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Rated: E · Book · Cultural · #1510519
Book 4 of my collection of Hindi poems, mainly ghazals, in Hindi script, 1776 onward.
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#627054 added December 31, 2008 at 1:47pm
Restrictions: None
Poems / ghazals , no. 1776- 1800 in Hindi script
१७७६. इन कोशिशों से पास मेरे आ न सकोगे

इन कोशिशों से पास मेरे आ न सकोगे
दिल में मेरे जगह कभी तुम पा न सकोगे

अरमान की दुनिया मेरी है बादलों के पार
तुम साथ मेरा दो कदम निभा न सकोगे

उल्फ़त की राह में फूल ही नहीं, हैं खार भी
कांटों की राह हंस के कभी जा न सकोगे

मेरी तो छोड़िये हुज़ूर है मुझे यकीं
अपनी भी ज़िंदगी में चैन ला न सकोगे

बेहतर है दामन थाम लीजे और का ख़लिश
कसमें हमारे साथ कभी खा न सकोगे.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
२१ सितंबर २००८



१७७७. ई-कविता क्यारी फूल रही –ईकविता, २२ सितंबर २००८

कवि-सिंह बहुत ईकविता पर
बन गीतकार घायल करते
कोई कृष्ण कन्हैय्या, श्याम सखा
घनश्याम अनूप रचा करते

हैं शरद आरसी और नदीम
कुलवंत सरीखे बहुत अभी
पर कवियित्री शारदा सरीखी
की भी कुछ अब कमी नहीं

मानोशी हों या वाचक्नवी
देवी जी हों या शार्दूला
अर्चना सरीखी पंडा हों
और वे हों जिन्हें अभी भूला

इन सबने मिल कर ईकविता
में पुष्प खिलाये हैं इतने
ई-कविता क्यारी फूल रही
और हुए सुवासित हैं सपने.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
२२ सितंबर २००८





१७७८. दिल में जो तमन्ना आती है

दिल में जो तमन्ना आती है
पूरी न कभी हो पाती है

तुम ख़ुद न समझ पाते हो कुछ
और मेरी ज़ुबां शरमाती है

जो बात है दिल में, होठों पर
आते-आते रुक जाती है

कहते हैं आशिक जानते हैं
दिल की धड़कन क्या गाती है

शायद बाकी आना कोई
तूफ़ान अभी जज़्बाती है

देखेंगे ख़लिश हम भी आखिर
किस्मत क्या खेल खिलाती है.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
२२ सितंबर २००८




१७७९. इलज़ामे-बेवफ़ाई लगाते हो किसलिये

इलज़ामे-बेवफ़ाई लगाते हो किसलिये
हमको कसूरवार बताते हो किसलिये

मुद्दत हुई न आईना देखा है आपने
सूरत हमारी याद दिलाते हो किसलिये

झांक अपने गिरीबान में हालात देखिये
दामन हमारा हमको दिखाते हो किसलिये

हमने कभी न भीख तो मांगी है आपसे
हम हैं ग़रीब हमको सुनाते हो किसलिये

मस्जिद में आये ईद पर, मिल लीजिये गले
नफ़रत ख़ुदा के दर पे जताते हो किसलिये.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
२२ सितंबर २००८



१७८०. तुम दूर वहां बैठे इतने और तीर यहां पर चलते हैं –RAS—ईकविता २३ सितंबर २००८

तुम दूर वहां बैठे इतने और तीर यहां पर चलते हैं
तुम क्या जानो ग़म के मारे रो-रो कर आंखें मलते हैं

जाते-जाते कह गये बहुत जल्दी मैं वापस आऊंगा
पर जुग बीते और न आये, संदेस न कोई मिलते हैं

जीने को तो जीती हूं मैं, ऐसा जीना भी क्या जीना
कैसे उड़ कर आऊं तुम तक, दिल में अरमान मचलते हैं

जीना इक-इक पल मुश्किल है, मैं तुम्हें बताऊं कैसे कि
तुम बिन साजन कैसे मेरे लमहात अकेले ढलते हैं

