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Rated: E · Book · Cultural · #1510442
Third part of Hindi poems in Hindi script, mainly ghazals, Serial no. 1226--1775
#627004 added December 31, 2008 at 9:44am
Restrictions: None
Poems / ghazals , no. 1501- 1525 in Hindi script




१५०१. देखो वो जा रहे हैं उठ के आज बज़्म से—RAS--ईकविता, २७ अप्रेल २००८

देखो वो जा रहे हैं उठ के आज बज़्म से
रिश्ते सभी वो कर रहे हैं आज खत्म से

हम ने तो उन से कुछ नहीं कहा था मग़र वो
शायद गुज़र गये थे पास किसी ज़ख्म से

जाने न देंगे हम उन्हें यूं अपने दिल से दूर
बुलाने उनको जायेंगे शिद्दत-ए-अज़्म से

नाराज़ हम से दिख रहे हैं इस कदर ज़नाब
मानेंगे शायद आज किसी ख़ास हज़्म से

कोशिश तो कर रहे हैं क्या अंज़ाम हो ख़लिश
उन को मना रहे हैं आज एक नज़्म से.

अज़्म = संकल्प, निश्चय, इरादा, दृढ़ निश्चय, ख्वाहिश
शिद्दत = प्रचंडता, तीव्रता, तेज़ी
हज़्म = दक्षता, कुशलता, होशियारी, सावधानी, दूरदर्शिता

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
२४ अप्रेल २००८





एद






१५०२. मंज़िलें खिसक गयीं, राह देखते रहे –RAS--ईकविता, २४ अप्रेल २००८

मंज़िलें खिसक गयीं, राह देखते रहे
शुष्क हौंठ ले के जल प्रवाह देखते रहे

जब चले थे चारों थीं दिशा मुझे बुला रहीं
प्रेम की पुकार थीं सभी तरफ़ से आ रहीं
पुष्प वाटिका में थी सुगन्ध एक मद भरी
तितलियां थीं मन मेरा हर तरह सेलुभा रहीं

किंतु पुष्प झड़ गये, रास्ते बिखर गये
क्रूर खार कोटि कोटि पंथ में पसर गये,
ताल जल विहीन था, जाल फैंकते रहे
मंज़िलें खिसक गयीं, राह देखते रहे

मैं किसी की साधना में चल दिया खिंचा खिंचा
भावना उदात्त थी, भाग्य था भिंचा भिंचा
सोचता था मंज़िलें पास आयेंगी मेरे
उठ रहा था हर कदम आस से सिंचा सिंचा

दर्द न पता था यूं ज़िन्दगी में आयेगा
गर्द गर्दिशों का यूं हर ख़ुशी पे छायेगा
जल रहा था घर मग़र हाथ सैंकते रहे
मंज़िलें खिसक गयीं, राह देखते रहे

कोई न रहा मेरा थामता जो हाथ को
मैं तड़प के रह गया इक हसीन साथ को
किसलिये किसी से मैं बिन वज़ह करूं गिला
आज दोष दे रहा हूं भाग्यहीन माथ को

दोस्त आखिरी मेरी आह देखते रहे
मंज़िलें खिसक गयीं, राह देखते रहे

शुष्क हौंठ ले के जल प्रवाह देखते रहे
ताल जल विहीन था, जाल फैंकते रहे
जल रहा था घर मग़र हाथ सैंकते रहे
दोस्त आखिरी मेरी आह देखते रहे
मंज़िलें खिसक गयीं, राह देखते रहे.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
२४ अप्रेल २००८












१५०३. हे नवयुग के नूतन कवि तुम्हें नमन मेरा – RAS--ईकविता, २५ अप्रेल २००८

हे नवयुग के कवि तुम्हें नमन शत बार मेरा
हे नव कविता के निर्माता हे कर्णधार
युग युग की रूढ़िवादी कविता की धारा
को नई दिशा दे कर के आज उबारा है

कितने सहस्र छंदों के मात्रा के प्रकार
जो समझ न आये कितने ही विद्वानों को
उन को तुम ने बन सुभट पछाड़ा है रण में
और अतुकान्त कवि बना दिया है कितनों को

