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Second part of Hindi poems in Hindi script, mainly ghazals, from 701-1225.
#626968 added December 31, 2008 at 6:17am
Restrictions: None
Poems / ghazals , no. 1126- 1150 in Hindi script

११२६. परदेस गये बालम अब लौट के आयेंगे --२८ अक्तूबर २००७ की गज़ल, ई-कविता को ३० अक्तूबर २००७ को प्रेषित

परदेस गये बालम अब लौटके आयेंगे
ले ले के बलैय्यां हम कुर्बां हो जायेंगे

मिलने को बहुत उन से बेचैन तो हैं लेकिन
जी भर के उन्हें पहले हम खूब सतायेंगे

यूं तो काटीं सदियां, दिन चार नहीं कटते
जिस राह से वो गुज़रें, नज़रों को बिछायेंगे

दुखड़े तनहाई के और लाख गिले शिकवे
मिलने की खुशी के संग रो- रो के सुनायेंगे

क्या वो भी समां होगा आंखों में भरे आंसू
साजन को ख़लिश अपने सौ तरह मनायेंगे.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
३० अक्तूबर २००७






११२७. हम ने जो उन्हें देखा आंखों के झरोखे से --२९ अक्तूबर २००७ की गज़ल, ई-कविता को ३० अक्तूबर २००७ को प्रेषित

हम ने जो उन्हें देखा आंखों के झरोखे से
हम को वो लगे सारी दुनिया से अनोखे से

तारीफ़ भले उन की न करे ज़माना ये
नज़रों में हमारी वो इंसान हैं चोखे से

अन्दाज़ेबयां उन के ज्यादा ही निराले हैं
महलों के तो मालिक हैं पर महल हैं खोखे से

बातें तो बहुत प्यारी करते हैं मगर फिर भी
लगता है कभी हम को रहते हैं वो ओखे से

हम ख़लिश लुटाते हैं जान और ज़िगर उन पे
चुपके से मगर बोसे लेते हैं वो धोखे से.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
३० अक्तूबर २००७






११२८. सुख सपने सारे भूल गया --३० अक्तूबर २००७ की गज़ल, ई-कविता को ३० अक्तूबर २००७ को प्रेषित

सुख सपने सारे भूल गया
यूं लुटा, ब्याज और मूल गया

विष भरा शब्द एक था ऐसा
भीतर तक मानो शूल गया

पा कर के हवा प्रशंसा की
गुब्बारे जैसा फूल गया

जाते जाते भी मीत मेरा
दे कर के मुझ को तूल गया

सुन कर बंसी की तान ख़लिश
मन कालिन्दी के कूल गया.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
३० अक्तूबर २००७






११२९. दिल समझता है अभी जवान है --३१ अक्तूबर २००७ की गज़ल, ई-कविता को ३१ अक्तूबर २००७ को प्रेषित

दिल समझता है अभी जवान है
बिन वज़ह इस को हुआ गुमान है

बाल काले कर रहा, इतरा रहा
बन रहा बिन बात ही नादान है

स्याह और सफ़ेद में उलझ रहा
मुफ़्त में ही खो रहा ईमान है

है बुढ़ापे में नहीं शर्मिन्दगी
उम्र में ही सब गुणों की खान है

मशरिकी तहज़ीब ज़ईफ़ों से है
क्यों ख़लिश इस से जहां अनजान है.

मशरिकी तहज़ीब – पूर्वी संस्कृति
ज़ईफ़ -- वृद्ध

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
३१ अक्तूबर २००७
=========
from mouli pershad <cmpershad@yahoo.com>
date Nov 1, 2007 10:21 PM

kyaa baat hai guptaji, zayifi mein bhi baal kale! kya mendaki ko bhi huwa zukaam hai.