आ जाओ जहां भी जैसे हो, अब दम ही निकला जाता है
है ख़लिश बहुत भोला ये दिल, शक लाख तरह के पलते हैं.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
२३ सितंबर २००८




१७८१. कभी तो रात जायेगी, कभी रोशन फ़लक होगा –RAS, ईकविता, २३ सितंबर २००८

कभी तो रात जायेगी, कभी रोशन फ़लक होगा
मदरसों में कभी शायद नया कोई सबक होगा

ज़िहादी बात करते हैं जो मानव-बम बनाते हैं
खुदा के सामने आखिर कभी उनका तलब होगा

ख़ुदा उनका जुदा है मान कर ये कत्ल करते हैं
कभी वो दिन भी आयेगा न हर मज़हब अलग होगा

कहो अल्लाह, कहो केशव, कहो जीसस, कहो कुछ भी
न जाने कब ख़ुदाई पर सभी कौमों का हक होगा

ख़लिश सुकरात, यीशु और गांधी सब गये मारे
ख़ुदा का नाम कब तक मौत का आखिर सबब होगा.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
२३ सितंबर २००८

०००००००००००००००
Tuesday, 23 September, 2008 9:48 AM
From: "Anoop Bhargava" anoop_bhargava@yahoo.com

खलिश साहब:

अच्छे लगे ये शेर :

न जाने किस तरह के लोग हैं जो कत्ल करते हैं
कभी वो दिन भी आयेगा न हर मज़हब अलग होगा

कहो अल्लाह, कहो केशव, कहो जीसस, कहो कुछ भी
न जाने कब ख़ुदाई पर सभी कौमों का हक होगा
०००००००००००००००००००००००
Tuesday, 23 September, 2008 11:16 AM
From: "shar_j_n" shar_j_n@yahoo.com

ख़लिश जी,
बहुत अच्छा है।

आशा है दिल्ली में सब ठीक है अब।
सादर,
शार्दुला
००००००००००००






१७८२. माहिरे-मोहब्बत आप सही, सीने में हमारे भी दिल है—RAS—ईकविता, २४ सितंबर २००८

माहिरे-मोहब्बत आप सही, सीने में हमारे भी दिल है
धड़कन इसमें भी होती है, कुछ ये भी प्यार के काबिल है

माना कि बहुत दिल हैं ऐसे जो तुम पर जान छिड़कते हैं
इन राहों में हम भी हैं फ़ना, अपना भी कहीं तो कातिल है

इतना न ग़ुमां ख़ुद पे कीजे, ये हुस्न दग़ा भी देता है
इंसाफ़ नहीं है उल्फ़त में, न इश्क में कोई आदिल है

जो समां है छाया महफ़िल में, रंगीनी उसकी क्या कहिये
ये असर गज़ल का सही मग़र गायक की अदा भी शामिल है

हैं आप तज़ुर्बेकार बहुत इस इल्मे-मोहब्बत के लेकिन
न ख़लिश समझ लीजे बंदा इस प्यार की राह से ग़ाफ़िल है.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
२४ सितंबर २००८




१७८३. मोहब्बत इक फ़ज़ीहत है--RAS

मोहब्बत इक फ़ज़ीहत है
यही बस इक हकीकत है

अगर न हो वफ़ा तो फिर
मुसीबत ही मुसीबत है

वही धोखे में आता है
जिसे होती अकीदत है

बहुत है नाम उनका पर
बड़ी बदनाम नीयत है

न सूरत को ख़लिश देखो
असल तो चीज़ सीरत है.