तुम न होते तो कौन मुक्त करता कविता
मात्रा छंदों के दकियानूसी बंधन से
अब मुक्त छंद की नयी विधा को अपना कर
हैं पुलकित होते नूतन कवि अभिनंदन से

तुम ने जब जब अवतार लिया कविता कांपी
पर तुम ने साहस कभी नहीं खोया अपना
कविता का चीरहरण करने का जो पाला
वो पूरा कर के रहे महाकवि तुम सपना.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
२५ अप्रेल २००८
०००००००००००००००
From: "bhupal sood" <ayan_bhupal@yahoo.co.in>
Date: Fri, 25 Apr 2008 15:19:23 +0100 (BST)

bahut achha mahesh ji. aap to aashukavi hain. mahakavi bankar kya kijiyega. eise hi aap bahut achhe hain aur achha likhte hain. udbhat vidwano kolarne, bahsane dijiye
bhupal sood
०००००००००००००००
Friday, 25 April, 2008 5:39 PM
From: "pachauriripu" pachauriripu@yahoo.com

खलिश जी, बहुत सुन्दर।
जो अकसर आपकी कविता��"ं में खोजता हूँ, शायद वह सब इसमे मैंने पाया है।

रिपुदमन पचौरी

0000000000











१५०४. एक सांझ चली पिय से मिलने घर से इक नार अंधेरे में –RAS-- ईकविता, २५ अप्रेल २००८

एक सांझ चली पिय से मिलने घर से इक नार अंधेरे में
पग धरै धरा पे मदमाते मन लागा श्याम चितेरे में

जमना तट पर जब जाय रही तब दृष्टि पड़ी इक भेद भरी
सो शंका मन में व्याप गयी अब डांट परैगी फेरे में

न कोई सखी है संग मेरे कछु राय-मसविरा कर लैती
न जुगत कछु भी समझ परी मन के अवसाद घनेरे में

अकुलाती सी सकुचाती सी सोचै मन में अब क्या कीजै
सासू जी मो ते पूछैंगी जब दाबूं पांव सवेरे में

ऐसे में बंसी तान मधुर जो सुनी ख़लिश निश्चिंत भयी
जा चीर बचायो द्रौपदि को सो होई सहाय बखेड़े में.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
२५ अप्रेल २००८

००००००००००००००००००

Friday, 25 April, 2008 7:31 PM
From: "pachauriripu" pachauriripu@yahoo.com

खलिश जी .... मज़ा आ गया आज तो .... बहुत बढ़िया रचना है !!!

मेरी शुभकामानाएं
रिपुदमन पचौरी

००००००००००००००



१५०५. हैं हज़ार मुश्किलें, लाख हैं मज़बूरियां–RAS-- ईकविता, २८ अप्रेल २००८

हैं हज़ार मुश्किलें, लाख हैं मज़बूरियां
मैं मिटाना चाहता हूं, बढ़ रही हैं दूरियां

इक कदम उठाऊं तो गिरता हूँ पीछे दो कदम
यूं सफ़र-ए-ज़िन्दगी की चढ़ रहा हूं सीढ़ियां

कोई तो होता कि मेरा हाथ कभी थाम ले
राह है सुनसान और पैरों में हैं बेड़ियां

कोई वीरां में कहीं एक दिन खो जाऊंगा
किसलिये ढूंढें मुझे आयेंगी जो भी पीढ़ियां

माफ़ करना तुम मुझे अब जा रहा हूं मैं ख़लिश
जाने फिर लगाऊं कब मैं इस शहर में फेरियां.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
२७ अप्रेल २००८
००००००
From: "bhupal sood" <ayan_bhupal@yahoo.co.in
Date: Tue, 29 Apr 2008 01:41:49 +0100 (BST)

achhi rachn hai mahesh ji. dhanyavad.
par sirji ja kahan rahe hain?
bhupal sood
०००००००००००







