल को छू पातीं हैं या नहीं, यह पाठक ही बता पायेंगे. उनकी राय का इंतज़ार रहेगा.

तथापि, चन्द बातें कहना चाहूँगा.
प्रथम, इस संकलन के नाम के संबंध में. यह सर्वमान्य है कि अच्छा काव्य अक्सर उस धरती में उपजता हो जो आँसू से सींची गयी हो. मेरी कविताओं की उत्पत्ति मेरी पत्नी डा० मंजु गुप्ता (२७ जनवरी १९४८—१३ जून १९९६) के निधन की पृष्ठभूमि में हुयी है. यह संकलन उन्हीं की याद को समर्पित है.
कविवर पंत ने कहा भी है:
“वियोगी होगा पहला कवि, आह से उपजा होगा गान
निकल कर नयनों से चुपचाप बही होगी कविता अनजान”

द्वितीय, चाहे मैं पेशे से पहले डाक्टर, फिर वकील हूँ, हिन्दी का मुझे अच्छा ज्ञान है. किंतु मैं महात्मा गान्धी की सीख का कायल रहा हूँ कि हमें शुद्ध हिन्दी अथवा शुद्ध उर्दू के चक्कर में न पड़ कर हिन्दुस्तानी को बढ़ावा देना चाहिये, जो आम बोल-चाल की भाषा से बहुत दूर न हो. इसीलिये मैंने अपनी गज़लों में हिन्दी और उर्दू, दोनों का खुल कर प्रयोग किया है. मुझे उर्दू लिखना-पढ़ना नहीं के बराबर ही आता है, तथापि मैं मानता हूँ कि हिन्दी-भाषियों को उर्दू से गुरेज़ बिल्कुल नहीं करना चाहिये. किसी भाषा का साहित्य अन्य भाषाओं के साथ जुड़ने से समृद्ध होता है, न कि उनसे अलग रहने से.
तृतीय, ग़ज़ल शैली की अपनी विशेषतायें हैं, जो किसी भी भाषा के कवि को अपनी ओर सहज ही आकर्षित कर लेती हैं. गज़ल हिन्दी, मराठी, गुजराती, मलयालम आदि अनेक भाषाओं में लिखी जा रही हैं. लगभग ५० गज़ल मैंने अंग्रेज़ी में भी लिखी हैं. कविता अन्य शैली की भी करता हूँ. इस संकलन में केवल गज़लें ही हैं. यहाँ स्पष्ट कर दूँ कि इस संकलन में अनेक गज़ल ऐसी हैं कि उनके शेर स्वतन्त्र न हो कर एक ही विषय की माला में पिरोये हुये हैं. इन्हें गज़लनुमा नज़्म भी कहा जा सकता है. यह भी कहना चाहूँगा कि आम आदमी की गज़ल के रूप में रचित इन गज़लों में बहर, अरकान, तख्ती आदि के नियमों का सख्ती से पालन नहीं किया गया है. तथापि क़ाफ़िया, रदीफ़, मत्ला, मक्ता आदि का पूरा ध्यान रखा गया है. कुछ गज़लें गै़र-मुरद्दफ़ (बिना रदीफ़ की) भी हैं.
अंत में, हो सकता है इन गज़लों में नये प्रतीकों और प्रयोगों का प्राचुर्य न हो और काव्य-मर्मज्ञों को यह बात खले. तथापि, कहना चाहूँगा कि मैंने इस बात पर अधिक ध्यान दिया है कि ग़ज़ल या कविता ऐसी हो जिसे आम आदमी गा कर पढ़ सके और पढ़ने का ही नहीं, गाने का भी आनन्द उठा सके. मैं यह मानता हूँ कि कविता और संगीत का अभिन्न नाता है. संगीत कविता को अधिक निखारता है. संगीत ही कविता की जान है. संभव है अनेक रचनाओं में पाठकों को मशहूर ग़ज़लों या लोक प्रिय फ़िल्मी गानों की तर्ज़ की झलक मिले. मैं मानता हूँ कि इस से मेरी रचना हेठी नहीं होती, उद्दात्त होती है. जो शैली जन-मानस की कसौटी पर खरी उतर चुकी हो उसे अपनाना ही श्रेयस्कर है.
उर्दू शब्दों के अर्थ एवं वर्तनी के लिये उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा प्रकाशित ज़नाब मुहम्मद मुस्तफ़ा खाँ ’मद्दाह’ द्वारा संकलित उर्दू हिन्दी शब्द कोश (११वां संस्करण, २००६) को आधार रखा गया है. यही कारण है कि, उदाहरणत:, शायर की जगह शाइर का प्रयोग किया गया है. उर्दू नुक्तों का विशेष ध्यान रखा गया है. किसी भाषा को क़ायम रखने के लिये उसका शुद्ध प्रयोग बहुत आवश्यक है.

हिन्दी वर्तनी के लिये हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग, द्वारा प्रकाशित तथा श्री रामचन्द्र वर्म्मा द्वारा सम्पादित मानक हिन्दी कोश (प्रथम संस्करण, १९६६), को आधार रखा गया है.

पाठकगण अपनी प्रतिक्रिया, आलोचना या सुझाव आदि भेजें तो स्वागत है, ख़ुशी होगी.

मैं डा० मंजुला दास, डी०लिट०, रीडर, सत्यवती कालेज (दिल्ली विश्वविद्यालय) का अनुगृहीत हूँ जिन्होंने मुझे इस संकलन के प्रकाशन के लिये प्रेरित किया तथा इसकी पांडुलिपि का एक एक शब्द पढ़ कर अमूल्य सुझाव दिये.
अयन प्रकाशन के श्री भूपाल सूद का आभारी हूँ जिन्होंने एक लेखक के लिये भार रूप प्रकाशन कार्य को मेरे लिये बहुत सहल बना दिया. मैं उनकी इस बात से विशेष आकृष्ट हुआ कि वे स्वयं एम०ए० (संस्कृत) हैं तथा उनके पिताजी अपने समय के प्रतिष्ठित शाइर थे.
महेश चन्द्र गुप्त ’ख़लिश’

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१. जब याद अचानक माज़ी की परतों से कोई आयेगी

जब याद अचानक माज़ी की परतों से कोई आयेगी
तब आँख से आँसू बरसेंगे और ग़म की बदली छायेगी

मन पंछी बन उड़ जायेगा, एक बर्क बदन में दौड़ेगी
बीते बरसों की याद कोई मेरे मन को भरमायेगी

जब भूले- बिसरे नग़मों के संग बीती घड़ियाँ लौटेंगी
वो याद मेरी तनहाई में फिर से तूफ़ान मचायेगी

माज़ी में दो पल जी लूंगा, इक धुंधली सूरत उभरेगी
ग़र राहों में खो जाऊँगा तो मंज़िल वो दिखलायेगी

चुपचाप बहुत बातें होंगी, कुछ चैन मुझे आ जायेगा
छूना चाहा तो रातों के साये में वो खो जायेगी.