अकीदत = विश्वास, भरोसा, श्रद्धा

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
२४ सितंबर २००८



१७८४. ग़म तेरा मुझको सताता है तो रो लेता हूं--RAS

ग़म तेरा मुझको सताता है तो रो लेता हूं
कोई तसवीर दिखाता है तो रो लेता हूं

एक अरसा तो हुआ तुझ से बिछुड़ कर लेकिन
वक्त फिर याद दिलाता है तो रो लेता हूं

यूं तो आलम-ए-तन्हाई है गवारा मुझको
तू तसव्वुर में जो आता है तो रो लेता हूं

जाने क्यों सामने है मेरे यही लगता है
तू जो ख़्यालों में समाता है तो रो लेता हूं

वो जो नग़मा-ए-सफ़र मिल के ख़लिश गाया था
धुन कोई उसकी सुनाता है तो रो लेता हूं.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
२५ सितंबर २००८





१७८५. एक मैं हूं एक मेरी ज़िंदगी नाकाम है--RAS

एक मैं हूं एक मेरी ज़िंदगी नाकाम है
न मिली मंज़िल हुई अब ज़िंदगी की शाम है

जब चला था मैं सफ़र को तो बहुत अरमान थे
चुक गई है राह लेकिन बस सिफ़र अंज़ाम है

यूं तो न उम्मीद शोहरत की कभी मुझको रही
वक्ते-रुख्सत नाम क्यों मेरा हुआ बदनाम है

ये न था मालूम कि है यार मेरा संगदिल
शक्ल से तो यूं लगा मुझको बहुत गुलफ़ाम है

भूल जा जो कुछ हुआ आखिर चलो छुट्टी हुई
देख तो इस कब्र में कितना ख़लिश आराम है.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
२५ सितंबर २००८




१७८६. वो मोम से दिखते थे लेकिन पत्थर का कलेजा पाया है—RAS—ईकविता, २७ सितंबर २००८

वो मोम से दिखते थे लेकिन पत्थर का कलेजा पाया है
जब चोट लगी है दिल पर तो ये राज़ समझ में आया है

वो भी दिन थे मेरी सूरत के वो दीवाने रहते थे
अब वो दिन है जब उल्फ़त ने नफ़रत में पलटा खाया है

उनकी सूरत, उनकी ज़ुल्फ़ें, उनके आरिज़, उनके कंगन
उनको दुनिया से काम नहीं, आईने ने भरमाया है

वो उतर फ़लक से धरती पर दो कदम कभी तो रख लेते
उनकी ख़ुदगर्ज़ी ने हमको सौ राहों में भटकाया है

ऐसा भी ख़लिश हो जाता वे दो पल को हमारे हो जाते
ये ख़्वाब मग़र बस ख़्वाब रहा, ग़म ही अपना हमसाया है.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
२७ सितंबर २००८
०००००००००००

Saturday, 27 September, 2008 12:29 PM
From: "shar_j_n" shar_j_n@yahoo.com

खलिश जी,
गजल अच्छी लगी, अब मैं निरुत्तर !

०००००००००००००
Sunday, 28 September, 2008 2:18 AM
From: smchandawarkar@yahoo.com
खलिश जी,
बहुत अच्छे! किन्तु पत्थर को मोम बनाने की बात, बहुत वर्षों पहले एक गीत में (शायद जग मोहन ने गाया है) आई है --
"आओ सजनी प्यार सिखा दें
’हां’ में बदल दें ’नहीं नहीं’ को
पत्थर हो तो मोम बना दें"
सस्नेह
सीताराम चंदावरकर
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१७८७. मेरे नज़दीक आओ दूर से तुम क्यों लुभाते हो--RAS

मेरे नज़दीक आओ दूर से तुम क्यों लुभाते हो
मेरे दिल की तमन्नाओं की कश्ती क्यों डुबाते हो

बड़ी उम्मीद से मैंने तुम्हें दिल में बिठाया था
मेरे ख़्वाबों को अब किसके सहारे छोड़ जाते हो

कहीं ऐसा न हो कि ज़िंदगी मेरी उजड़ जाये
मुझे इक खैरख्वाह तुम ही नज़र दुनिया में आते हो

न तुम आते मग़र यादें तुम्हारी रोज़ आतीं हैं
न जाने किसलिये इतना सनम हमको सताते हो

ज़रा पास आ के मुझको एक दिन इतना बता दीजे
कभी यादों को मेरी भी ख़लिश दिल से लगाते हो.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
२९ सितंबर २००८





