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Rated: E · Book · Emotional · #1510374
Second part of Hindi poems in Hindi script, mainly ghazals, from 701-1225.
#626948 added December 31, 2008 at 4:51am
Restrictions: None
Poems / ghazals , no. 776 - 800 in Hindi script



७७६. एक दिन मैं भी कहीं खो जाऊंगा—-१७-३-०७ की गज़ल ई-कविता को १७-३-०७ को प्रेषित


एक दिन मैं भी कहीं खो जाऊंगा
एक हिस्सा गर्द का हो जाऊंगा

जानता हूं जाऊंगा पर क्या खबर
है वो मन्ज़िल कौन जिस को जाऊंगा

ऐ चमन-ए-ज़िन्दगी तेरी कसम
बीज अपनी याद के बो जाऊंगा

जब तलक है रौशनी चलता रहूं
रात आयेगी जहां सो जाऊंगा

बाद मेरे और रह लेंगे यहां
मैं बनाता हूं मकां, गो जाऊंगा

मेरे जीते जी न घर छीनो मेरा
छोड़ कर सब कुछ यहीं तो जाऊंगा

यूं तो खाली हाथ ही आया था मैं
और खाली हाथ ही लो जाऊंगा

मुझ से बेहतर भी सुखनवर हैं बहुत
क्या हुआ मैं छोड़ कर जो जाऊंगा

मेरे आका यूं ख़फ़ा मत होइये
जो किये हैं पाप वो धो जाऊंगा

वक्त-ए-रुख्सत यार की लेकिन खलिश
कब्र पर दो अश्क मैं रो जाऊंगा.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
१७ मार्च २००७
०००००००००००००००००००

Deepika Bahri <dpetrag@emory.edu> wrote:
बहुत ही बेहतरीन कविता है! धन्यवाद!
Deepika Bahri
Director, South Asian Studies Program
Associate Professor, Postcolonial Studies, English dept.
Emory University, Atlanta, GA 30322
PH: 404-727-5114
FX: 404-727-2605

०००००००००००००

from sunita chotia <shanoo03@yahoo.com>
date Mar 17, 2007 12:24 PM

आदरणीय वा़कई क्या मनोहर रचना लिखी है आपने...
खा़ली हाथ आया था एक दिन...
खाली हाथ ही चला जाऊगां ।
यही है जिन्दगी का दस्तूर....जो आपकी कविता से उजागर होता है
सुनिता








७७७. खाक हम हो जायेंगे यूं तेरी उल्फ़त में सनम—-१८-३-०७ की गज़ल ई-कविता को १८-३-०७ को प्रेषित


खाक हम हो जायेंगे यूं, तेरी उल्फ़त में सनम
ढूंढ लेंगे हम मोहब्बत, तेरी नफ़रत में सनम

तू अदा-ए-हुस्न से वाकिफ़ नहीं है एक दिन
प्यार भर देंगे बहुत हम, तेरी फ़ितरत में सनम

आएगा वो वक्त भी इक दिन सुकूं और चैन का
होगा जब एहसास तुम को मेरी सोहबत में सनम

जान कर मुझ से खिंचे रहते हो बेशक रात दिन
होंगे हम भी संग संग दोनों कुर्बत में सनम

पास आना भी मेरे महफ़िल में तुम को है मुहाल
साथ चाहोगे कभी मेरा भी खिल्वत में सनम

ये जुदाई है खलिश बस चन्द दिन के वास्ते
हम समा जायेंगे इक दिन तेरी कुदरत में सनम.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
१७ मार्च २००७

कुर्बत—मिलन
मुहाल—मना, परहेज़
खिल्वत--एकांत



७७८. हाल-ए-दिल हम आप से कह भी नहीं सकते

हाल-ए-दिल हम आप से कह भी नहीं सकते
क्या करें बोले बिना रह भी नहीं सकते

पार दरया के हमें जाना तो है लेकिन
तैरना आता नहीं बह भी नहीं सकते

प्यार तो हम को बहुत है आप से गोया
ज़ुल्म-ओ- सितम आप के सह भी नहीं सकते

मकबरों से जीस्त को हासिल भला क्या है
खंडहर यादों के पर ढह भी नहीं सकते

है ज़माने से नहीं इंसाफ़ की उम्मीद
लांघ ज़माने की सतह भी नहीं सकते.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
१७ मार्च २००७