बर्ख = तरंग, लहर, करेंट





२. क्यों जा के तेरे दर भला ग़म को सुनाइये

क्यों जा के तेरे दर भला ग़म को सुनाइये
क्यों दर्दे-दिल मालिक-ए-सितम को सुनाइये

अन्ज़ाम जानते हैं अपनी बेबसी का हम
फ़रियाद क्यों दुश्मन-ए-रहम को सुनाइये

हम तो हुज़ूर कुछ नहीं कहते हैं आपसे
पर इल्तज़ा है आप कुछ हमको सुनाइये

पूरी करेंगे ख्वाहिशें मर के भी आपकी
फ़रमान ज़रा दीदा-ए-नम को सुनाइये

लिखी है खू़नेदिल से हमने ये ग़ज़ल ख़लिश
क्या फ़ैसला है आप बज़्म को सुनाइये.

फ़रमान = हुक्म, आदेश
दीदा-ए-नम = गीली आँखें




३. हाथों में उसके यूँ तो इक फूलों का हार था

हाथों में उसके यूँ तो इक फूलों का हार था
दिल में न जाने किसलिये शिकवा हज़ार था

जिसने दिखाया रास्ता और राह में लूटा
वो कोई नहीं और इक बचपन का यार था

नज़रों से बेरुखी का देता ही रहा पयाम
बातों में गोया प्यार उसकी बेशुमार था

अन्दाज़े-गुफ़्तगू से उसने साफ़ कर दिया
वो तर्क करने को मुहब्बत बेक़रार था

जो आज बन बैठा है मेरी जान का दुश्मन
वो कल तलक कहने को मेरा ग़मगुसार था

माज़ी के धुंधलके का इक पन्ना तो साफ़ है
वो इश्क़ नहीं सिर्फ़ इक बेज़ा खुमार था

सूनी है नज़र आज जिसमें थे हसीन ख़्वाब
है एक दयार आज कल दूजा दयार था

जो वक़्त उसके संग बिताया ख़लिश कभी
वो रंजोग़म से दूर कितना ख़ुशगुवार था.

ग़मगुसार = ग़मख़्वार, हमदर्द


४. इक मुहब्बत दो दिलों में इस तरह पलती रही


इक मुहब्बत दो दिलों में इस तरह पलती रही
मिल न पायी कोई मंज़िल, उम्र बस ढलती रही

इस तरह अड़ते रहे दोनों ही अपनी बात पर
रोज़ ऐसा ही हुआ कि बात जो कल थी, रही

वो समझते ही रहे कि आयेंगे हम खुद-ब-खुद
हम गये न बिन बुलाये, बस यही गलती रही

दूरियाँ बढ़ती रहीं पर न हुआ हमको गुमां
ज़िंदगी रफ़्तार से अपनी मगर चलती रही

एक दिन यूँ ही खलिश तर्के-मुहब्बत हो गयी
और इस दिल की तमन्ना हाथ बस मलती रही.




५. रातों के अन्धेरे में बिजली सी चमकती है

रातों के अन्धेरे में बिजली- सी चमकती है
आवाज़ है पायल की ख़ामोश खनकती है


अनजान- सी लगती है पहचान पुरानी है
धुन्धली है कोई छाया अपने में सिमटती है

सोचा था जिसे अपने दिल से ही भुला देंगे
तनहाई के आलम में वो याद पलटती है

जो रहे नहीं उन की चाहत अब क्या कीजे
अनबूझ तमन्ना क्यों हर बार मचलती है

अरमां न तमन्ना है ख्वाहिश न कोई बाकी
जज़्बात की शिद्दत है अश्कों में निकलती है

बेहतर है ख़लिश ऐसी उम्मीद न पालो कि
बरबाद मुहब्बत की तक़्दीर बदलती है.








६. ग़म मेरे दिल को सताता है तो रो लेता हूँ

ग़म मेरे दिल को सताता है तो रो लेता हूँ
दिले-बरबाद रुलाता है तो रो लेता हूँ

प्यार मैंने जो किया रास न आया मुझको
जब कोई याद दिलाता है तो रो लेता हूँ

नग़्मा-ए-तर्केमुहब्बत-ओ-वफ़ा का मुझको
कोई जब रो के सुनाता है तो रो लेता हूँ

जिसने पाया है वफ़ाओं का जफ़ाओं से सिला
दाग़े-दिल अपने दिखाता है तो रो लेता हूँ

मुझे मंज़िल न मिली प्यार की राहों में ख़लिश
हादसा याद वो आता है तो रो लेता हूँ.







७. मेरे दिल पर दस्तक देने याद पुरानी आयी है

मेरे दिल पर दस्तक देने याद पुरानी आयी है
सहरा की गर्दिश में फिर से आज बही पुरवाई है

यादों से ही जीता हूँ मरते दम याद रहेंगी ये
दिल के वीराने पर छायी यादों की परछाईं है

ये मेरे दिल में बसती हैं कैसे अलग़ करूँ इनको
इन यादों की खातिर मैंने सारी उम्र गंवायी है

कुछ यादें हैं चाहने पर भी नहीं पलट कर आयेंगी
कुछ ऐसी हैं दानिश्ता ही जिनसे नज़र चुरायी है

यादें हैं कुछ ख़ास ख़लिश जो इस मौके पर लाया हूँ
उनकी बरसी के दिन दिल की महफ़िल खास सजायी है.

दानिश्ता = जान बूझ कर






८. उल्फ़त की है सालगिरह, आओ फिर जश्न मनायें हम

उल्फ़त की है सालगिरह, आओ फिर जश्न मनायें हम
मय हो चाहे खूने-दिल हो पीयें और पिलायें हम

वादे पूरे करने हों तो लिखने की दरकार नहीं
जो ख़त कभी लिखे थे तुमने आओ उन्हें जलायें हम

जीना है तनहाई में, क्यों ज़िंदा रखें माज़ी को
साथ बितायीं थीं जो रातें मिल कर उन्हें भुलायें हम

अपने दिन तो जैसे- तैसे रो- धो कर कट जायेंगे
शाद रहो, आबाद रहो, देते हैं तुम्हें दुआएं हम

मिलने के वादे टूटे तो ख़लिश भला ग़म क्यों पालें
अगली सालगिरह पर न मिलने की कसमें खायें हम.

शाद = ख़ुश





९. लो जुदाई के सभी ग़म सह लिये

लो जुदाई के सभी ग़म सह लिये
हम तुम्हारे प्यार के बिन रह लिये

तुम न थे पहलू में, शिकवे प्यार के
दर-ओ-दीवारों से रो कर कह लिये

दिन ढले तनहाइयों में रात की
बाढ़ आयी आँसुओं की, बह लिये

कोई क्या जाने कि हम बैठे हुये
याद की परतों में कितनी तह लिये

न हुआ दीदार जीते जी ख़लिश
कब्र पर आये हैं फूल वह लिये.



१०. क्या करूँ मैं ज़िन्दगी जब रास न आये मुझे

क्या करूँ मैं ज़िन्दगी जब रास न आये मुझे
जी रहा हूँ किसलिये, इक ग़म यही खाये मुझे

जो चले जाते हैं वो फिर लौटकर आते नहीं
याद आकर क्यों किसी की रोज़ तड़पाये मुझे

आज मैं दुनिया में तनहा हूँ, मेरा कोई नहीं
कोई तो हो जो कभी हौले से छू जाये मुझे

अब फ़ज़ाओं और खिज़ाओं में न कोई फ़र्क है
ज़िन्दगी अब क्यों सुहाने ख़्वाब दिखलाये मुझे

वक़्त रहते ही ख़लिश कह दूँ तुम्हें मैं अलविदा
दिख रहे हैं दूर से अब मौत के साये मुझे.