१७८८. लोग मिलते रहे और बिछुड़ते रहे--RAS

लोग मिलते रहे और बिछुड़ते रहे
भाव दिल में अनेकों उमड़ते रहे

ज़िंदगी का सफ़र इस तरह से कटा
फूल जो भी चुने वो बिखरते रहे

बीज बनती गयी पंखुड़ी जो गिरी
रास्ते आप ही यूं संवरते रहे

राह की मुश्किलों से रुके हम नहीं
खार चुभते रहे, पांव चलते रहे

की नहीं फ़िक्र मंज़िल की हमने ख़लिश
आस छोड़ी नहीं, गाम बढ़ते रहे.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
२९ सितंबर २००८




१७८९. याद तनहाई में आयी फिर किसी की आज

याद तनहाई में आयी फिर किसी की आज
दिल में है तसवीर छायी फिर किसी की आज

संग जिसके है ख़ुशी, कांटों में ज्यों गुलाब
पीर वो मन में समायी फिर किसी की आज

है वो धुंधली इस कदर धुएं में ज्यों शोला
जो पड़ी सूरत दिखायी फिर किसी की आज

सरगमे-दिल जिसके दम से है मेरी कायम
धुन वही दी है सुनायी फिर किसी की आज

बेल थी सूखी ख़लिश फिर हो गयी हरी
प्रीत है मन को सुहायी फिर किसी की आज.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
३० सितंबर २००८




१७९०. ज़िंदगी ने ग़म दिये मैं खा गया उन्हें, आंसू दिये जो जाम की मानिंद पी गया—RAS—ईकविता १ अक्तूबर २००८

ज़िंदगी ने ग़म दिये मैं खा गया उन्हें, आंसू दिये जो जाम की मानिंद पी गया
दिल पे असर ऐसा हुआ अशआर बन गये, मैं तो मरा मग़र मेरा कलाम जी गया

दुनिया का ये सफ़र लगा कुछ इस तरह मुझे, आया था खाली हाथ ही मैं इस जहान में
जो कुछ बटोरता रहा मैं आस-पास से, वो सब गया और रूह का आराम भी गया

मैंने किसी की शान में गुस्ताखियां न कीं, इल्ज़ाम ही लेकिन मुझे मिलते रहे सदा
यूं तो नहीं कि बोलने को लफ़्ज़ ही न थे, वादा किया था जो कभी होठों को सी गया

सोचा था उसने बेकसों के पास जायेगा, रोशन करेगा ज़िंदगी के वो बुझे चराग़
बस्ती-ए- तवायफ़ थी मग़र इस तरह बदनाम, फ़हरिस्ते- शरीफ़ान में था, नाम ही गया

सिखला रहे हैं क्या ख़लिश उस्तादे-मदरसा, इसकी मिसाल दे रहे हैं रोज़ के ये बम
बन के ज़िहादियों का वो निकला है सरगना, पढ़ने के वास्ते कभी जो फ़ारसी गया.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
१ अक्तूबर २००८
००००००००००००००
Thursday, 2 October, 2008 5:51 PM
From: "Ripudaman" pachauriripu@yahoo.com
महेश जी,
यह रचना बहुत अच्छी लगी। बधाई स्वीकारें।
रिपुदमन पचौरी
00000000000000000000000

Friday, 3 October, 2008 9:28 AM
From: "shar_j_n" shar_j_n@yahoo.com
खलिश जी,
बहुत बेहतरीन कलाम है । क्या फिक्र है ! क्या साफ़गोई है !
आपकी शार्दुला
०००००००००००००
5:36 PM (3 hours ago), 3 October 2008


kvachaknavee@yahoo.com
महेश जी,
बहुत ही बढ़िया रचना हुई है,
बधाई स्वीकारें!
-- Kavita Vachaknavee
००००००००००००००००००००००००००००


१७९१. वो पल मुझको न भूलेंगे बहुत चाहे वो थोड़े थे—RAS-R

वो पल मुझको न भूलेंगे बहुत चाहे वो थोड़े थे
गुलाबों के हसीं गुंचे कभी ख़्वाबों में तोड़े थे

कभी हम भी कहेंगे हम उन्हीं राहों से गुज़रे थे
जहां मनमीत ने अपने निशां पांवों के छोड़े थे