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११३०. मैं भी अज़ीब किस्म का इंसान हो गया --४ नवम्बर २००७ की गज़ल, ई-कविता को ४ नवम्बर २००७
को प्रेषित


मैं भी अज़ीब किस्म का इंसान हो गया
यूं मार गुरबत की पड़ी हैवान हो गया

नेकी निभा के रोटियां भी न मिलीं मुझे
जब भूख पेट में लगी शैतान हो गया

ईमानदारी को ज़माना ये न सह सका
तो मैं भी आंख फेर बे-ईमान हो गया

सीधा या मैं टेढ़ा चलूं, आता रहा खयाल
दिल की परेशानी का ये सामान हो गया

न ही खुदा मिला न मिलीं दौलतें ख़लिश
पूरा जो हो सका न वो अरमान हो गया.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
३१ अक्तूबर २००७






११३१. ऐसा भी कभी हो जाता है, कोई राहों में मिल जाता है --३ नवम्बर २००७ की गज़ल, ई-कविता को ३ नवम्बर २००७
को प्रेषित

ऐसा भी कभी हो जाता है, राहों में कोई मिल जाता है
अपने धोखा दे जाते हैं, अनजाना साथ निभाता है

जिन कड़वे मीठे रिश्तों से जीवन में हम टकराते हैं
पिछले जन्मों के बन्धन से कोई उन का गहरा नाता है

कल तक तो काले धन्धों के बूते पर खूब कमाता था
क्यों आज खुदा की मार पड़ी, इंसान समझ न पाता है

ये महलों में रहने वाले मिट्टी में सब मिल जायेंगे
तारीख का हर पन्ना ये ही इंसां को राज़ बताता है

क्या करना हम को वाज़िब है, क्या करने से होगा नुक्सां
भीतर बैठा है ख़लिश कोई जो सब गुण दोष सिखाता है.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
३१ अक्तूबर २००७





११३२. कोई कहे मकता बढ़िया है कोई कहे मतला --१ नवम्बर २००७ की गज़ल, ई-कविता को १ नवम्बर २००७
को प्रेषित

कोई कहे मकता बढ़िया है कोई कहे मतला
मैंने तो दिल के ख्यालों को सहज दिया जतला

बहर, वज़न अरकान बहुत भारी पड़ते मुझ को
मन कहता है सादा लिख, मत बहुत हुनर दिखला

इसी शर्त पर आयेंगी, यादों का वादा है
सीधा सादा हमें बयां कर, लफ़्फ़ाज़ी मत ला

एहसासों की गहराई होगी तो झलकेगी
चाहे पढ़े तरन्नुम में तू चाहे पढ़ हकला

जनता का शायर बनना है तो फिर जनता की
भाषा में ही ख़लिश दुखे दिल के दुखड़े बतला.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
१ नवम्बर २००७
००००००००००००

from "Dr.Kavita Vachaknavee" <kvachaknavee@yahoo.com
date Nov 1, 2007 11:30 AM
वाह, खलिश जी! एक अलग अन्दाज की रचना है। सहजता ने प्रभावित किया।

वैसे पता नहीं कि आप मेरी इस प्रतिक्रिया को भी देख पाएँगे या नहीं; क्योंकि मेरा यह अनुभव है कि जब भी आप की रचना पर लिखा है, आपके ‘मेल’ अकसर तभी इधर-उधर हो जाते हैं और आपकी नजर से चूक जाते हैं। (बकौल आपके एक मेल। आपने रेखांकित किया था तब से मैंने भी नोटिस किया है। )
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from Ghanshyam Gupta <gcgupta56@yahoo.com

date Nov 1, 2007 5:19 PM
महेश जी,
रचना सं० ११३२ पर कविता वाचक्नवी जी की प्रतिक्रिया से मैं पूर्णरूपेण सहमत हूं।
- घनश्याम
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११३३. ज़ुल्फ़-ओ-बाहों में सुकूं मिलता नहीं --२ नवम्बर २००७ की गज़ल, ई-कविता को ३ नवम्बर २००७
को प्रेषित