ख़ज़ां, ख़िज़ां = पतझड़


११. जब तनहाई में याद किसी की आती है

जब तनहाई में याद किसी की आती है
दिल पर बर्फ़ीली लहर कोई छा जाती है

गुज़रे लमहे फिर से ताजा़ हो जाते हैं
फिर कोई तसव्वुर में सूरत मुस्काती है

माज़ी से आती है तसवीर खु़शी ले कर
जब जाती है तो और अधिक तड़पाती है

कुछ वक़्त परेशानी के ऐसे होते हैं
जब सोयी तमन्ना फिर मन में बल खाती है

वो दूर गये अब ख़लिश तुझे भी जाना है
कोई शय चुपके से आ कर याद दिलाती है.






१२. एक मुझसे बस यही नाता रहा

एक मुझसे बस यही नाता रहा
प्यार की झूठी कसम खाता रहा

पहले वो करता रहा गुस्ताखियाँ
शर्म झूठी आँख में लाता रहा

तर्के-उल्फ़त क्यों हुयी इसका सबब
भेज कर ख़त रोज़ समझाता रहा

अपनी मेहरबानियों का वो सदा
मुझको एहसास करवाता रहा

सिलसिला फिर ख़त्म ये भी हो गया
ख़त का आना भी ख़लिश जाता रहा.

सबब = कारण

१३. महफ़िल ने जब असूल पुराने बदल लिये---

महफ़िल ने जब असूल पुराने बदल लिये
मज्बूर हो के हमने ठिकाने बदल लिये

वो मय रही न आज, न साकी में ताब है
लो दिलक़शी के हमने बहाने बदल लिये

सांसों का साज़ है वही पर लय बदल गयी
तो ज़िंदगी के हमने तराने बदल लिये

आँखें वो नीमबाज़ जिन्हें ताकते रहे
क्या कीजिये उन्हींने निशाने बदल लिये

जब प्यार की मंज़िल ख़लिश न हो सकी हासिल
हमने भी दिल के ख़्वाब सुहाने बदल लिये.

नीमबाज़ = अधखुली






१४. कविता का मतलब क्या है, लिखने बैठे तो समझे

कविता का मतलब क्या है, लिखने बैठे तो समझे
शम्म की हक़ीक़त क्या है जलने बैठे तो समझे

हम भी कहते थे अक़्सर दुनिया से कूच करेंगे
ये काम नहीं है आसां मरने बैठे तो समझे

सोचा था इश्क़ करेंगे हम मजनूँ से भी ज्यादा
होते हैं प्यार में ग़म भी, करने बैठे तो समझे

ख़्वाहिश तो चुक न पायी, रीतापन ही बेहतर था
जब अपने दिल में ख़ुशियाँ भरने बैठे तो समझे

थे ख़लिश पराये सारे, जिनको भी अपना जाना
जब अंत समय अर्थी पर चढ़ने बैठे तो समझे.


१५. साँस मेरी एक दिन सो जायेगी

एक दिन ये साँस भी सो जायेगी
ज़िन्दगी जाने कहीं खो जायेगी

दर्द में हस्ती मेरी हँसती रही
आखिरी लमहात में रो जायेगी

दौलते-ग़म है बहुत नायाब ये
दफ़्न मेरे साथ ही हो जायेगी

चल पड़े हैं हमसफ़र के संग अब
राह जाने कब किधर को जायेगी

फ़िक्र क्यों जब नाव जीवन की ख़लिश
चल पड़ी है तो कहीं तो जायेगी.






१६. आशिक़ को भला कब ग़म न था

आशिक़ को भला कब ग़म न था
कब राह-ए-इश्क़ में ख़म न था

कब राह-ए-ज़फ़ा को भूले तुम
कब मेरी वफ़ा में दम न था

हर बात तुम्हारी आला थी
हर लफ़्ज़ गज़ल से कम न था

कब खुश्क रहीं तेरी आँखें
कब दिल मेरा यूँ नम न था

तुम तुम थे, मैं मैं रहा ख़लिश
बातों में कभी भी हम न था.





१७. आज न जाने मुझे क्या हो गया

आज न जाने मुझे क्या हो गया
उलझनों में ही कहीं मैं खो गया

सूझती कोई नहीं तदबीर अब
यूँ लगे जैसे नसीबा सो गया

जो कभी मेरा बना था हमसफ़र
छोड़कर मझधार मुझको वो गया

ज़िन्दगी की देख कर मज़बूरियाँ
चुप रहा, भीतर तलक मैं रो गया

है मगर दिल को तसल्ली ये ख़लिश
खार चुन कर फूल मैं कुछ बो गया.





१८. मेरी तनहाई में ग़म ही मेरे दिल को लगाते हैं

मेरी तनहाई में ग़म ही मेरे दिल को लगाते हैं
कभी न हो सके अपने जो अक़्सर याद आते हैं

फ़क़त दो दिन का मिलना था तड़पना उम्र भर का है
गुज़ारे थे जो उनके संग वो लमहे सताते हैं

कभी मिलने नहीं आते पलट कर छोड़नेवाले
मगर बीते हुए लमहे हमें अक़्सर बुलाते हैं

अकेला जब मैं होता हूँ कभी ऐसा भी होता है
वो मीठी तान हौले से मुझे आकर सुनाते हैं

अन्धेरा दिल भी हो जाता है थोड़ी देर को रौशन
ख़लिश ख्वाबों में आके वो कभी जब मुस्कुराते हैं.







१९. किस तरफ़ जाऊँ मुझे कुछ भी समझ आता नहीं

किस तरफ़ जाऊं मुझे कुछ भी समझ आता नहीं
है शहर अनजान कोई राह दिखलाता नहीं

हर मुसीबत में जिसे मैंने सहारा था दिया
दोस्त वो कोई मुझे तदबीर बतलाता नहीं

जोड़ कर तिनके पे तिनका इक बनाया आशियाँ
आज मेरे घर से ही मेरा रहा नाता नहीं

है बहुत कहने को यूँ तो किसलिये किस से कहूँ
सोच कर कि फ़ायदा क्या, कुछ कहा जाता नहीं

छा रहा है सब तरफ़ मौसम उदासी का ख़लिश
अब ख़ुशी का कोई भी नग़्मा मुझे भाता नहीं.





२०. मेरी दुनिया लुट गयी मैं बेख़बर सोता रहा

मेरी दुनिया लुट गयी मैं बेख़बर सोता रहा
और सरेबाज़ार सौदा ही मेरा होता रहा

मैंने दौलत जो कमायी पास न मेरे रही
जो मिला इक हाथ दूजे से उसे खोता रहा

आज तक अपनों से पाये सिर्फ़ मैंने खार ही
मैं मगर गै़रों की खातिर फूल ही बोता रहा

हो गये अशआर खुद ही मय रदीफ़-ओ-क़ाफ़िया
मैं क़लम को आँसुओं में सिर्फ़ डुबोता रहा

दाग़ थे वो उम्र भर को जो लगे दिल पर कभी
क्यों उन्हें अश्कों से नाहक मैं ख़लिश धोता रहा.