१५०६. कोई ज़िन्दगी में आ गया, साथ इक लमहा निभा गया –RAS-- ईकविता, १८ मई २००८

कोई ज़िन्दगी में आ गया, साथ इक लमहा निभा गया
वो जब गया तो इस तरह कि दर्दे-दिल बढ़ा गया

मैंने दिया जो पास था, खींचा कभी न हाथ था
चाहा किसी से कुछ अग़र वो आंख ही दिखा गया

ख्वाहिश मुझे कोई नहीं, किसी से दुश्मनी नहीं
जिस को बनाया दोस्त वो, हर बार दे दग़ा गया

खायी है दिल पे चोट यूं, चाहूं अकेला अब रहूं
मेरी वफ़ा का बेवफ़ाई से वो दे सिला गया

क्या दुश्मनी क्या दोस्ती, रहना यहां है दो घड़ी
अब भूल जा सब ऐ ख़लिश, वक्ते-विदा अब आ गया.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
२८ अप्रेल २००८
00000000000
From: "krishna kanhaiya" <kanhaiyakrishna@hotmail.com>
Date: Sun, 18 May 2008 12:45:46 +0000
Khalish Saheb,

Badi Zabardasht Ghazal Hai.

Badhayee ho.

Krishna Kanhaiya
००००००००००००००
From: cmpershad@yahoo. com
Date: Sun, 18 May 2008 03:56:29 -0700
क्या दुश्मनी क्या दोस्ती, रहना यहां है दो घड़ी
अब भूल जा सब ऐ ख़लिश, तेरा वक्त कूच का आ गया.

अभी नहीं, अभी नहीं, अल्लाह आप को सौ साल की उम्र दे और आप कहें:
मैं ज़िंदगी का साथ निभाता चला गया
हर फ़िक्र को धुएं में उडा़ता चला गया !!!!!!!!!!!! !
००००००००००
From: "Sitaram Chandawarkar" <smchandawarkar@yahoo.com>
Date: Sun, 18 May 2008 19:24:48 -0700 (PDT)

खलिश साहब,
बहुत खूबसूरत ग़ज़ल है। बधाई! तलत महमूद साहब की एक पुरानी ग़ज़ल का शेर याद आई:
’वो एक छोटासा लमहा जो तेरे साथ गुज़रे
निशाते जाविदां है, और क्या है?’
सस्नेह
सीताराम चंदावरकर
==============
From: Anand Krishna, Jabalpur
Date: Mon, 18 May 2008

============ ========= ========= ========= =====

काफी दिनों बाद आप की ग़ज़ल पढी.. ...
जीवंत , और ऊर्जा से भरपूर ......... ....
बधाई.... ......

आनंद, जबलपुर
०००००००००००००००००








१५०७. जिया ज़िन्दगी लेकिन इक पल कभी न हो पाया है मेरा

जिया ज़िन्दगी लेकिन इक पल कभी न हो पाया है मेरा
आज एक और कल दूजे ग़म ने ही सदा लगाया डेरा

सोचा था मैं कभी रौशनी अपने जीवन में भर लूंगा
ऐसा लेकिन हुआ न संभव, महा तिमिर ने मुझ को घेरा

रेखाएं हाथों की, मस्तक की, कोई भी काम न आयीं
जन्म कुंडली, राशिफल न जीवन में कर सके सवेरा

मैंने आशा और कल्पना के पंखों से भरीं उड़ानें
सपना रहा मात्र इक सपना, जगते में भी रहा अंधेरा

जीवन ही अब चुका चाहता, किसे उलाहना, दोष किसे दूँ
सांप घुस गया वापस बिल में, बीन बजाता रहा संपेरा.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
२८ अप्रेल २००८





१५०८. नहीं जानता कैसे मन के उद्गारों को मैं बतलाऊं –ईकविता, २८ अप्रेल २००८

[राकेश खंडेलवाल जी के भाई के निधन समाचार पाने पर उद्गार]


नहीं जानता कैसे मन के उद्गारों को मैं बतलाऊं
बेहतर है मैं गज़ल कोई गा कर के ही यह मन बहलाऊं

एक कवि जब दूजे कवि के दुख से स्वयं दुखी हो जाये
करूं लेखनी को मैं लोचन अविरल धारा आज बहाऊं