नहीं अब ज़ख़्म रिसते हैं मग़र हैं दाग़ तो बाकी
कभी दिल पर लगे मेरे बहुत बेदर्द कोड़े थे

अलग तुम हो गये लेकिन कभी ऐसे भी दिन थे जब
मेरे ख्यालों में तुमने ख्याल अपने हंस के जोड़े थे

ख़लिश ये ज़िंदगी मेरी उसी मंज़र पे अटकी है
जहां मुझ तक बढ़ा कर हाथ वापस तुमने मोड़े थे.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
२ अक्तूबर २००८






१७९२. काम ही काम बहुत, मुझको है आराम नहीं--RAS

काम ही काम बहुत, मुझको है आराम नहीं
मेरी दुनिया में कभी चैन का है नाम नहीं

बदहवासी में चला जाता हूं इक सहरा में
कोई मंज़िल भी नहीं, राह नहीं, बाम नहीं

जो मैं इक बार रुका फिर नहीं चल पाऊंगा
काम करता ही रहूं, इसके सिवा काम नहीं

मेरी साथी है यहां सिर्फ़ मेरी तनहाई
कोई महफ़िल भी नहीं, बज़्म नहीं, शाम नहीं

मैंने औरों का बुरा चाहा नहीं, न ही किया
जाने क्यों मुझ सा ख़लिश और है बदनाम नहीं.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
३ अक्तूबर २००८

१७९३. सुनता नहीं है कोई तो फिर बोलता है क्यों--RAS

सुनता नहीं है कोई तो फिर बोलता है क्यों
राज़े-ग़म दिल के सभी पर तू खोलता है क्यों

मन का ज़हर ज़ुबान के रस्ते निकाल दे
खा गालियां, लफ़्ज़ों में शहद घोलता है क्यों

अच्छा-बुरा जो भी हुआ बेहतर है भूल जा
हर बात पर पलकों पे आंसू तोलता है क्यों

दुनिया में न रमने का फ़ैसला तो कर लिया
आसन लगा चुका तो मन फिर डोलता है क्यों

मोहजाल में फंस कर ख़लिश न मुक्ति पायेगा
अनमोल मानव जन्म को यूं रोलता है क्यों.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
३ अक्तूबर २००८



१७९४. दिग्गज कवि-महिमा----कुंडली—ईकविता, ४ अक्तूबर २००८

दिग्गज कवि कोऊ रहै, हमहू न कमज़ोर
कवित रातभर हम लिखें, जब तक हो न भोर
जब तक हो न भोर लिखें हम गज़ल अनेकों
पर जब प्रेषित करें, सुनें हम गारी सबसौं
कहें सदस्य ईकविता के मत चाटो मगज़
ख़लिश कुकुरमुत्ते सा, भला कहां का दिग्गज.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
४ अक्तूबर २००८



१७९५. राज़े-ग़म पूछे कोई कुछ भी न मैं कहता हूँ--RAS

राज़े-ग़म पूछे कोई कुछ भी न मैं कहता हूँ
एक आंसू हूँ मैं न गिरता हूँ न बहता हूँ

मुझे बीमार नज़र आते हैं सब ही ग़म से
चारागर कोई नहीं दर्द यूं ही सहता हूँ

सुनि अठिलइहैं सभी बांट न लइहैं कोय
सोच कर बात ये रसखान की चुप रहता हूँ

दिल तो बेकस है मग़र लाख हैं शोले इसमें
शांत दिखता हूँ मैं अंदर से बहुत दहता हूँ

क्यों गिराते हो मुझे ज़ोर-ज़बर्दस्ती से
एक खंडहर की तरह ख़ुद ही ख़लिश ढहता हूँ.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
४ अक्तूबर २००८