२१. जाने किस रोज़ जहाँ से मैं किनारा कर लूँ

जाने किस रोज़ जहाँ से मैं किनारा कर लूँ
आओ दीदार तो इक बार तुम्हारा कर लूं

एक लमहे में जवानी के गुनाह कर बैठे
दो इजाज़त तो गुनाह वो ही दोबारा कर लूँ

आखिरी रात है परदे ये हटा दो सारे
वक़्ते-रुख्सत में ज़माने का नज़ारा कर लूँ

तुझे रुस्वाई-ओ-तोहमत से बचाने के लिये
दिल ये माने तो तेरे बिन भी गुज़ारा कर लूँ

मेरी आँखों में नमी तेरी निगाहों में हँसी
ऐसे अन्दाज़ ख़लिश कैसे गवारा कर लूँ.







२२. तनहा हुआ तो दिल को मेरे आ गया क़रार

तनहा हुआ तो दिल को मेरे आ गया क़रार
आ- आ के चैन अब न लूटेंगी मेरा बहार

सो जाऊँगा वहीं जहाँ थक जायेंगे क़दम
रातों को कौन है जो करे मेरा इन्तज़ार

ग़र भूल जाऊँ राह तो चलता ही रहूँगा
किसको पड़ी है जो मुझे टोकेगा एक बार

सुनसान अन्धेरों में जाने क्यों कभी- कभी
लगता है जैसे दूर से आये कोई पुकार

मुमकिन नहीं कि भूल जाऊँ वो समाँ ख़लिश
मुझ पे लुटाया था किसीने इस गली में प्यार.







२३. ख्वाबों को देखते हो बार बार किसलिये

ख्वाबों को देखते हो बार- बार किसलिये
दिल तोड़ने वाले पे एतबार किसलिये

वो इश्क़ में चल के आये हैं खुद हमारे घर
इज़हार प्यार का न हो स्वीकार किसलिये

तर्के-मुहब्बत का पयाम उनसे जब मिले
क्यों तीर ना हो फिर सीने के पार किसलिये

रोवो हज़ार बार वो न आयेंगे पलट
अश्कों को कर रहे हो यूँ बेकार किसलिये

दौलत के नशे में न यूँ मग़्रूर होइये
घर मुफ़लिसों का फूँकते हो यार किसलिये

राहें कंटीली चुन चुके उल्फ़त में जब ख़लिश
अब गिन रहे हो पाँव के तुम खार किसलिये.







२४. जो ज़ुल्म सितमगर ने किया पुर-असर निकला

जो ज़ुल्म सितमगर ने किया पुर-असर निकला
आँखों से जो पानी बहा वो बेअसर निकला

अरमान ले कर ज़ानिबे-मंज़िल तो चले थे
साथी भी मिले पर न कोई हमसफ़र निकला

वादे किये सबने मगर मझधार में छोड़ा
हमदम भी मेरा ग़म से मेरे बेख़बर निकला

इम्तिहां बारहा हुआ मेरे नसीब का
नतीजा क़िस्मत का हमेशा ही सिफ़र निकला

दिया जिसको भी कर्ज़ न आया वो पलट के
ख़लिश बड़ा खुदगर्ज़ जाने क्यों बशर निकला.

बशर = आदमी






२५. ज़िन्दगी तू ही बता कब तक भुगतना है मुझे


ज़िंदगी तू ही बता कब तक भुगतना है मुझे
कब तलक इन सर्द साँसों से निबटना है मुझे

चोट इतनी लग चुकी हैं दिल भी मेरा थक गया
पूछता है रोज़ ये कब तक धड़कना है मुझे

दोस्त सारे मतलबी थे सारे हो गये कब के जुदा
अब फ़क़त तनहाइयों से ही गुज़रना है मुझे

ज़िन्दगी ख़ामोश सी तो जी रहा हूँ मैं मगर
है कोई जिसके ख़यालों में तड़पना है मुझे

सिर्फ़ इतना सा बता दे मौत तू मुझको ख़लिश
रास्ता कब तक तेरा यूँ रोज़ तकना है मुझे.




२६. जो मिला था हमसफ़र उसने मुझे धोखा दिया

जो मिला था हमसफ़र उसने मुझे धोखा दिया
और ये अफ़सोस कि बदनाम भी नाहक किया

पा सका नाकामियाँ ही ज़िन्दगी में आज तक
हाथ से फिसला वही जो हाथ में मैंने लिया

मत करो उम्मीद तुमको रौशनी दे पाऊँगा
जा रही है लौ मेरी मैं एक हूँ बुझता दिया

क्या कहूँ किससे कहूँ सुनता यहाँ पर कौन है
पूछते हो किसलिये क्यों होंठ को मैंने सिया

जी सका बेफ़िक्र हो कर बस ख़लिश वो ही यहाँ
जिस बशर ने है ख़ुदा के नाम का प्याला पिया.





२७. न तुम मेरी तरफ़ देखो न मेरे पास आओ तुम

न तुम मेरी तरफ़ देखो, न मेरे पास आओ तुम
भुला बैठा हूँ जो यादें उन्हें अब मत जगाओ तुम

जहाँ बीते ज़माने में कभी घूमा किये हम तुम
उन्हीं राहों पे दोबारा भला क्योंकर बुलाओ तुम

सुकूँ सहरा में कितना है चमन के लोग क्या जानें
फ़ज़ा-ओ-वादियों के ख्वाब मुझको मत दिखाओ तुम

रहा मैं उम्र भर प्यासा कि अब तो पड़ गयी आदत
भरे ये जाम उल्फ़त के न अब मुझको पिलाओ तुम

मुझे भी रास थीं खुशियाँ जवानी के ज़माने में
मधुर मुस्कान से अपनी ख़लिश न यूँ लुभाओ तुम.

फ़ज़ा = खुली हुयी हरियालीदार जगह, शोभा, रौनक, बहार




२८. सुनता नहीं है जब कोई तो बोलता है क्यों

सुनता नहीं है जब कोई तो बोलता है क्यों
आहों से काम ले, जु़बान खोलता है क्यों

शिकवे-शिकायतों से कुछ हासिल न हो सका
सह दर्द, अपने फ़र्ज़ से तू डोलता है क्यों

है कौन जो आँसू भी तेरी आँख के पौंछे
मोती ये कीमती पलक पे तोलता है क्यों

दिल का ज़हर ज़ुबान के रस्ते निकाल दे
अल्फ़ाज़ में झूठा शहद तू घोलता है क्यों

आये न वो ख़लिश किया ता-उम्र इन्तज़ार
जो चार दिन बचे हैं उन्हें रोलता है क्यों.





