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Rated: E · Book · Cultural · #1510442
Third part of Hindi poems in Hindi script, mainly ghazals, Serial no. 1226--1775
#627013 added December 31, 2008 at 9:59am
Restrictions: None
Poems / ghazals , no. 1676- 1700 in Hindi script
१६७६. यादों को बैठे हैं दिल से लगाये

यादों को बैठे हैं दिल से लगाये
तुम्हें आज तक भी भुला हम न पाये

अभी बात कल की सी लगती है जैसे
हमें देख कर आप जब मुस्कुराये

ताज़ा अभी भी ज़हन में हैं वो दिन
शरमा के जब आप नज़दीक आये

दुनिया हमारी उजड़ सी गयी है
हमें आप बैठे हैं जब से भुलाये

मुमकिन नहीं है मुलाकात अब तो
किस्मत के हम भी ख़लिश हैं सताये.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
१० जुलाई २००८




१६७७. क़लम तक दिल की बातों को कभी लाया नहीं करते

क़लम तक दिल की बातों को कभी लाया नहीं करते
सभी अशआर को महफ़िल में सुनाया नहीं करते

हज़ारों तुम गज़ल लिखो, रुबाई लाख लिख डालो
मग़र संज़ीदगी की शय को भुलाया नहीं करते

मज़ा जो आंसुओं में है तबस्सुम क्या उसे जाने
जला हो दिल अग़र तो और तड़पाया नहीं करते

जो सच्चा इश्क करते हैं वो अंगारों पे चलते हैं
कभी अंज़ामे-मोहब्बत से घबराया नहीं करते

ख़लिश मरना सभी को है अग़र दुनिया में आये हैं
वफ़ा के नाम पर तोहमत तो लगाया नहीं करते.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
११ जुलाई २००८




१६७८. ज़िंदगी जाने कहां पर लाई है

ज़िंदगी जाने कहां पर लाई है
सब तरफ़ इक आलमे-तनहाई है

दोस्तों के मन में भी खयाल है
आज मिलने में मुझे रुसवाई है

चुप रहूंगा और सह लूंगा सितम
लब से उफ़ न हो कसम ये खायी है

है बहुत कहने को पर किससे कहूं
न कहीं मेरी कोई सुनवाई है

मर चुका हूं मैं ज़माने के लिये
दी हक़ीकत अब ख़लिश दिखलायी है.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
१२ जुलाई २००८



१६७९. हंस के लाख सहोगे ग़म ये वादा कर लो

हंस के लाख सहोगे ग़म ये वादा कर लो
बाहर करो अंधेरा, जीवन में रंग भर लो

अग़र हो सके तो बदलो ख़ुद अपने ही को
भार बदलने का दुनिया को न तुम सर लो

मुंह लटका के बैठे रहो इसी में क्या है
खेलो हंसो सभी के संग तुम सजो संवर लो

अपने ग़म को याद करोगे, और बढ़ेगा
अगर हो सके तो औरों के ग़म को हर लो

नज़र चुराने से मुसीबतें कम न होंगी
आगे बढ़ो ख़लिश मुसीबत ख़ुद ही वर लो.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
१२ जुलाई २००८



१६८०. मेरे आंसुओं से जो परहेज़ है तो मेरी जान मुझको न इतना सताओ

मेरे आंसुओं से जो परहेज़ है तो मेरी जान मुझको न इतना सताओ
मेरे पास आओ, मेरे दिल में बैठो, मेहरबानियां पर न इतनी दिखाओ

तुम्हें चाहिये तो है ये जां भी हाज़िर, हर इक सांस मेरी तुम्हारे लिये है
न छूआ, न सूंघा, कली रौंद डाली, ये कैसी रसम प्यार की है बताओ

बहुत प्यार की राह में मुश्किलें हैं, अभी इब्तदा ही हुयी है सफ़र की
पांवों में यूं बेड़ियां तो न डालो, न यूं प्यार में दुश्मनी तो निभाओ