भाग न पलटा कभी किसी का थमे न आंसू बहलाने से
मग़र पौंछ नयनों से अश्रु, कुछ तो अपनापन जतलाऊं

बहने दो इस जल धारा को मन को शांति मिलेगी इस से
इस प्रवाह में अवरोधक बन क्योंकर खलनायक कहलाऊं

ख़लिश रुदन में ही गायन है, यही कवि की सतत प्रेरणा
मैं भी आज बहा कर अश्रु, आहुति कुछ अपनी दे जाऊं.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
२८ अप्रेल २००८



१५०९. औरों ने लूटा मेरा दिल, मेरे दिल ने मुझ को लूटा

औरों ने लूटा मेरा दिल, मेरे दिल ने मुझ को लूटा
रहा न बाकी कुछ भी दिल का किस्सा ही लगता है झूठा

क्यों इलज़ाम किसी को दें हम, अपने दिल को क्योंकर कोसें
ऐसा लगता है ज्यों भाग हमारा ही है हम से रूठा

सब ने कितना समझाया था इस दिल को काबू में रखो
अब क्या रोना धोना भागा बैल तुड़ा कर के जब खूंटा

न मंज़ूर ज़माने को था, आंधी आयी उखड़ गया है
प्यार की बगिया में छोटा सा कभी लगाया था जो बूटा
गफ़लत में ही खोये रहे हम महल बना कर के ख्यालों के
ख़लिश खुली जो आंख तो पाया महल ढहे और सपना टूटा.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
२९ अप्रेल २००८




१५१०. जब ग़म की बदली छायी है तो सहर ख़ुशी की आयेगी –सुबीर जी को ५ मई को प्रेषित

जब ग़म की बदली छायी है तो सहर ख़ुशी की आयेगी
गो रात भरी है दर्दों से कब तक मुझ को तड़पायेगी

कहने को तो कमज़ोर हूं मैं लकवे का मारा मुफ़लिस हूं
दिल के परवाज़ की ऊंचाई शय कौन मग़र छू पायेगी

है पास मेरे क्या जो मुझ से ऐ दुनिया वालो छीनोगे
ले लोगे मेरी जान अग़र मेरी रूह तुम्हें सतायेगी

मेरा दिल उन में रमता है जो सोते हैं फ़ुटपाथों पर
महलों में रहने वालों की न मुझे दोस्ती भायेगी

तनहा हूं ख़लिश ज़माने में पर ख़ुदा साथ में है मेरे,
हर एक ज़माने की ताकत हारेगी जो टकरायेगी.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
५ मई २००८


१५११. पास नहीं है कोई लेकिन मीठी तान सुनाता है –ईकविता, १७ मई २००८

पास नहीं है कोई लेकिन मीठी तान सुनाता है
उभर कहीं से मन दर्पण में चित्र किसी का आता है
तनहाई के आलम में भी बज उठती है शहनाई
ऐसे भी पल होते हैं जब मौन मुखर हो जाता है

स्मृति-पटल पर अनजाने में सूरत इक छा जाती है
मन बन जाता चित्रकार नये रंग तूलिका लाती है
गुज़रे लमहों की यादें आंखों को नम कर जाती हैं
लगता है इन चश्मों में कोई चश्म छिपा बरसाती है

अपने माज़ी को अपने से अलग भला कैसे कर दूं
मन पूछेगा कहां गया तो क्या मैं इस का उत्तर दूं
माना बीत गया है सपना पर है यह अस्तित्व मेरा
वर्तमान न कोई भविष्य, भूत ताक पर क्यों धर दूं

कब तक मेरा एकाकीपन मुझ को और सतायेगा
हर तनहाई के लमहे में मेरा माज़ी आयेगा
माना कि बीती यादों से अश्कों की होगी बरसात
मुझे ख़ुशी देगा उतनी ही जितना मुझे रुलायेगा.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
५ मई २००८
तर्ज़—बुलबुल दे दे मुझे बबुलवा, मीठी तान सुनायेगी
००००००००००००
From: "parmod moudgil" <p2ptto@yahoo.com>
Date: Sat, 17 May 2008 04:03:38 -0700 (PDT)

अपने माज़ी.. अलग कर दूं -नामुमकिन है भाई
मन पूछेगा........