७७९. हर ग़म-ए-दुनिया से बेगाना हूं मैं

हर गम-ए-दुनिया से बेगाना हूं मैं
लोग कहते हैं कि दीवाना हूं मैं

मुझ से रूठी हैं बहारें, ग़म नहीं
गै़र की खुशियों में मस्ताना हूं मैं

रो के जीना भी जीना क्या भला
जो जले हंस के वो परवाना हूं मैं

आसमां में जो कभी न उड़ सका
बन्द पिंजरे का वो अफ़साना हूं मैं

हिज्र का मौसम रहा हमदम मेरा
वस्ल के मौसम से अनजाना हूं मैं.

खूबसूरत और रंगीं हूं मगर
जो रहा खाली वो पैमाना हूं मैं

जो ख़ता की ही नहीं उस का खलिश
बिन कोई इलज़ाम हरजाना हूं मैं.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
१८ मार्च २००७








७८०. यूं न छिप कर के हमें तड़पाइये—-१९-४-०७ की (गैर-मुरद्दफ़) गज़ल ई-कविता को १९-४-०७ को प्रेषित


यूं न छिप कर के हमें तड़पाइये
आइये अब सामने आ जाइये

देख कर दिल के फ़फ़ोलों को मेरा
गम बढ़ाने को न यूं मुसकाइये

इक झलक से ही सुकूं मिल जायेगा
हम को न इतना सनम तरसाइये

आओगे तुम है हमें ये एतबार
किस तरह दिल को मगर समझाइये

राख कर सकते हैं ये शोले खलिश
आशिकों के दिल से मत टकराइये.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
१८ मार्च २००७








७८१. मेरे नसीब को आ कर जगा गया कोई—-१९-३-०७ की गज़ल ई-कविता को १९-३-०७ को प्रेषित


मेरे नसीब को आ कर जगा गया कोई
नयी इक शम्म इस दिल में जला गया कोई

नज़र की राह से देखा नहीं जिसे अब तक
राह-ए-ख्वाब से दिल में समा गया कोई

हिले न हौंठ न पर्दा उठा निगाहों से
दिलों के राज़ बिन बोले बता गया कोई

नहीं तदबीर मिलने की कोई है सूझती
अनोखी याद से हम को सता गया कोई

बन गया दुश्मन ख़लिश बचपन मेरा
जब जवानी को दिखा गया कोई.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
१८ मार्च २००७

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from Shyamal Kishor Jha <shyamalsuman@yahoo.co.in>
date 19 Mar 2007 19:55:32 -0700


खलिश साहब,

हिले न हौंठ न पर्दा उठा निगाहों से
राज़ दिल के बिन बोले बता गया कोई

बहुत अच्छी पंक्तियाँ हैं। बधाई।

मिलते जुलते अंदाज में दो पंक्तयाँ-

कायर है होंठ कितना कहकर भी कह न पाता।
आँखें बताती सब कुछ और खिलखिलाता दर्पण।।
सादर
श्यामल सुमन

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७८२. भुला देते हैं जो ग़म को वो हम ने ख्वाब देखे हैं—-२१-३-०७ की गज़ल ई-कविता को २१-३-०७ को प्रेषित


भुला देते हैं जो गम को वो हम ने ख्वाब देखे हैं
खुशी को लूट लें जो हम ने वो आदाब देखे है

मुलाकातें वो देखी हैं फ़कत जो चन्द दिन की हैं
जनम दर जनम के रिश्ते खलिश नायाब देखे हैं

हैं ऐसे भी ज़फ़ा जिन को मिली है सिर्फ़ फ़ितरत में
बिछुड़ कर भी वफ़ा करते हैं जो सुर्खाब देखे हैं

हैं कुछ ऐसे भी जो चढ़ जायें सूली इश्क की खातिर
मोहब्बत तर्क करने को भी कुछ बेताब देखे हैं

किसी की आंख से कतरा नहीं बहता खलिश हम ने
डुबा दें सब जहां, अश्कों के वो सैलाब देखे हैं.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
१९ मार्च २००७

आदाब= तरीके, ढंग
सुर्खाब= चातक
सुर्खाब=बाढ़
तर्क करना= तोड़ना, काट देना, समाप्त करना