बहुत दिन हुए आप को दिल दिया था, न बदले में चाहा कभी कुछ भी हमने
रही बस यही इक तमन्ना हमारी, नया राग कोई कभी तो सुनाओ

बहुत थक गये हैं मोहब्बत में अब तो, मंज़िल मिलेगी भरोसा नहीं है
ऐसा न हो राह में टूट जायें, ख़लिश और हमको न अब आज़माओ.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
१३ जुलाई २००८



१६८१. मन में जो तमन्ना थी अश्कों में निकलती है

मन में जो तमन्ना थी अश्कों में निकलती है
हसरत थी कोई ग़म के अहसास में पलती है

खामोश निगाहें हैं हर ओर अंधेरा है
धुंधली सी मग़र दिल में लौ आस की जलती है

हैं सर्द बहुत आहें जो दिल से निकलती हैं
सीने में मग़र हर दम इक आग सुलगती है

हम यूं तो भुला बैठे उस प्यार के मंज़र को
है याद मग़र बाकी रह रह के मचलती है

है राग तन्हाई का न पकड़ न बंदिश है
सांसों की सरग़म पर इक उम्र पिघलती है

उम्मीद की दुनिया में ख़ुद आग लगाई है
फिर “ख़लिश” शिकायत क्यों होठौं पे उभरती है.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
१७ जुलाई २००८




१६८२. चले आओ न जाने कब मेरी दुनिया में आओगे

चले आओ न जाने कब मेरी दुनिया में आओगे
बहुत दिन हो गये सूरत न जाने कब दिखाओगे

ये आंखें रात दिन हर दम तुम्हारी राह तकती हैं
जो इनमें ख़्वाब है उसको हकीकत कब बनाओगे

कोई तदबीर तो होती कि उड़ के पास आ जाते
मेरी उजडी़ हुयी दुनिया को जाने कब बसाओगे

न तुम हो पास तो दुनिया मुझे वीरान लगती है
न जाने कब मुझे आगोश में अपने बिठाओगे

सभी कहते हैं वापस लौट कर आता नहीं कोई
मग़र दिल को ख़लिश उम्मीद है वादा निभाओगे.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
१७ जुलाई २००८




१६८३. मेरा जीवन रहा अधूरा, रहा अधूरा इक सपना

मेरा जीवन रहा अधूरा, रहा अधूरा इक सपना
हुआ किसी का लेकिन कोई हो न सका मेरा अपना

तन भी मिले, मिले मन भी पर दूरी कितनी बनी रही
जिन राहों का अंत नहीं है लिखा उन्हीं में था खपना

बचपन बीता खेल कूद में और जवानी आलस में
अंत समय वृद्धावस्था में राम नाम बेहतर जपना

सत्साहित्य रचो हे लेखक यह भी एक तपस्या है
काम तुम्हारा लिखना है मत सोचो क्योंकर हो छपना

ख़लिश कर्म पिछले जन्मों के स्वयंएव कट जायेंगे
कर्तव्यों से डिगो न चाहे कितना पड़े ख़लिश तपना.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
१८ जुलाई २००८





१६८४. मित्र मेरे कहते हैं इतनी रोज़ गज़ल क्यों लिखता हूं

मित्र मेरे कहते हैं इतनी रोज़ गज़ल क्यों लिखता हूं
भावों की गहराई नहीं है, केवल सतही लगता हूं

मेरा नम्र निवेदन उनसे, मत साहित्य इसे समझो
मैं तो मन की बातें केवल अपने आगे रखता हूं

तनहाई में जीवन काटा, संभाषण को कोई नहीं
कविता को आरसी बना कर उसके आगे सजता हूं

हो सकता है दर्द किसी का मेरे सुर में ढल जाये
शब्द मेरे अपनाये कोई तो सौभाग्य समझता हूं