अति सुन्दर
श्याम
००००००००००००००००००


१५१२. जीवन की राहों पर मुझ को यूं ही चलते रहना है

जीवन की राहों पर मुझ को यूं ही चलते रहना है
कहीं धूप है कहीं छांव है दोनों को ही सहना है

गज़ल ज़िन्दगी की लिखता हूं ढूंढ काफ़िये किसी तरह
मतले से मकते तक का यह सफ़र मुझे तय करना है

मुझे ख़बर है वज़न मेरे मिसरों में नहीं बराबर है
पर मैं कैसे रुका रहूं मुझ को तो आगे बढ़ना है

मिला रदीफ़ मुझे कोई तो हाथ मिलाया है उस से
नहीं किसी ने साथ दिया तो ग़ैरमुरद्दफ़ लिखना है

मुझे रफ़ीकों और रकीबों में अब फ़र्क नहीं दिखता
मतलब के हैं सभी ख़लिश अब छोड़ सभी को मरना है.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
६ मई २००८



१५१३. चली आती है तेरी याद एक जलते शरारे सी

चली आती है तेरी याद एक जलते शरारे सी
नज़र में टिक गया जो उस किसी बीते नज़ारे सी

तेरी आंखों से आती है सदा कोई मेरी ज़ानिब
मेरी नाखत्म तनहाई में लगे है सहारे सी

किसी तूफ़ान में कश्ती मेरी जब डगमगाती है
तेरी सूरत तसव्वुर में दिखे कोई किनारे सी

सियाह रातों की तनहाई कभी छाती है जो दिल पे
तेरी आंखें लगें मुझ को चमकते दो सितारे सी

कोई तो बात है दिल में तेरे जो लब पे न आयी
अदा तेरी ख़लिश हर एक है कोई इशारे सी.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
७ मई २००८



१५१४. रब के खयाल आये तो आते चले गये

रब के खयाल आये तो आते चले गये
याद उस की रहमतों की दिलाते चले गये

यादों ने रब की दर्द मेरे सब भुला दिये
मौला मुझे हर ग़म से बचाते चले गये

मुमकिन नहीं था मुश्किलों से जूझ पाऊं मैं
कश्ती को मौला पार लगाते चले गये

नेकी करो सब से, रहो आलम-ए-बद से दूर
मौला मुझे पैग़ाम सुनाते चले गये

जब गर्दिशों ने कर दिया बेचैन रात दिन
मौला ही दिल का चैन बढ़ाते चले गये

दुनिया में रमा जब ख़लिश ऐ मौला शुक्रिया
रूहानी तुम अहसास कराते चले गये.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
७ मई २००८



१५१५. रात बाकी रह गयी

रात बाकी रह गयी
बात बाकी रह गयी

आ सकी न वो घड़ी
ख़ास बाकी रह गयी

जो उन्हें देनी थी वो
मात बाकी रह गयी

वक्त सारा चुक गया
घात बाकी रह गयी

वो समां न आयेगा
याद बाकी रह गयी

एक तनहाई मेरे
साथ बाकी रह गयी

सब ख़लिश बिछुड़ गये
ख़ाक बाकी रह गयी.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
७ मई २००८


१५१६. कुछ मन की बात छिपाते हैं

कुछ मन की बात छिपाते हैं
कुछ कहने से कतराते हैं

कुछ लोग चाहते हैं कहना
पर कहने से शरमाते हैं

कुछ नहीं ज़ुबां से कहते हैं
बस मंद मंद मुस्काते हैं

कुछ लब तो सी के रखते हैं
पर आंखों से कह जाते हैं

कुछ कहते कहते कहने से
कोई सोच वज़ह घबराते हैं

ये सूरत हैं सब जुदा जुदा
ख़ामोशी सभी जताते हैं

जो चुप हैं उन के नैन ख़लिश
सौ तरह भेद फ़रमाते हैं.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
७ मई २००८