ज़ुल्फ़-ओ-बाहों में सुकूं मिलता नहीं
हैं बहारें, दिल मगर खिलता नहीं

दिल तो है वो ही मगर बूढ़ा हुआ
अब इसे राग और रंग झिलता नहीं

घाव जो माज़ी में था दिल पे लगा
है अभी भी, पर सहज छिलता नहीं

जाने वाला आयेगा फिर एक दिन
ख्याल ये दिल से मेरे हिलता नहीं

मान बैठा हार हूं अब तो ख़लिश
कोशिशों से चाक दिल सिलता नहीं.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
१ नवम्बर २००७




११३४. हम भी हैं तालिबों में इल्म-ए-नज़्म के शुमार – बिना तिथि की गज़ल, ई-कविता को १ नवम्बर २००७
को प्रेषित

हम भी हैं तालिबों में इल्म-ए-नज़्म के शुमार
है शुक्रिया कि आप ने देखा तो एक बार

वारूं गज़ल हज़ार आप की मिले जो दाद
आंसू जो पौंछें आप तो हो जाऊं अश्कबार

पी थी कभी नज़रों से यूं बेहोश हो गये
बीती है उम्र आज तक उतरा नहीं खु़मार

हम आप ही मर्ज़ी से हुए कैद हैं जैसे
ले ले गिरफ़्त में कहे सैय्याद से शिकार

जिस की निशानी रंग ज़र्द, आह सर्द है
हम हैं ख़लिश ऐसे हसीन मर्ज़ के बिमार.

तालिब = शिष्य
इल्म-ए-नज़्म = कविता लिखने का ज्ञान
अश्कबार = रोने वाला
सैय्याद = शिकारी

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
१ नवम्बर २००७





११३५. मेरे बलमा बड़े हुशियार, बस में न आयें – बिना तिथि का गीत, ई-कविता को १ नवम्बर २००७
को प्रेषित

मेरे बलमा बड़े हुशियार, बस में न आयें
मैं विनती करूं सौ बार, बस में न आयें

रात रात भर जागी रोई
साजन सिवा न और सुध कोई
कर बैठी सोलह सिंगार, बस में न आयें
मेरे बलमा बड़े हुशियार, बस में न आयें

बहुत संभाला अपने मन को
आग लगे इस गोरे तन को
मेरा जीना हुआ बेकार, बस में न आयें
मेरे बलमा बड़े हुशियार, बस में न आयें

लाख जतन कर के मैं हारी
ताना देतीं सखियां सारी
नहीं किया मुझे स्वीकार, बस में न आयें
मेरे बलमा बड़े हुशियार, बस में न आयें

एक बार साजन जो आते
देखूं फिर कैसे वो जाते
गलबैय्यां देती डार, बस में न आयें
मेरे बलमा बड़े हुशियार, बस में न आयें.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
१ नवम्बर २००७







११३६. मैंढकी को भी हुआ ज़ुकाम है – बिना तिथि की गज़ल, ई-कविता को १ नवम्बर २००७
को प्रेषित

मैंढकी को भी हुआ ज़ुकाम है
आज ये बीमारी सरेआम है

है चला खरीदने वो कोहिनूर
जेब में जिस की न इक छदाम है

दिल के बदले दिल, खरा सौदा है ये
दौलतों का न यहां कुछ काम है

वो हमें ही कह रहे हैं बेवफ़ा
आज पाया हम ने ये ईनाम है.

यूं तो हैं वो मस्त, सारे ग़म से दूर
जाने क्यों रखा खलिश ये नाम है.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
१ नवम्बर २००७






११३७. दिल मेरा न जाने क्यों मेरा ही दुश्मन हो गया --५ नवम्बर २००७ की गज़ल, ई-कविता को ५ नवम्बर २००७
को प्रेषित

दिल मेरा न जाने क्यों मेरा ही दुश्मन हो गया
न कली, न गुल कोई, वीरान गुलशन हो गया

न कोई दिल में खुशी है न कोई है ग़म मुझे
ज्यों मेरे ख्यालों में अहसासों का अनशन हो गया

ये बिमारी कब तलक धोखे में रखेगी मुझे
न मेरा जीना न मरना एक उलझन हो गया

तू सभी दुनिया के दुखों से बरी हो जायेगा
रूह में जिस रोज़ हलका सा स्पन्दन हो गया

झूठ हैं रिश्ते ख़लिश सब, ध्यान धर एक ईश में
आत्मा के वास्ते क्यों मोह बन्धन हो गया?