सज्जा और आभूषण को भी ख़लिश पास से देखा है
मुझे नहीं परवाह अग़र मैं साधारण सा दिखता हूं.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
१८ जुलाई २००८







१६८५. मैंने भी दुनिया में प्यारा सा इक नीड़ बनाया था

मैंने भी दुनिया में प्यारा सा इक नीड़ बनाया था
तिनका तिनका जोड़ लगन से सुंदर रूप सजाया था

बहुत गर्व था अपने ऊपर, अपने कौशल, ताकत पर
मुझ सा कोई नहीं है जग में यही सोच भरमाया था

बंधु-बांधव मेरे सम्मुख मोहक गान सुनाते थे
सुन कर भूरि प्रशंसा सबकी, अपने पर इतराया था

गुलशन में वो उठा बवंडर हाय नशेमन टूट गया
तिनके तिनके बिखर गये जो बहुत जतन से लाया था

दिल तो टूटा मग़र ख़लिश यह सीख ग्रहण मैंने कर ली
नादां था जो नश्वर जग से इतना नेह लगाया था.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
१८ जुलाई २००८





१६८६. ज़िंदगी है किसलिये, आंसू बहाने के लिये --ईकविता, २१ जुलाई, २००८


ज़िंदगी है किसलिये, आंसू बहाने के लिये
कोई सपना देख कर फिर कसमसाने के लिये

देख ली जो एक सूरत इस तरह दिल में बसी
याद तनहाई में आयी है रुलाने के लिये

यूं तो कुछ चाहा नहीं, जो भी मिला काफ़ी मिला
पर जिसे चाहा मिला वो सिर्फ़ जाने के लिये

है बहुत आसां ये कहना हंस के दुनिया में जियो
कुछ वज़ह तो चाहिये है मुस्कराने के लिये

कट गयी, कैसे कटी, क्या फ़ायदा इस ज़िक्र से
चंद लमहे ही ख़लिश अब हैं बिताने के लिये.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
१८ जुलाई २००८
०००००००००००००
Monday, July 21, 2008 2:51 AM
From: "smchandawarkar@yahoo.com"
महेश जी,
बहुत सुंदर ग़ज़ल है। बधाई!

है बहुत आसां ये कहना हंस के दुनिया में जियो
कुछ वज़ह तो चाहिये है मुस्कराने के लिये

बिल्कुल सच! कहीं यह भी पढा था

थमते थमते थमेंगे आंसूं
यह रोना है कोई हंसी नहीं

सस्नेह
सीताराम चंदावरकर

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Monday, July 21, 2008 11:36 AM
From: nirbhik_prakash@yahoo.co.in
खलिशजी जीवन की वास्तविता है अधुरी रह जाती है कुछ सपने तडपने के लिए- निर्भीक

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Monday, July 21, 2008 5:46 PM
From: "Ripudaman" pachauriripu@yahoo.com
ख़लिश जी, प्रणाम! ग़ज़ल बहुत अच्छी लगी। लिखते रहें। मंगल-कामनाएं
रिपुदमन पचौरी
00000000000





१६८७. ज़िंदगी के देख कर ग़म रो दिये—ईकविता, १८ जुलाई, २००८

ज़िंदगी के देख कर ग़म रो दिये
मौत न आयी तो फिर हम रो दिये

फ़ायदा क्या है शराफ़त का अग़र
ज़ालिमों के देख परचम रो दिये

याद रखो डर गये जो मर गये
जो उठा पाये न ज़ोखम रो दिये

वो नहीं हैं, सिर्फ़ उनकी याद है
फिर वही आया है मौसम रो दिये

जिनको सुलझाना ख़लिश मुमकिन नहीं
देख ऐसे ज़ुल्फ़ में ख़म रो दिये.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
१८ जुलाई २००८