१५१७. तुम कब तलक यूं असलियत से मुंह छिपाओगे

तुम कब तलक यूं असलियत से मुंह छिपाओगे
दुनिया की भाग-दौड़ से ख़ुद को थकाओगे

संसार माया जाल है झूठे सभी रिश्ते
सच्चाई ये अपने ज़हन में कब बिठाओगे

जिन को समझते हो तुम्हारे ख़ास अपने हैं
धोखा उन्हीं से तुम बड़े बेवक्त खाओगे

रहते समय तैय्यारियां तुम कूच की कर लो
आयेगी मौत तो बहुत आंसू बहाओगे

तुम दोस्ती कर लो ख़लिश अब तो रहीम से
क्यों भूल बैठे हो उसी के दर पे जाओगे.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
७ मई २००८




१५१८. जीवन भर जो जोड़ा तू ने, बेटा उसे लुटाएगा

जीवन भर जो जोड़ा तू ने, बेटा उसे लुटाएगा
धन दौलत की लिखी वसीयत, पाप किसे दे जायेगा

तेरे सुख के भागी थे सब दुख में पड़ा अकेला तू
यही नियम है दुनिया का कैसे इस से बच पायेगा

भाई बान्धव बेटा बेटी पत्नी आंख दिखायेंगे
लकवे का मारा बिस्तर में जब तू समय बितायेगा

चेत समय है बन्दे अब भी कर ले मन को तू वश में
भोगों की दलदल में फंस के अंत समय पछतायेगा

छोड़ मोह तू भज ईश्वर को वरना तेरी रूह ख़लिश
मुक्त न हो पायेगी जब वो जाने का दिन आयेगा.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
७ मई २००८




१५१९. मौला मेरे तू ही बता मैं किस तरह जिऊं

मौला मेरे तू ही बता मैं किस तरह जिऊं
जीते जी घूंट मौत का मैं किस तरह पिऊं

सुनता मेरी कोई नहीं सब को पड़ी अपनी
सब देख कर भी हौंठ अपने किस तरह सिऊं

पहरा है मुझ पे इस कदर चाहते हैं घर के लोग
अपने ही घर में चीज़ मैं कोई भी न छुऊं

तेरी इबादत में कभी न दिल को लगाया
है फ़िक्र तेरे सामने जाऊं तो क्या कहूं

कर दे करम ख़लिश कि चलूं तेरी राह पे
कदमों में तेरे ही रहूं जब तक यहां रहूं.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
७ मई २००८




१५२०. जिस दिन मेरा भगवान मेरे दिल में आ गया

जिस दिन मेरा भगवान मेरे दिल में आ गया
दुनिया के दर्दोग़म से मैं निज़ात पा गया

दरबार में हुज़ूर के देखी है ऐसी शान
मन को मेरे लिबास सादगी का भा गया

जब तक न पाया था उसे मग़रूर था ख़ुद पे
अब दिल पे मेरे नूर बस मौला का छा गया

चौखट पे सर रखा तो ऐसा हो गया कमाल
तेरा ही हो गया मैं तेरे दर पे क्या गया

साई करम करना मिटे आपा मेरे मन का
मुझ में बसा है मैं ख़लिश अब तक वो न गया.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
७ मई २००८






१५२१. आज कुछ भी नहीं है मेरे हाथ में, कोई हस्ती नहीं न कोई नाम है

आज कुछ भी नहीं है मेरे हाथ में, कोई हस्ती नहीं न कोई नाम है
आज पहना है बाना फ़कीरी मुझे इस जहां से बचा न कोई काम है

कोई ख्वाहिश नहीं कुछ ज़रूरत नहीं, दिल किया जिस जगह पर बना आशियां
रात भर मैं बिता के चला जाऊंगा ये सफ़र ही बना एक ईनाम है

जा रहा हूं कहां कोई परवाह नहीं न यहां है कोई न वहां है कोई
कोई ख्वाहिश नहीं कल सुबह तक जिऊं, रोज़ मुझ को लगे आखिरी शाम है