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
४ नवम्बर २००७






११३८. मैं केवल एक मुखौटा हूं -- हिन्द-युग्म के सामूहिक कविता लेखन 'काव्य-पल्लवन' के लिये ’मुखौटा’ शब्द पर रचित

मैं क्या हूं मुझ को पता नहीं नित नये रूप मैं धरता हूं
हर रोज़ नया मुखड़ा रंग कर मैं स्वांग नया नित करता हूं
मैं केवल एक मुखौटा हूं

दुनिया की आपा-धापी में खुद अपना आपा भूल गया
कोई मुझ को दे कर फूल गया, कोई मुझ को दे कर शूल गया
मेरा वज़ूद न ठुकरा दो मैं इसी बात से डरता हूं
मैं विजय पराजय दोनों को स्वीकार सहज ही करता हूं
मैं केवल एक मुखौटा हूं

मैं देही हूं पर देह समझ खुद से ही अनजाना रहता
गर्मी-सर्दी, जल-वायु का नाहक प्रकोप मैं हूं सहता
देह का अस्तित्व नहीं कोई, लेता हूं जन्म और मरता हूं
जो समा रहा है कण-कण में बस ध्यान उसी का करता हूं
मैं केवल एक मुखौटा हूं

मुझ से गलती हो जाये तो तुम बैर नहीं करना मुझ से
इंसां हूं पैर फ़िसल जाये तो घृणा नहीं करना मुझ से
दुख देता हूं मैं और कभी औरों के दुखड़े हरता हूं
जैसे तैसे इस दुनिया में मैं जीवन-यापन करता हूं
मैं केवल एक मुखौटा हूं.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
५ नवम्बर २००७







११३९. सब रास्ते बिखर गये मैं भी बिखर गया --६ नवम्बर २००७ की गज़ल, ई-कविता को ६ नवम्बर २००७ को प्रेषित --RAMAS

सब रास्ते बिखर गये मैं भी बिखर गया
मंज़िल का था जो रास्ता जाने किधर गया

मैं जिस मुकाम से चला वहीं पे आ गया
बेकार ज़िंदगी का आज तक सफ़र गया

न यार से मिलना मेरा इक बार हो सका
करने को मैं दीदार जहाँ से गुज़र गया

सोचा था मेरी है वो मेरे पास आयेगी
पहलू में देख ग़ैर के उस~को सिहर गया

जब मयकदे से न मिली उधार की शराब
कहते हैं लोग लो ख़लिश भी अब सुधर गया.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
५ नवम्बर २००७

००००००००००००००००

Ghanshyam Gupta <gcgupta56@...wrote:

महेश जी,

बहुत अच्छी गज़ल है।

- घनश्याम
००००००००००००००

from pachauriripu <pachauriripu@yahoo.com

date Nov 6, 2007 4:20 PM

महेश जी,

यह गज़ल बहुत अच्छी लगी।

रिपुदमन पचौरी
०००००००००००००००





११४०. मैं बूढ़ा हो गया हूं किसलिये तुम पास आते हो

मैं बूढ़ा हो गया हूं किसलिये तुम पास आते हो
दिखा कर क्यूं झलक अपनी मुझे नाहक सताते हो

फ़कत इक फूल मुरझाया हूं जो अब खिल नहीं सकता
सुकूं है कौन सा जो तुम मेरे पहलू में पाते हो