१६८८. ख़ुद तो घायल हो गये हमको भी कर गये –ईकविता, १८ जुलाई २००८

ख़ुद तो घायल हो गये हमको भी कर गये
कहके गज़ल वो छोड़ कर गहरा असर गये

भीगी नज़र पूछे है सनम का पता मग़र
दिल ले के मानो खो गये, जाने किधर गये

कासिद तो है तैय्यार ख़त ले जाये पर कहां
जिनसे भी पूछा यार को देखा, मुकर गये

होते जो पंख चार सू हम ढूंढ ही लेते
दिल तो करे है हम भी जायें वो जिधर गये

झूठी तसल्लियों से ख़लिश ग़र बहलता दिल
ख़्वाबों में देख सोच लेते दिन संवर गये.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
१८ जुलाई २००८




१६८९. ज़िंदगी बज़्म में यूं गुज़रती रहे–ईकविता, २१ जुलाई २००८


ज़िंदगी बज़्म में यूं गुज़रती रहे
ये गज़ल की लहर और चलती रहे

इस लहर में सराबोर सी तैरती
शायरी-ओ-सुखन की ये कश्ती रहे

आप लिखते रहें, कुछ सुनाते रहें
हर पहर प्यास महफ़िल की बढ़ती रहे

ये रवानी क़लम की रुके न कभी
का़यम अशआर की आबोहस्ती रहे

मुफ़लिसी में भले ये कटे ज़िंदगी
धड़कनों में ख़लिश छायी मस्ती रहे.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
२१ जुलाई २००८




१६९०. लोग कहते हैं कि जीवन आंसुओं का नाम है

लोग कहते हैं कि जीवन आंसुओं का नाम है
मैं ये कहता हूं कि जीवन इक सुनहरी शाम है

पर अग़र ये मान लें कि भाग्य से है ज़िंदगी
तो पलटना भाग्य को इक कोशिशे-नाकाम है

रो के या हंस के सहो जो भी लिखा तक़दीर में
हर समय आंसू बहाना ज़ीस्त पर इलज़ाम है

आंसुओं की धार से ग़र मुश्किलें हो जायें कम
हम भी तब मानेंगे रोने का बहुत ईनाम है

है रवायत इस ज़माने की यही लेकिन ख़लिश
जो हंसेगा साथ हैं सब, रोये वो ग़ुमनाम है.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
२१ जुलाई २००८



१६९१. कभी हंसना कभी रोना इसी का नाम दुनिया है-- ईकविता, २३ जुलाई २००८


कभी हंसना कभी रोना इसी का नाम दुनिया है
मिला इंसान को भगवान से ईनाम दुनिया है

बहुत आवागमन के चक्र से गुज़रा किया अब तक
हज़ारों लाख जन्मों का मिला अंज़ाम दुनिया है

कमाये को कहे इंसान फल है मेरी मेहनत का
मग़र खोने पे उसको काबिले-इलज़ाम दुनिया है


कभी ये ग़म, कभी वो ग़म, कभी गर्दिश, कभी मुश्किल
जहां मिलता नहीं है एक पल आराम दुनिया है

ख़लिश अपने किये का ही यहां सब फल भुगतते हैं
न जाने किसलिये फिर भी बहुत बदनाम दुनिया है.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
२२ जुलाई २००८
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Wednesday, July 23, 2008 2:56 PM
From: "Rakesh Khandelwal" rakesh518@yahoo.com
महेशजी, सुन्दर लिखा है आपने विशेषत: ख़लिश अपने किये का ही यहां सब फल भुगतते हैं

न जाने किसलिये फिर भी बहुत बदनाम दुनिया है.
सादर राकेश
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१६९२. दो लफ़्ज़ उनके इस तरह सुकून दे गये