७८३. अंधेरी और होगी रात जितनी भी जवां होगी-- बिना तिथि की कविता, ई-कविता को १९-३-०७ को प्रेषित


अंधेरी और होगी रात जितनी भी जवां होगी
उठेगा दर्द दिल में तो गज़ल खुद ही रवां होगी

मोहब्बत हो अगर सच्ची निगाहें ढूंढ ही लेंगी
मेरे महबूब की सूरत ज़माने में जहां होगी

न राज़ेमुफ़लिसी उस को बताना हम को लाज़िम था
नहीं मालूम था वो हम से इतनी सरगिरां होगी

मिसालेपाक हम समझा किये जिस को मोहब्बत की
न सोचा था ज़फ़ा उस के ही दिल में यूं निहां होगी

खलिश अब वक्त चुकता है बढ़ा आता है अन्धियारा
सुबह मैं और कलम मेरी ये न जाने कहां होगी.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
१९ मार्च २००७








७८४. चाहत कोई इंसानी है चाहत कोई रूहानी है-- बिना तिथि की कविता, ई-कविता को १९-३-०७ को प्रेषित


चाहत कोई इंसानी है चाहत कोई रूहानी है
है फ़र्क बहुत इन दोनों में पर समझाना बेमानी है

जो प्यार सभी से होता है उस में रूहानी फ़ितरत है
रुखसारों से जो होता है वो इश्क फ़कत इंसानी है

कुछ लोग खुदा से डरते हैं कुछ इश्क, इबादत करते हैं
समझो मालिक रहनुमा उसे बस राह यही दरम्यानी है

ढूंढे कोई मन्दिर मस्जिद में कोई ढूंढे संगम काबा में
जो खुद में खुदा तलाशे है वो ही इक सच्चा ज्ञानी है

इंसान इबादत, पर सूफ़ी तो इश्क खुदा से करता है
यह राज़ खलिश रूहानी है क्योंकर इस में हैरानी है.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
१९ मार्च २००७








७८५. मैं गीत अपना बज़्म में गाता चला गया—-२०-३-०७ की गज़ल ई-कविता को २०-३-०७ को प्रेषित


मैं गीत अपना बज़्म में गाता चला गया
हर अजनबी को अपना बनाता चला गया

चलती रही कलम मेरी बनता रहा कलाम
जज़्बात से हर्फ़ों को गर्माता चला गया

जो दर्द मेरे दिल में था वो नज़्म में ढल के
महफ़िल में सब की रूह में छाता चला गया

मेरी गज़ल दिलों में उतरती चली गयी
ताब अश्क की आंखों में मैं लाता चला गया

लिखा था मैंने दिल का हाल जिस के वास्ते
मैं उस के सिवा सब को सुनाता चला गया

वो रोये न तो क्या, ज़माना तो है रो रहा
ये सोच खलिश दिल को समझाता चला गया.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
१९ मार्च २००७







P७८६. बड़ी मुश्किल से दिल की बेकरारी को करार आया—-२२-३-०७ की गज़ल ई-कविता को २०-३-०७ को प्रेषित


बड़ी मुश्किल से दिल की बेकरारी को करार आया
गया था रूठ कर जो लौट के वो मेरा यार आया

न उस ने अब तलक ख़त न कोई सन्देस भेजा है
मेरे दिल में खयाल उस का न जाने कितनी बार आया

गया वो क्या कि मेरी सब खुशी ही ले गया संग में
बुलाने उस को उस की याद में ग़म बेशुमार आया

सुबह से शाम तक का वक्त तो कट जाये है लेकिन
मुझे रातों की तनहाई में रोना जा़र-जा़र आया

इधर नैनों से मेरे रात दिन बरसात होती है
फ़िज़ाओं में उधर ज़ालिम वो मौसम-ए-बहार आया

बिछुड़ कर यार मेरा जब से जा के दूर बैठा है
ख़लिश लगता है मैं अपना वज़ूद ही जैसे हार आया.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
२१ मार्च २००७



००००००००००००००

roop hans <roophanshabeeb@yahoo.com> wrote:
Khalish Bhai, " mujhe ratoN ki tanhaai meN rona zaar zaar aayaa..."
bahut hi khoob milaaya hai.daad len, aur main bhi apni dukki milaye deta hun ,
"idhar toDa hai mera dil uski bewafayee ne.
udhar ab lout kar mousame-bahaar aayaa.../'Habeeb'