मुझे अब ज़ुल्फ़-ओ-रुखसार से रहने दो अलहदा
फ़रिश्ता तो नहीं इंसान हूं क्यों आज़माते हो

ये सच है कि तबस्सुम तुम पे कुछ ज्यादा मेहरबां है
क्यों मेरे पास आ कर इक अदा से मुस्कराते हो

मेरे ख्यालों में मत आया करो होगी मेहरबानी
ख़लिश तुम जब भी आते हो बड़ी मुश्किल से जाते हो.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
५ नवम्बर २००७




११४१. मुझे ऐसे न सता मैं था तेरा प्यार कभी

मुझे ऐसे न सता मैं था तेरा प्यार कभी
आज अनजान सही मैं था तेरा यार कभी

आज क्या बात है कि मुझ से ख़फ़ा रहता है
मेरे पहलू में रहता था मेरा दिलदार कभी

आज आलम-ए-तनहाई मेरी किस्मत है
जी भर के किया उन का है दीदार कभी

मन्ज़िल है बहुत दूर चला जाता हूं मैं
मुझे राहों में मिले फूल कभी खार कभी

कुछ इस तरह घेरा है गर्दिशों ने ख़लिश
मुझे फ़ुर्सत के लमहे न मिले चार कभी.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
५ नवम्बर २००७





११४२. मैं अपने ही खयाल में बहता चला गया

मैं अपने ही खयाल में बहता चला गया
न जाने क्या कहा मगर कहता चला गया

मुझ को न थी ये फ़िक्र कि दुनिया कहेगी क्या
ताने मिले मगर उन्हें सहता चला गया

राह पे चलूं असूल की अरमान था मग़र
हर इक असूल दिन-ब-दिन ढहता चला गया


न और था कोई जो मुझे रास आ सका
मेरी निगाह में सिर्फ़ एक वह था, चला गया

मैं जानता था वो ज़हर देगा मुझे ख़लिश
फिर भी मैं उस के साथ ही रहता चला गया.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
५ नवम्बर २००७






११४३. है रात अभी आधी आधी और चान्द उठा आधा आधा – बिना तिथि की गज़ल, ई-कविता को ६ नवम्बर २००७
को प्रेषित

है रात अभी आधी आधी और चान्द उठा आधा आधा
मुझ में तुम में दोनों में ही उन्माद उठा आधा आधा

इस प्रणय गीत का गायन तो होना है शेष अभी प्रियतम
हलका हलका, धीरे धीरे, संवाद उठा आधा आधा

वीणा के तारों में स्पन्दन बढ़ने दो, राग तभी होगा
दिल की धड़कन का स्पर्शों में अनुवाद उठा आधा आधा

सीमा टूटी तो न जाने तूफ़ान बहा ले किस हद तक
जो अब तक था सम्बन्धों में अपवाद उठा आधा आधा

अब तुम्ही संभालो मुझ को भी और खुद भी चेतो समय रहे
जल थल कर देगा एक ख़लिश, आल्हाद उठा आधा आधा.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
६ नवम्बर २००७






११४४. मैं ज़िन्दगी के दांव-पेंच से था बेखबर—ई-कविता को प्रेषित

मैं ज़िन्दगी के दांवपेंच से था बेखबर
था आस-पास ज़ुर्म पर मुझ पे न था असर

शैतान के बन्दे दिखा रहे थे सब्ज़ बाग
मेरी असूल-ओ-दीन पर ही थी टिकी नज़र

गो आयीं थीं रुकावटें राहों में दम-ब-दम
मैं मन्ज़िलेमकसूद का करता रहा सफ़र

यूं तो कमी नहीं थी चमन में बहार की
जिस की मुझे तलाश थी वो न मिला शज़र

उम्मीद खो कर हार क्यों मानूं अभी ख़लिश
हासिल रहूंगा कर के मैं हयात का समर.

