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by shiv
Rated: E · Poetry · Friendship · #2219743
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मित्र


नई जगह पर, नए ज़ोर से
हम घर से दूर हो जाते हैं
दो-दिन की ही बातचीत में
कुछ खुद को मित्र बताते हैं ।

बातों में तब रस होता है
कुछ मीठा कुछ खट्टा होता है
अनुभवों को साझा करते-करते
कभी-कभी हर कोई भाव-भीन होता है ।

चटखारे देती उन बातों का
अब पिटारा कहाँ बचा है
रसना से वो रस न मिलता
भावों में रस कहाँ बचा है ।

तब होड़ लगती है आपस में
कुछ काम में, कुछ बातों में
सबको अपनी-अपनी है कहनी
करने को कुछ कहाँ बचा है।

अब दिल की बातें दिमाग करता है
कोई करता पर कोई भरता है
नहीं तो रिझाने में भूल होगी
नौकरी गवाने की शूल होगी।

माना मैं उन जैसा न हो पाया
कैसे ये सब कर पाता मैं
जब मेरा मन ही
मेरा मित्र न हो पाया।

क्या हर उचित परिस्तिथि में
मेरा साथ दे सकते हो?
अगर नहीं खड़े हो सकते हो तुम
मेरे मित्र कैसे हो सकते हो?
© Copyright 2020 shiv (shivom at Writing.Com). All rights reserved.
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