१७९६. कौन इस संसार में रोगी नहीं--RAS

कौन इस संसार में रोगी नहीं
पीर है किसने यहां भोगी नहीं

क्यों परेशां हो कि आया अंत है
क्या गया ख़ु्द कृष्ण वह योगी नहीं

मौत को न जीत पाये शहन्शाह
बच सका इससे कोई जोगी नहीं

सिलसिला चुक पायेगा न ये कभी
ख़त्म ये महफ़िल कभी होगी नहीं

अब समझ में आ गया कर इंतज़ार
प्यार तुम अपना कभी दोगी नहीं

कल ख़लिश पछताओगी बेइंतहा
वायदा जो आज रखोगी नहीं.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
४ अक्तूबर २००८




१७९७. जब गया दुनिया से था तनहा बहुत--RAS

जब गया दुनिया से था तनहा बहुत
जब तलक जिया किये गुनाह बहुत

राहे-नेकी को कभी न छोड़ना
देने वाले दे गये सलाह बहुत

मैं न लड़ पाया बदी से, हार कर
पाप से करता रहा सुलह बहुत

आ सकी दिल में न मेरे रोशनी
दौलतें थीं पास में सियाह बहुत

टालने से मौत ज्यों टल जायेगी
इस गु़मां में ही ख़लिश रहा बहुत.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
४ अक्तूबर २००८



१७९८. तुम्हारे कदम चूम लूं जो मेरी जां—RAS—ईकविता, ४ अक्तूबर २००८

तुम्हारे कदम चूम लूं जो मेरी जां,
कह दो कि तुमको शिकायत न होगी

हमको न मंज़ूर है जी हमारी
मोहब्बत में ऐसी रवायत न होगी

***
तुम्हें प्यार करते हैं हम दिल में इतना
लफ़्ज़ों में तुमको बता न सकेंगे

अगर आप दिल की बता न सकोगे
दिल हम भी फिर तो लगा न सकेंगे

***
चलो छोड़ भी दो ये नाराज़ होना
मोहब्बत है मेरी समंदर से गहरी

हकीकत मेरी तुम मिटा तो न दोगे
आखिर तो मैं एक नदिया ही ठहरी

***

करो बात ऐसी न जाने-मोहब्बत
तुम्हारे लिये जान से हम मिटेंगे

मिटने-मिटाने की बातें ये छोड़ो
अब जो मिले न जुदा हो सकेंगे.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
४ अक्तूबर २००८

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Saturday, 4 October, 2008 2:09 PM
From: "shar_j_n" shar_j_n@yahoo.com

very cute :)

००००००००००००००

Saturday, 4 October, 2008 5:46 PM
From: "Rakesh Khandelwal" rakesh518@yahoo.com

अब आप ईकविता छोड़कर मुम्बई की ओर प्रस्थान न कर दें.
आशंका के साथ

सादर
राकेश
००००००००००००









१७९९. ग़र देख लो आज दिल की निगाह से--RAS

ग़र देख लो आज दिल की निगाह से
आवाज़ आयेगी इक मेरी आह से

न तुम सफ़र ये कभी तर्क करना
मंज़िल नज़र कोई आयेगी राह से

करते रहो कोशिशें बेधड़क तुम
हासिल नहीं सिर्फ़ होता है चाह से

न तुम किताबों में वो पा सकोगे
जो पाओगे तुम बुज़ुर्गी सलाह से

कोशिश करो कि मिटे ये ग़रीबी
न कुछ मिलेगा अमीरों से डाह से

हक छीनते थे ग़रीबों का इक दिन
हैं वो भिखारी ख़लिश आज शाह से.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
५ अक्तूबर २००८






१८००. कैसे कहूं कि शिकायत नहीं है--RAS

कैसे कहूं कि शिकायत नहीं है
दिल में तुम्हारे ही चाहत नहीं है

न ये मोहब्बत सफ़ल हो सकेगी
ग़र इश्क के संग इबादत नहीं है

मुझको तुम्हारी ज़रूरत है लेकिन
दिल ही तुम्हारा सलामत नहीं है

तुम न मिलोगे तो मर जायेंगे हम
बिन तुम हमें कोई राहत नहीं है

दे दो ख़लिश प्यार या जान ले लो
मेरी छिपी कोई हालत नहीं है.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
५ अक्तूबर २००८


© Copyright 2008 Dr M C Gupta (UN: mcgupta44 at Writing.Com). All rights reserved.
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