२९--- हम को न पता था दुनिया में दिल की भी तिज़ारत होती है

हमको न पता था दुनिया में दिल की भी तिज़ारत होती है
चान्दी के सिक्कों में तुल कर बरबाद मुहब्बत रोती है

था सच्चा प्यार किया लेकिन ना जाने क्यों नाकाम रहा
है जवाँ किसी की क़िस्मत और तक़दीर किसी की सोती है

वो दो दिन खेले, चले गये, तड़पें हम उनकी यादों में
आँसू की नदिया बहती है आँचल दिन-रात भिगोती है

जो दिल का दर्द बतायें तो इल्ज़ाम हमीं पर आता है
नन्ही सी जान तन्हाई में सौ ग़म उल्फ़त के ढोती है

है ख़लिश अजब ग़म की दौलत, ये बिना बटोरे बढ़ती है
जो उनकी याद में गिरता है वह अश्क नहीं है मोती है.

तिज़ारत = व्यापार





३०. मेरी तनहाई मेरी ज़िंदगी के साथ जायेगी

मेरी तनहाई मेरी ज़िंदगी के साथ जायेगी
वफ़ा हर हाल में ये आखिरी दम तक निभायेगी

ख़ुशी जीवन की सारी वो गये तो संग ले गये
कभी मुस्कान चेहरे पर मेरे न लौट पायेगी

दवा मेरी नहीं कोई, मुझे गफ़लत में रहने दो
न मुझ को होश आयेगा, न उनकी याद आयेगी

नहीं अब मय, न पैमाना न मीना है, न साकी है
मुझे भर-भर के उन की याद जाम-ए-ग़म पिलायेगी.

कभी मंज़र जुदाई का तसव्वुर में ख़लिश मेरे
जो आयेगा तो उनकी याद फिर आ के रुलायेगी.

मय = शराब
पैमाना = तरल पदार्थ नापने का यंत्र, शराब का गिलास
मीना = शराब का जग
साकी = शराब पिलाने वाला
जाम = शराब पीने का पियाला
मंज़र = दृश्य, नज़्ज़ार: (नज़ारा), कौतुकस्थान, क्रीडास्थल, सैरगाह




३१. हम उनकी निगाहों के सदके वो चुप भी रहे कुछ कह भी गये

हम उनकी निगाहों के सदके वो चुप भी रहे कुछ कह भी गये
कुछ तीर लगे ऐसे दिल पर हँस- हँस के उनको सह भी गये

कुछ ख्वा़हिश थी कुछ हसरत थी कुछ ख्वा़ब ख़ुशी के देखे थे
सपनों के महल बनाये जो चिनने से पहले ढह भी गये

कुछ नाज़ुक अरमाँ आँखों में हम ने भी संजोये थे इक दिन
अश्कों की राह मिली उनको कुछ बाकी हैं कुछ बह भी गये

जोड़े थे चंद खिलौने इक नन्हा सा दिल बहलाने को
आँधी ऐसी इक दिन आयी कुछ टूट गये कुछ रह भी गये

कुछ सूखे फूल किताबों में कुछ ख़त मुरझाये धुन्धले से
ये ख़लिश सहेजोगे कब तक अब तो दुनिया से वह भी गये.



सदक़: = दान, खैरात, न्यौछावर




३२. सहमे सहमे से मुझे लोग नज़र आते हैं

सहमे- सहमे से मुझे लोग नज़र आते हैं
साये में मौत के हर साँस जिये जाते हैं

कोई एहसास नहीं दिल में ख़ुशी का लेकिन
खोखली है जो हँसी लब पे लिये जाते हैं

ज़ोर चलता नहीं इंसान का इक लमहे पर
ज़िंदगी साथ निभाने की कसम खाते हैं

बज़्म में ऐसे सुखनबर भी हुआ करते हैं
पेट भूखा है मगर दिल से ग़ज़ल गाते हैं

यूँ तो नग़्मात खुशी के भी ख़लिश लिखता है
दर्द में डूब के अशआर निखर जाते हैं.





३३. ग़म दे गये हमको मगर वो जानते नहीं

ग़म दे गये हमको मगर वो जानते नहीं
मतलब निकल गया तो अब पहचानते नहीं

हमको सता रहे हैं कि उनको ख़बर है हम
लेने की इंतिक़ाम कभी ठानते नहीं

पत्थर दिलों को हाल क्यों दिल का सुनाइये
खामोश ही रहते हैं हम बखानते नहीं

उनकी इनायत कर दिया घर से हमें बेघर
राहों की वरना खाक ऐसे छानते नहीं

अफ़सोस का इज़हार उनसे हो ना पायेगा
गलती ख़लिश अपनी कभी वो मानते नहीं.

इंतिक़ाम = दुश्मनी चुकाना, बदी का बदला लेना





३४. किसलिये तुम आज यूँ खामोश हो

किसलिये तुम आज यूँ खा़मोश हो
थक गये हो या हुए मदहोश हो

कौनसा रिसने लगा है ज़ख्म फिर
कर रहे किस बात का अफ़सोस हो

कौन सह पायेगा ये दर्दो-सितम
इससे बेहतर है कि दिल बेहोश हो

बाजुओं में जब नहीं ताकत रही
किसलिये सीने में कोई जोश हो

दिल में क्या है राज़ कुछ बतलाइये
आज क्यों हमसे ख़लिश रूपोश हो.

रूपोश = जो मुँह छिपाये हो, जो भागा हुआ हो







३५. उसके ही बारे रात भर मैं सोचता रहा

उसके ही बारे रात भर मैं सोचता रहा
ग़म ज़ब्त करके आँसुओं को रोकता रहा

क्यों बेवफ़ाई ही मिली करके मुझे वफ़ा
रह- रह के यही ख्याल मुझे नोचता रहा

जिस दिन मेरा साथी गया था छोड़कर मुझे
उस वक़्त से ही ज़िंदगी को कोसता रहा

जाते हुये दो प्यार की बातें न कर सका
अपनी ज़ुबाँ से वो ज़हर ही घोलता रहा

क्या था ख़लिश क़ुसूर मुझे तो पता नहीं
दुश्मन की नज़र से मुझे वो तोलता रहा.




३६. बहुत नाज़ुक बना है दिल ग़मों से टूट जाता है

बहुत नाज़ुक बना है दिल ग़मों से टूट जाता है
ग़मों से ही मगर इस ज़िन्दगी का रोज़ नाता है

किसी ग़म से मेरे होठों पे आती मुस्कुराहट है
कोई ग़म याद आ कर के बहुत मुझको रुलाता है

किसी ग़म से मेरे सीने की धड़कन थरथराती है
कोई ग़म आज भी यादों को मेरी गुदगुदाता है

कोई ग़म है जिसे चाहा मग़र मैं भूल ना पाया
कोई ऐसा भी ग़म है जो मेरे दिल को लुभाता है

हज़ारों ग़म मेरे दिलबर के हैं पर एक ही है दिल
ख़लिश ग़म एक जाता है कि दूजा लौट आता है.