दो लफ़्ज़ उनके इस तरह सुकून दे गये
थी लाश मेरी ज़िंदगी, वो खून दे गये

कोरा वरक थी ज़िंदगी, चुपचाप थी क़लम
नाख़त्म सा वो इक हसीं मज़बून दे गये

यूं तो मोहब्बत में नहीं गुंजाइश बहस की
वो प्यार का हमको नया कानून दे गये

हमने कहा भूखे रहे हैं ज़िंदगी भर हम
वो आये हमको एक बोरा चून दे गये

जाते हुये वो मेहरबां इतने हुये ख़लिश
घावों के वास्ते ज़रा सा नून दे गये.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
२३ जुलाई २००८




१६९३. ज़िंदगी की कहानी बताऊं किसे

ज़िंदगी की कहानी बताऊं किसे
राज़ दिल में निहां हैं जताऊं किसे

मुफ़लिसी के सिवा पास क्या है मेरे
हाल क्या है मेरा ये दिखाऊं किसे

दिल तो खाली है पर इसकी गहराई में
दर्देदिल के सिवा अब बसाऊं किसे

कोई तो हो मेरा जिऊं जिसके लिये
सांस की रागिनी मैं सुनाऊं किसे

है सफ़र ज़िंदगी का अकेला ख़लिश
किंतु हमराह अपना बनाऊं किसे.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
२३ जुलाई २००८



१६९४. थकी-थकी आंखों में मैंने जब भी कोई स्वप्न संजोया

थकी-थकी आंखों में मैंने जब भी कोई स्वप्न संजोया
मुझको चेताती सी आयी मेरे अंतर्मन की वाणी
और मुझे कह गयी कल्पना केवल कविता में जंचती है
तुम यथार्थ में जीना सीखो मत भविष्य की सोचो प्राणी

मैंने पूछा मिली मुझे फिर स्वप्न देखने की क्यों क्षमता
क्यों विचार के पंख लगा कर मन मेरा उड़ता जाता है
अंतर्मन ने समझाया सुख सपने देखो शेष जगत के
स्वार्थ भाव का द्योतक अपने सुख में रमना कहलाता है

कर्म सात्विक और राजसी और तामसिक होते कोई
गीता का यह ज्ञान किसी विद्वान पुरुष से छिपा नहीं है
गुह्यज्ञान मैं तुम्हें बताऊं, स्वप्न-त्रय भी होते ऐसे
जिन स्वप्नों में स्वार्थ निहित हो सात्विकता कुछ वहां नहीं है

मैं अंतर्मन, आत्मा दर्पण, सत्य वचन तुमसे कहता हूं
तुम समाज की और देश की ख़ातिर देखो स्वप्न सात्विक
मन निर्लिप्त रखो और शुभ कर्मों को अनथक करते जाओ
तुमको प्राप्त सफलता होगी, होंगे स्वप्न सार्थक निश्चित.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
२३ जुलाई २००८



१६९५. पर्वत बस्ती उद्यानों पर कहने को छाया सावन है

पर्वत बस्ती उद्यानों पर कहने को छाया सावन है
किंतु सभी से आज विलग सा मेरा ये मुरझाया मन है

बीत गयीं सारी शंकायें इच्छाएं सब हवा हो गयीं
मन में कहीं उदासी है बस एक अनोखा सूनापन है

चाह यदि पूरी न हो तो प्राय: टीस उठा करती है
किंतु हृदय में शून्य भरा है इस विरक्ति का क्या कारण है

अंतर्बोध हुआ होता तो मैं भी स्थितप्रज्ञ कहलाता
किरण न कोई, अंधकार को किया आज मन में धारण है

चलते चलते ख़लिश भाग्य की रेखा मानो लुप्त हो गयी
निपट अकेला हूं और चारों ओर गहन कांटों का वन है.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
२३ जुलाई २००८




१६९६. जी चुका अब मुझे और जीना नहीं

जी चुका अब मुझे और जीना नहीं
न सफ़र न लहर अब सफ़ीना नहीं

एक अहसासे-तनहाई है ज़िंदगी
चुक गयी मय कि अब जाम पीना नहीं

न तमन्ना न ख़्वाहिश न हसरत कोई
क्या बचा है जो दुनिया ने छीना नहीं

कोई ठंडक नहीं कोई सीरत नहीं
कोई सावन का मुझ को महीना नहीं

जिसमें ढोता रहा मैं ज़माने के ग़म
पास मेरे ख़लिश अब वो सीना नहीं.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
२३ जुलाई २००८