दीन = धर्म
मन्ज़िलेमकसूद = गन्तव्य लक्ष्य
शज़र = वृक्ष
हयात = जीवन
समर = फल


महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
६ नवम्बर २००७
००००००००००००००
from santosh kumar <ksantosh_45@yahoo.co.in>
date Nov 7, 2007 3:23 PM

Khalish Ji,
" Har kyon maNnu .........? Bilkul sach kaha aapane, Bahut achchee gajal hai. Vadhayee.
Santosh Kumar Singh
००००००००००००
from Praveen Parihar <p4parihar@yahoo.co.in>
date Nov 7, 2007 5:50 PM



खलिश जी,
बहुत बढीया ।

उम्मीद खो कर हार क्यों मानूं अभी ख़लिश
हासिल रहूंगा कर के मैं हयात का समर.

हर नखुदाया दिक्कतों पर एक शेर याद आता है

अच्छा, यक़ीं नहीं है तो किश्ती डुबो के देख
इक तू ही नाख़ुदा नहीं ज़ालिम, ख़ुदा भी है
-क़तील शिफ़ाई


प्रवीण
०००००००००००००००००००००






११४५. सच है कि ज़रूरत शायर को कुछ दाद मिले यह पड़ती है – बिना तिथि की गज़ल, ई-कविता को ६ नवम्बर २००७
को प्रेषित

सच है कि ज़रूरत शायर को कुछ दाद मिले यह पड़ती है
जब दाद मिले उस्तादों से तो दाद की कीमत बढ़ती है

यूं तो हर लफ़्ज़ सिताइश का हर लब से प्यारा लगता है
जो दानिश है उस के होठों से तो बहार ही झड़ती है

आम इंसां भी तारीफ़ करे तो हसीं बहुत लगती है पर
तारीफ़ मिले माहिर से तो वो चार चान्द ही जड़ती है

महफ़िल में इज़्ज़त होती है हर शायर की दिल से यूं तो
इरशाद मिले मुखिया से ग़र तो मांग और भी चढ़ती है

विस्तार बहुत है शायर को ग़र ख़लिश वह उड़ना चाहे
ऊपर है फ़ैला आसमान और नीचे उस के धरती है.

सिताइश = तारीफ़

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
६ नवम्बर २००७




















P११४६. एक नहर की कच्ची पुलिया पर हम शाम गुज़ारा करते थे – बिना तिथि की गज़ल, ई-कविता को ६ नवम्बर २००७ को प्रेषित

एक नहर की कच्ची पुलिया पर हम शाम गुज़ारा करते थे
कल कल बहते पानी का हम चुपचाप नज़ारा करते थे

बातों ही बातों में कैसे सूरज जाने छिप जाता था
वादा मिलने का चोरी से कल शाम दोबारा करते थे

जब आम सड़क पर मिल जाते थे आते जाते हम दोनों
अनजान बने एक दूजे से चुपचाप किनारा करते थे

कितने लमहे ऐसे बीते जब वक्त कहीं रुक जाता था
हम तुम्हें निहारा करते थे तुम ज़ुल्फ़ संवारा करते थे

भीगे से शिकवों और गिलों तक अकसर बात पहुंचती थी
हंस हंस के झूठे ताने भी बेबात गवारा करते थे

आवाज़ अचानक कोई तुम सुन कर जब घबरा जाते थे
हम तुम्हें बचाते गिरने से, तुम शुक्र हमारा करते थे

अब माज़ी में सब डूब गया क्या ख़लिश कीजिये यादों का
था वक्त कभी जब ख्वाबों में दीदार तुम्हारा करते थे.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
६ नवम्बर २००७




Ed


११४७. ज़िंदगी तो जल गयी, राख ढूंढता रहा --११ नवम्बर २००७ की गज़ल, ई-कविता को ११ नवम्बर २००७ को प्रेषित--RAMAS