३७. अब मेरा घर बन गया अनजान है मेरे लिये

अब मेरा घर बन गया अनजान है मेरे लिये
ग़ैर की मानिंद हर इंसान है मेरे लिये

आज सहरा का समाँ भी लग रहा रंगीन-सा
अब नहीं कोई बचा अरमान है मेरे लिये

बेचते हैं दीन और ईमान सब अपना यहाँ
ये ज़माना सिर्फ़ इक दूकान है मेरे लिये

भेजता हूँ ख़त मगर आता नहीं कोई जवाब
अजनबी सी हो गयी संतान है मेरे लिये

शिद्दते-ग़म बढ़ चुकी है इस कदर दिल में मेरे
आह भी इक बन गयी तूफ़ान है मेरे लिये

कोई मुझको देख कर मुस्काये झूठे ही अग़र
ये हक़ीक़त में बड़ा एहसान है मेरे लिये

पीठ में खंजर चुभोये दोस्तों ने इस तरह
दोस्ती की दुश्मनी पहचान है मेरे लिये

सोचता हूँ तर्क कर लूँ ज़िन्दगी से वास्ता
हर नया दिन नये ग़मों की खान है मेरे लिये

अलविदा मैं ले रहा हूँ आज दुनिया से ख़लिश
इक यही बस रास्ता आसान है मेरे लिये.


शिद्दत = तीव्रता





३८. दिल में तो बसाया था उनको, दुनिया में मेरी आ न सके

दिल में तो बसाया था उनको, दुनिया में मेरी आ न सके
दूरी हर दिन बढ़ती ही गई, वो आ न सके, हम जा न सके

दुनिया की नज़र में साथ रहे पर दो दिल साथ नहीं धड़के
इक उम्र बिताई उनके संग पर प्यार कभी हम पा न सके

हैं लाख सितम झेले हमने पर लब से उफ़ भी क्यों निकले
वो ग़ैरों के मोहसिन निकले हम प्यार उन्हें सिखला न सके

ना अपने से उनको फ़ुर्सत, ना अपने खाम-खयालों से
हम अपने दिल के दाग़ उन्हें कितना चाहा दिखला न सके

क्यों हो गयी तर्क मुहब्बत हमको राज़ ख़लिश मालूम नहीं
वो शाइर हैं पर मैयित पर मर्सिया तलक भी गा न सके.

मोहसिन = परोपकारी
मैयित = मृतक, मरा हुआ आदमी





३९. ज़िंदगी तो जल गयी मैं राख ढूँढता रहा

ज़िंदगी तो जल गयी मैं राख ढूँढता रहा
नींद तो छलती रही मैं आँख मूँदता रहा

रंग- रूप- गंध सभी तो विलीन हो गये
कागज़ों के फूल बार- बार सूँघता रहा

काम में न दिल लगा आराम भी नहीं मिला
सिर्फ़ बेख़बर- सा मैं उदास ऊँघता रहा

न चमन में साथ जब दिया मेरा बहार ने
गर्दिशों की खाक बदहवास खूँदता रहा

मत खुशी की आस कर जो चाहिये तुझे खु़शी
कान में ख़लिश यही पयाम गूँजता रहा.





४०. बिछुड़ जाते हैं जो अक़्सर दिलों को याद आते हैं


बिछुड़ जाते हैं जो अक़्सर दिलों को याद आते हैं
ज़खम भर जायें तो कुछ दर्द उनके बाद आते हैं

जो उनके ख्याल आ जायें तो फिर रुकना नहीं आसाँ
दु:खी आँखों में अश्कों के बहुत सैलाब आते हैं

कोई तो बात है उनमें बुलाये से वो ना आयें
कभी मेरे तसव्वुर में चले वो आप आते हैं

बुलाने और आने का चलेगा सिलसिला कब तक
ना जाने क्यों वो जाने के लिये हर बार आते हैं

बढ़े थे शान से कितनी कभी राहे-मुहब्बत में
मगर वापस ख़लिश ले कर दिले-बरबाद आते हैं.

तसव्वुर = चित्त को एकाग्र करके किसीको ध्यान में प्रत्यक्ष करना, ख़याल, कल्पना



४१. हम सोचते हैं किसलिये ये प्यार कर लिया

हम सोचते हैं किसलिये ये प्यार कर लिया
नाहक ही अपने दिल को यूँ बीमार कर लिया

कब आशिक़ों पर हुयी है दुनिया ये मेहरबान
दुश्मन ये खामख्वाह सब संसार कर लिया

हमको मिला क्या प्यार में रुस्वाई के सिवा
दामन पे अपने दाग़ ये बेकार कर लिया

हम जानते हैं वो न आयेंगे पलट के अब
जब याद आये ख़्वाब में दीदार कर लिया

देते उन्हें हम बेगुनाही का सबूत क्या
घबरा के ख़लिश ज़ुर्म का इकरार कर लिया.

रुस्वाई = बदनामी, निंदा, अपयश, कुख्याति



४२. मेरे दिल का ग़मों से वास्ता ज़्यादा ही गहरा है

मेरे दिल का ग़मों से वास्ता ज़्यादा ही गहरा है
नहीं फ़रियाद सुनता है खु़दा भी आज बहरा है

चमन उम्मीद का लहरा रहा था एक दिन दिल में
बियाबाँ कर दिया ग़म ने बना यह आज सहरा है

मिले हैं ख़ाक में वो ख्वा़ब जो रंगीं कभी देखे
बहुत मनहूस साया आज मेरे दिल पे ठहरा है

नहीं मुमकिन खुशी भूले से मेरे दिल में आ जाये
लगा रखा दरे-दिल पे ग़मों ने सख्त पहरा है

ख़लिश इस पर ख़ुशी का रंग अब चढ़ना नहीं मुमकिन
मेरे दिल पर कोई पर्चम बड़ा मनहूस फहरा है.

दरे-दिल = दिल के दरवाज़े पर
पर्चम = झंडा







४३. तुम थे हमारे, जाँ से भी प्यारे

तुम थे हमारे, जाँ से भी प्यारे
हम न हुए पर फिर भी तुम्हारे

दिल में तुम्हारे कोई ना जगह थी
कर के भी कोशिश, कई बार हारे

बस इक तमन्ना रही है अधूरी
कोई तो हमारी ज़ुल्फ़ को संवारे

मुम्किन हुआ ना, कई ख्वाब देखे
कोई हमें छू ले, हमको निखारे

क़िस्मत नहीं थी ख़लिश हमारी
वो पास आएं दिल जब पुकारे.






४४. तुम ने कितनी देर लगा दी आने में


तुमने कितनी देर लगा दी आने में
अब तो कुछ ही देर बची है जाने में

साथ तुम्हारा मिलता ये तक़्दीर न थी
खिल जाते दो फूल मेरे वीराने में

क्या वो दिल का दर्द किसीका समझेगा
जिसको खुशियाँ मिलतीं सिर्फ़ सताने में

पीना, ना पीना, दोनों नामुम्किन हैं
तुमने ऐसा विष घोला पैमाने में

दुश्मन को भी ख़लिश मिले ना वो मंज़िल
आप जहाँ ना झिझके हमको लाने में.