एक मौला के दर का मैं हूं मुंतज़िर, बस तमन्ना उसी की है बाकी बची
कोई मायूस हो कर के लौटा नहीं, ये मुरीदों में चरचा सुनी आम है

आज दे दो दरस मेरे साई मुझे थक गया हूं सफ़र कर चुका हूं बहुत
कोई मन्दिर न मस्जिद बची है ख़लिश, कोई तीरथ बचा न कोई धाम है.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
७ मई २००८



एद



१५२२. कुछ और ये दुनिया कहती है, कुछ और धरम सिखलाता है

कुछ और ये दुनिया कहती है, कुछ और धरम सिखलाता है
गीता कहती है मायावी संसार से झूठा नाता है

विषयों में तुम हो रमे हुए भगवान को तुम क्या पाओगे
जो इन्द्रिय-निग्रह करता है, आनन्द वही नर पाता है

इच्छाएं पूरी करने में ही सारा जीवन बीत गया
इच्छा न चुकी पर उम्र चुकी, अब भी क्यों मन भरमाता है

न इच्छा हो, न दुख होगा, इक इच्छा कर उस ईश्वर की
हो कोई तमन्ना न बाकी, जीवन में सुख तब आता है

है अंत समय तू चेत ख़लिश, कब जाने सांस ये थम जाये
बेकार की बातों में तेरा हर लमहा बीता जाता है.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
८ मई २००८




१५२३. दिन रात जो सजा रहा है इस शरीर को

दिन रात जो सजा रहा है इस शरीर को
क्यों पीटता ही जा रहा है तू लकीर को

जेवर, लिबास, इत्र पर दौलत लुटा रहा
कुछ तो ज़कात दे कभी कोई फ़कीर को

नाशुक्रिया हो कर लुटायेगा तेरी दौलत
जितनी भी तू दे जायेगा अपने नबीर को

दुनिया की टीम-टाम में ही खो रहा है क्यों
तू कर कभी तो याद उस आला कबीर को

इल्मोअसूल से नहीं तेरा है वास्ता
क्यों भूल बैठा है ख़लिश अपने नज़ीर को.

नबीर = पोता
कबीर = बड़ा, महान, श्रेष्ठ, उत्तम, आ’ला

नज़ीर = डराने वाला; पैगम्बर साहब की उपाधि

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
८ मई २००८


१५२४. हरियाणवी कुंडली – ईकविता, ८ मई २००८

पत्नी पति में हो रही,बस एकै तकरार
घर का मालिक कौण सै,जब तन्खा इकसार
जब तनखा इकसार तो सुन ले पति निकम्मा
दोनों बुढ़ियां यहीं रहें, दोनों की अम्मा
कहै ख़लिश कविराय कहे हरियाणी जटनी
एक बराबर दोनों, पति हो चाहे पत्नी.
टिप्पणी—प्रथम दोहा श्याम सखा श्याम जी द्वारा ई कविता पर निम्न रूप में प्रेषित किया गया था:

बीर मरद में हो रही,बस एकै तकरार
घर का मालिक कौण से,जब तन्खा इकसार


महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
८ मई २००८





१५२५. किस तरह कहें कि आप का कहा सही नहीं –ईकविता, ८ मई २००८

किस तरह कहें कि आप का कहा सही नहीं
नागवार आप को जो बात है कही नहीं

जाने किस खयाल में थे आप क्या समझ गये
हम ने गुस्ताखियां कोई भी करीं नहीं

है करम ये आप का मिला है आज कुछ हमें
हम पे आप की मेहर आज तक हुई नहीं

है अभी तो इब्तिदा हश्र जाने क्या मिले
हम ने इस सफ़र की राह अब तलक चुनी नहीं

डर है ये ख़लिश कि चूक जायें न कदम कहीं
हम से आप की निगाह, फिर मिली, मिली नहीं.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
८ मई २००८
© Copyright 2008 Dr M C Gupta (UN: mcgupta44 at Writing.Com). All rights reserved.
Dr M C Gupta has granted Writing.Com, its affiliates and its syndicates non-exclusive rights to display this work.
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