ज़िंदगी तो जल गयी, राख ढूंढता रहा
नींद रोज़ छल गयी, आंख मूंदता रहा

रंग- रूप- गंध तो खो गये सभीमग़र
फूल कागज़ों के बार- बार सूंघता रहा

दिल लगा न काम में, न मिला आराम-चैन
सिर्फ़ बेख़बर- सा मैं उदास ऊंघता रहा

न चमन में साथ जब दिया मेरा बहार ने
गर्दिशों की खाक बदहवास खूंदता रहा

मत खुशी की आस कर, चाहिये अगर खु़शी
कान में ख़लिश मेरे पयाम गूंजता रहा.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
६ नवम्बर २००७





११४८. शायर का दिल भी क्या दिल है --१३ नवम्बर २००७ की गज़ल, ई-कविता को १३ नवम्बर २००७
को प्रेषित

शायर का दिल भी क्या दिल है
न उस की कोई मन्ज़िल है

औरों के अश्क बहाने में
एक शायर ही तो काबिल है

शायर है ऐसा इंसां जो
सब के दु:खों में शामिल है

जब डोले है मन की कश्ती
तब बने तराना साहिल है

ज़ंगी धुन लिख दे कलम अगर
शायर बन जाये कातिल है

दिल में एहसास न ग़म का हो
इंसान नहीं वो ज़ाहिल है

अब गज़ल नहीं बढ़ती आगे
हुयी क़लम ख़लिश की काहिल है.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
६ नवम्बर २००७




११४९. आज है दीपावली किस को नमन अपना करूं --८ नवम्बर २००७ की गज़ल, ई-कविता को ८ नवम्बर २००७
को प्रेषित [भाग १ के रूप में]


आज है दीपावली किस को नमन अपना करूं
पूज कर किस देव को संपूर्ण निज सपना करूं

आज पूजन लक्ष्मी का कर रहा संसार है
आज सोने और चान्दी का बहुत व्यापार है

आज मिष्टान्नों का दिन है सज रहे हैं घर सभी
व्यक्त खुशियां कर रहे हैं आज नारी-नर सभी

आज भूखे पेट भी कुछ पांव हैं जो चल रहे
देखते हैं वे ठिठक जो बम पटाखे जल रहे

आज मन में उठ रहा उन के यही इक प्रश्न है
क्यों ग़रीबी एक को और एक को मधु-स्वप्न है

एक निर्धन क्या उसी भगवान की सन्तान है
दे रहा जो अन्य को सब भांति धन-सम्मान है

रौशनी की इन्तहा है आज धनवानों के घर
तेल दीपक में नहीं कुछ आज बेचारों के घर

एक मसला उठ रहा जो हर ज़हन में आज है
आज कैसा हिन्द में जम्हूरियत का राज है

दोस्त तुम दीपावली चाहे मनाओ रात भर
तुम पटाखे लाख रुपयों के चलाओ रात भर

मैं तुम्हारे जश्न में शामिल न पर हो पाऊंगा
आज भी बच्चे हैं भूखे, सोच न सो पाऊंगा.

जम्हूरियत = प्रजातन्त्र

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
७ नवम्बर २००७




११५०. आये दिवाली मंगल लाये--८ नवम्बर २००७ की गज़ल, ई-कविता को ८ नवम्बर २००७
को प्रेषित [भाग २ के रूप में]


आये दिवाली मंगल लाये
भूखा भी अन्न और जल पाये

जश्न मनाये जग ये सारा
मिटे झौंपड़ी का अंधियारा

हो कोई मस्त पिये जब हाला
मिटे पेट की कोई ज्वाला

कोई पचा न पाये मिठाई
कोई घर चूल्हा चढ़े न भाई

क्या दीवाली दोस्त मनाऊं
कैसे जन मन दुख हर पाऊं.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
७ नवम्बर २००७


© Copyright 2008 Dr M C Gupta (UN: mcgupta44 at Writing.Com). All rights reserved.
Dr M C Gupta has granted Writing.Com, its affiliates and its syndicates non-exclusive rights to display this work.
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