४५. यादों ने तेरी दिल को फिर आज पुकारा है


यादों ने तेरी दिल को फिर आज पुकारा है
ग़म ही तो मेरे जीने का एक सहारा है

वो तो न मिले लेकिन जो दर्द मिला उनका
उस दर्द के ही दम पर ये वक़्त गुज़ारा है

अरसा बीता फिर भी ना गया तसव्वुर से
नदिया का वो रंगीं पुर-फ़ज़ा किनारा है

इक दिल के बदले में पाये हैं दो आँसू
देखें तो वो आ कर क्या हाल हमारा है

जब कभी ख़लिश ये दिल तड़पा उनकी ख़ातिर
उनकी ही यादों ने तब दिया सहारा है.


पुर-फ़ज़ा = फ़ज़ा से भरपूर (फ़ज़ा = खुली हुयी हरियालीदार जगह, शोभा, रौनक, बहार)




४६. मैं खुशी के गीत गा सकता नहीं


मैं खुशी के गीत गा सकता नहीं
ज़िन्दगी, मैं मु्स्कुरा सकता नहीं

लुट चुकी है इस तरह दुनिया मेरी
ख़्वाब मैं कोई सजा सकता नहीं

माफ़ कर देना मुझे ऐ दोस्त तुम
मैं गले तुमको लगा सकता नहीं

ये नहीं मुम्किन बुलाऊँ मैं तुम्हें
और तुम्हारे पास आ सकता नहीं

बुझ चुकी दिल की ख़लिश है आस सब
और ग़म मैं अब उठा सकता नहीं.



४७. मेरे बरबाद जीवन की फ़कत इतनी कहानी है

मेरे बरबाद जीवन की फ़कत इतनी कहानी है
किसी हसरत बिना मेरी कटी सारी जवानी है

भरी महफ़िल है दुनिया की, गले मिलते हैं सब हँस के
मगर वो ही नहीं है दास्ताँ जिसको सुनानी है

वही तनहाई का आलम वही यादों की परछाईं
वही रो-रो के सो जाना, बनी आदत पुरानी है

सभी की हैं जुदा मंज़िल, सभी की हैं जुदा राहें
यहाँ दुनिया में अपनी राह सबको खु़द बनानी है

ख़लिश गुल ऐसे लाकर दो कि जो खारों से हों पिनहाँ
मुझे एहसासे-मसर्रत की अब अर्थी सजानी है.


पिनहाँ = गुप्त, छिपा हुआ
मसर्रत = हर्ष, आनन्द, ख़ुशी




४८. क्यों दाग़ दिल के दिखा रहे हो

क्यों दाग़ दिल के दिखा रहे हो
नुमाइशे-ग़म लगा रहे हो

है कौन जो इनको पौंछ लेगा
क्यों मुफ़्त आँसू बहा रहे हो

नहीं सुनेगा जहाँ में कोई
क्यों हाल जब्रन सुना रहे हो

ग़मों के मारे तुम्हीं नहीं हो
क्यों शोर इतना मचा रहे हो

लकी़र हाथों में खिंच चुकीं हैं
वही अभी तक निभा रहे हो

जो अब नहीं है क्यों याद करके
यूँ ज़ुल्म अपने पर ढा रहे हो

मिल जायेगा हमसफ़र नया इक
जिये अकेले क्यों जा रहे हो

ख़ता ख़लिश कोई कर गया तो
सज़ा भला तुम क्यों पा रहे हो.

जब्रन = ज़बरदस्ती, हठात्, बलात्




४९. वो पास मेरे इस तरह आता चला गया

वो पास मेरे इस तरह आता चला गया
एहसास दूरियों का कराता चला गया

दिल में न कुछ जगह थी मेरे लिये लेकिन
बाहर से फ़कत प्यार दिखाता चला गया

मानिंद इक नाज़ुक परी- सी दिख रही थी वो
क़िस्मत पे अपनी खूब इठलाता चला गया

नायाब हीरा इश्क़ में हासिल मुझे हुआ
ये राज़ ज़माने को बताता चला गया

जो एक दिन टूटा भरम पाया ख़लिश मैंने
इक बेवफ़ा पे दिल को लुटाता चला गया.





५०. मुझे दुनिया में जीने का बहाना कोई तो होता

मुझे दुनिया में जीने का बहाना कोई तो होता
चलाता तीर तो मैं भी, निशाना कोई तो होता

मुझे भी कोई अपना हमसफ़र मिल जाता राहों में
सफ़र के वास्ते मौसम सुहाना कोई तो होता

कोई होता तसव्वुर में तो ये तनहाई कट जाती
जलाता याद की शम्म, पुराना कोई तो होता

कोई अपना कभी होता तभी तो छोड़ कर जाता
न होता वस्ल, फ़ुर्कत का ज़माना कोई तो होता

चलो पूरी हुयी जैसे भी है ये उम्र चुकती है
रहेगा ग़म ख़लिश कि आशियाना कोई तो होता.


वस्ल = प्रेमी और प्रेमिका का संयोग, मिलन
फ़ुर्कत = वियोग, विरह, जुदाई





५१. दिलबर की याद ने मुझे शाइर बना दिया


दिलबर की याद ने मुझे शाइर बना दिया
जज़्बात की शिद्दत ने करिश्मा दिखा दिया

शेरो-सुखन-ओ-बज़्म से अनजान था कभी
दिल में गज़ल का इक चराग़ सा जला दिया

सदके तेरे नग़्मात-ओ-नज़्मात की दुनिया
तनहाई में जीने का जो रस्ता बता दिया

अन्दाज़े-शाइरी ने तसव्वुर में बिठा कर
जब चाहे नग़्मा उनको सुनाना सिखा दिया

ता-ज़िंदगी के वास्ते ग़म दे गये ख़लिश
पर ग़म गलत करने का तरीक़ा जता दिया.

सुखन = वार्ता, वार्तालाप, कविता, काव्य, शेर, शाइरी
बज़्म = सभा, गोष्ठी, महफ़िल



५२. मैं दूर हुआ क्योंकर उनसे अब इतनी दूर चला आया


मैं दूर हुआ क्योंकर उनसे अब इतनी दूर चला आया
न सूरत उनकी दिखती है न दिखता है उनका साया

यूँ तो वे मेरे अपने हैं, ख़्यालों में हर दम रहते हैं
ख्वाबों में उनको देखा तो दिल हलके से क्यों शर्माया

ना कोई निशानी छोड़ गये ना पास रहे अब वो मेरे
कुछ यादें अब भी बाकी हैं उनका ही है ये सरमाया

कुछ लमहे तल्ख़ बिताये थे पर दोष किसी को क्या दीजे
दोनों ही थे नादान बहुत, बस इक दूजे को तरसाया

उल्फ़त की राहों में बन के हमसफ़र नहीं पाया कुछ भी
बस अक़्सर सोचा किये यही किसने किसका दिल तड़पाया

वो आज नहीं हैं लेकिन अब लगते हैं ग़म उनके प्यारे
क्या कीजे उनकी याद ख़लिश, पग पग पर इसने भरमाया.