१६९७. ये दिल भी कैसा पागल है पल में तूफ़ान उठाता है

ये दिल भी कैसा पागल है पल में तूफ़ान उठाता है
कोई अग़र खिलौना मिल जाये तो तुरत बहल भी जाता है

क्या सच्चा है क्या झूठा है कुछ ज्ञान विवेक नहीं इसको
मृग-तृष्णा से यह पीड़ित है जग इसको नाच नचाता है

ख़ुद ही इसको परवाह नहीं क्या इसके अपने हित में है
अपनी ताकत का ज्ञान नहीं बेबस बन कर रह जाता है

मन और आत्मा ये दोनों ही तन के घेरे में रहते हैं
दोनों उड़ जाते हैं जब तन यह धू-धू कर जल जाता है

आत्मा तो अजर अमर है, मन अपने को रोज़ बदलता है
ये ख़ुद इंसां पर निर्भर है किससे वह जोड़े नाता है

रूह से ग़र नाता जोड़ लिया तो रूहानी हर शय होगी
ग़र मन से नाता जोड़ा तो इंसान बहुत पछताता है

है ख़लिश यही बेहतर इंसां बेहद भी हो हद में भी हो
बेहदी मुसाफ़िर रूहानी को हद चलना भी आता है.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
२४ जुलाई २००८


१६९८. वो पास से गुज़रा किये धड़कन मचल गयी

वो पास से गुज़रा किये धड़कन मचल गयी
उनकी झलक जो पायी तो हालत बदल गयी

यूं तो न मुलाकात थी उनसे कभी बदी
वो ख़्वाब में आये तो तबीयत बहल गयी

जब से वो आये ज़िंदगी में आ गयी बहार
थी जीस्त अब तक बोझ, अब वो हो सहल गयी

मानिंदे सूखी सी कली थी ज़िंदगी मेरी
आबे-मोहब्बत मिल गया तो हो कंवल गयी

अब तक ख़लिश करते रहे किस्मत से हम गिला
उनको जो पा लिया है तमन्ना निकल गयी.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
२४ जुलाई २००८




१६९९. बारहा दिल में मेरे ख़्याल यही आता है

बारहा दिल में मेरे ख़्याल यही आता है
चार दिन का ही बचा सिर्फ़ यहां नाता है

जिऊं जब तक न दुखाऊं मैं किसी का भी दिल
बात मीठी जो करूं कुछ न मेरा जाता है

पर रहे ख़्याल कि हर बात में सच्चाई हो
झूठ बोला तो बुराई भी बहुत लाता है

भूल जाऊं कि सिखाना है सबक दुनिया को
ये जो इंसां है सिखा ख़ुद को नहीं पाता है

लाख मुश्किल हैं ज़माने में ख़लिश ये माना
दूर कोई है तुझे देख के मुस्काता है.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
२४ जुलाई २००८




१७००. करता हूं जो मैं रब से मुलाकात और है

करता हूं जो मैं रब से मुलाकात और है
उससे मिली है जो मुझे सौगात और है

हासिल हैं मुझे यूं तो ज़माने की दौलतें
दौलत-ए-फ़कीरी की मग़र बात और है

सुलतान भी करते हैं उसके दर पे ग़ुलामी
शाहों के शहन्शाह की औकात और है

होगी सुबह तो होंगी उसकी मेहरबानियां
अब रह गयी दो घड़ी सिर्फ़ रात और है

ग़म कर न मुश्किलों में रहा जो यहां ख़लिश
इस आसमां के पार कायनात और है.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
२४ जुलाई २००८


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