सरमाया = पूँजी, धन-दौलत
तल्ख़ = कड़वा, कटु, अरुचिकर, नागवार


५३. एक याद है जो दिल में रह-रह कर आती है

एक याद है जो दिल में रह-रह कर आती है
तनहा आलम में जो तड़पा कर जाती है

आँखों में कोई सूरत उभरे है धुंधली-सी
पहचान मगर उसकी अक़्सर भरमाती है

इक पल को हँसता है, दूजे पल रोता है
ये दिल दीवाना है या फिर जज़्बाती है

इक लमहा सूखे है, इक लमहा बहता है
इन चश्मों में कोई चश्मा बरसाती है

माज़ी के अंधेरे में चमके है बिजली सी
कोई बात गये दिन की तूफ़ान उठाती है

यादो अब थम जाओ ना ख़लिश सताओ यूँ
हर याद नये ग़म का बाइस बन जाती है.

चश्म = नेत्र, नयन, आँख
चश्म: = सोता, स्रोत, सरिता, छोती नदी, कुंड, ऐनक
माज़ी = गुज़रा हुआ, भूतकाल, विगत
बाइस = कारण, हेतु, निमित्त, सबब





५४. मेरे पास रखा क्या है अब आने में
मेरे पास रखा क्या है अब आने में
कमी नहीं कलियों की तुम्हें ज़माने में

रंग न रूप न गंध बचा है अब बाकी
क्या है अपना असली रूप छिपाने में

सूखे पत्ते से कब तरु को प्यार हुआ
गिर जायेगा किंचित डाल हिलाने में

सूरज चन्दा युग-युग से बेमेल रहे
कुछ तो तुक हो मिलकर साथ निभाने में

फूल छोड़ कर काँटों को क्यों चुनते हो
तुमको जीना है संसार सुहाने में

साथ बदा था ख़लिश हमारा इतना ही
व्यर्थ करो मत जीवन इसे बढ़ाने में.



५५. जब याद तुम्हारी आती है जैसे इक तूफ़ाँ आता है

जब याद तुम्हारी आती है जैसे इक तूफ़ाँ आता है
एक धुँधला सा चेहरा दिल के आईने में छा जाता है

वो ज़ुल्फ़ें, आरिज़, वो नज़रें, वो चाल, अदा मुस्काने की
जैसे कोई गैबी जादू हो, दिल को मेरे भरमाता है

क्या दिन थे जब हम दोनों ही दुनिया से छिपकर मिलते थे
उस मंज़र का ख़्याल आये तो ये दिल अब भी शरमाता है

जब तुम्हें तसव्वुर में ला कर मैं ख्वाबों में खो जाता हूँ
कोई साज़ कहीं पर बजता है, भूली सी तान सुनाता है

मालूम किसे था इस ढंग से वो बात तुम्हारी सच होगी
जाने क्यों ख़लिश कहा तुमने बस दो दिन का ये नाता है.

आरिज़ = कपोल, गाल, रुखसार
गैबी= आकाशीय, आस्मानी, दैवी, ख़ुदाई





५६. आये वो ज़िन्दगी में और आकर चले गये

आये वो ज़िन्दगी में और आकर चले गये
इस दिल में शम्म अपनी जलाकर चले गये

दिल में है शम्म और परवाना है मेरा दिल
कैसा तिलस्म हाय सजाकर चले गये

कि़स्मत में है सहरा हमारी, जानते थे हम
क्यों हम को सब्ज़ बाग़ दिखाकर चले गये

आबाद उनके नाम से हमने किये थे ख़्वाब
क्या मिल गया उन्हें जो मिटाकर चले गये

माँगी थी हम ने प्यार की बस रौशनी ख़लिश
वो ज़िंदगी में आग लगाकर चले गये.

सह्रा (सहरा) = जंगल


५७. हम राज़ बयाँ क्या कीजे अब ना वक़्त रहा ना राज़ रहा

हम राज़ बयाँ क्या कीजे अब ना वक़्त रहा ना राज़ रहा
हैं सिर्फ़ बचीं कुछ दीवारें, ना तख्त रहा ना ताज रहा

चुक गयी कभी की वो महफ़िल, अब दाद नहीं इरशाद नहीं
हम हैं कि तराना गाते हैं, साज़िन्दा है ना साज़ रहा

पहलू में कभी हमारे वो हँस-हँस के रात बिताते थे
अब इक लमहा भी भारी है, ना प्यार न वो अन्दाज़ रहा

इन प्यार की राहों में हमको हमसफ़र मिला, ना हुआ सफ़र
इब्तिदा हुई, मंज़िल न मिली, आगाज़ महज़ आगाज़ रहा

शाइर बन कर पछताओगे, कहता था ख़लिश ज़माना सब
दिन रात ग़ज़ल लिखते हैं अब, ना काम रहा ना काज रहा.

साज़ = वाद्य यंत्र, बाजा
साज़िन्दा = बाजा बजाने वाला




५८. कारवाँ भी ना रहा और गुबार ना रहा

कारवाँ भी ना रहा और गुबार ना रहा
ज़िन्दगी हमें तेरा ऐतबार ना रहा

एक जो था हमसफ़र, वो भी अब बिछुड़ गया
ग़मगुसार ना रहा, राज़दार ना रहा

मुफ़्लिसी जो आ गयी, ख़त्म महफ़िलें हुयीं
दोस्तों में नाम भी अब शुमार न रहा

जान ली हकी़क़तें दास्ताने-इश्क़ की
बू-ए-ज़ुल्फ़ का हमें अब खु़मार न रहा

इस तरह लिपट गया साया बेवफ़ाई का
मेरा प्यार भी ख़लिश मेरा प्यार ना रहा.


ग़मगुसार = ग़मख़्वार = सहानुभूति करने वाला, हमदर्द
राज़दार = राज़दाँ = भेद जानने वाला, मर्मज्ञ, रहस्यज्ञ
मुफ़्लिसी = दरिद्रता, निर्धनता, कंगाली, ग़रीबी



५९. आँख से आँसू जो मेरी बह गये

आँख से आँसू जो मेरी बह गये
दास्ताने-ज़िंदगी इक कह गये

छोड़ बैठा हूँ सभी अरमाँ मगर
कुछ मगर दिल में अभी तक रह गये

कुछ हुयी तकलीफ़ तो मुझको ज़रूर
पड़ गयी आदत सभी ग़म सह गये

था जिन्हें दिल में बिठाया प्यार से
पीठ में खन्जर चुभोकर वह गये

ख़्वाब के देखे महल तूने ख़लिश
ताश के पत्तों की माफ़िक ढह गये.



६०. न दर्द समाँये जब दिल में, आँखों से बाहर आता है

न दर्द समाँये जब दिल में, आँखों से बाहर आता है
पर मेरे अश्कों पर कोई क्यों दूर खड़ा मुस्काता है

पहले मुझको दुख देता है, जब रोता हूँ वो ही मुझको
रोने से क्या हासिल होगा, ये कह करके समझाता है

मैंने तो कुछ न माँगा था पर आस संजोयी थी दिल में
वो भी अब टूट गयी मुझको बस ख्याल यही तड़पाता है

कुछ और समय बीतेगा तो मन भी पत्थर हो जायेगा
ये घाव अभी ताज़ा है, हल्की चोट लगे रिस जाता है

क्यों ख़लिश उम्मीदों के बल पर तू बाग़ सजाये सपनों के
बगिया का माली नहीं रहा, आँसू बेकार बहाता है.



© Copyright 2009 Dr M C Gupta (mcgupta44 at Writing.Com). All rights reserved.
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