००००००००००००००

from Ghanshyam Gupta <gcgupta56@yahoo.com
date 23 Mar 2007 17:48:52 -0700

महेश जी की गज़ल रचना सं० ७८६ के सभी शे'र मेरी निगाह में भी अच्छे हैं।

- घनश्याम

००००००००००००००



७८७. चला जाऊंगा महफ़िल से न मुझ को याद तुम करना--१७-४-०७ की गज़ल ई-कविता को १७-४-०७ को प्रेषित

चला जाऊंगा महफ़िल से मुझे तुम याद न करना
मेरी खातिर ये दौलत अश्क की बरबाद न करना

मेरा क्या है कहीं रह लूंगा इस दुनिया में या उस में
गज़ल चलती रहे महफ़िल में दिल नाशाद न करना

गज़ल की शान पर तुम को कसम है आंच न आये
कसौटी पर खरी न हो तो तुम इरशाद न करना

ज़माना क्यों रुके उस के लिये वापस न जो आये
मेरी यादों को अपने दिल में तुम आबाद न करना

फ़सल जो बोई है उस को ही लाज़िम काटना होगा
मेरी रूह को मिले ज़न्नत खलिश फ़रियाद न करना.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
२२ मार्च २००७











७८८. ऐ गम-ए-दिल क्या करूं तू ही बता अब क्या करूं --२२-३-०७ का नगमा ई-कविता को २३-३-०७ को प्रेषित

हर घड़ी दुनिया के गम को सह के भी मैं क्या करूं
चुप भी मैं कैसे रहूँ और कह के भी मैं क्या करूं
गम भरी दुनिया में दो दिन रह के भी मैं क्या करूं
ऐ गम-ए-दिल क्या करूं तू ही बता अब क्या करूं

मेरी उल्फ़त की तुम्हारी आंख में कीमत नहीं
भूल जाऊं मैं तुम्हें इस दिल की ये सीरत नहीं
और पास आने की भी लगती कोई सूरत नहीं
ऐ गम-ए-दिल क्या करूं तू ही बता अब क्या करूं

आज मेरी इक झलक तरसे तुम्हारी आंख को
एक पत्ता आज भारी पड़ गया है शाख को
कौन भर पाएगा मेरे दिल के इस सूराख को
ऐ गम-ए-दिल क्या करूं तू ही बता अब क्या करूं

हमसफ़र कोई नहीं संगी नहीं साथी नहीं
ज़िन्दगी मेरी है तनहा और मुलाकाती नहीं
आज कोई भी नज़र मुझ तक पहुंच पाती नहीं
ऐ गम-ए-दिल क्या करूं तू ही बता अब क्या करूं

मैं दिल-ए-बरबाद पर कैसे खुशी बरपा करूं
आलम-ए-तनहाई में ऐ दिल बता मैं क्या करूं
सर्द काली रात में परछाई से डरता फिरूं
ऐ गम-ए-दिल क्या करूं तू ही बता अब क्या करूं

मेरी वीरानी को कोई तो कभी रोशन करे
कोई तो हो जिस के बैठूं पास जब भी मन करे
जो मुझे बहलाये मेरे दर्द-ए-दिल को कम करे
ऐ गम-ए-दिल क्या करूं तू ही बता अब क्या करूं

आज मैं सड़कों पे फिरता कोई भी अपना नहीं
तेरी सूरत के सिवा मेरा कोई सपना नहीं
कौन सी है रात जब गम सहना तड़पना नहीं
ऐ गम-ए-दिल क्या करूं तू ही बता अब क्या करूं

पांव में ताकत नहीं दो गाम अब चल भी सकूं
हमसफ़र मिल जाये तो ही ज़िन्दगी मैं जी सकूं
देख कर पलकों को जिस की चाक दिल को सी सकूं
ऐ गम-ए-दिल क्या करूं तू ही बता अब क्या करूं

मानता हूं मैं बहुत मुझ पर तेरा एहसान है
तू भी कहता है कि तू ही मेरा निगाहबान है
किसलिये फिर ज़िन्दगी में आज ये तूफ़ान है
ऐ गम-ए-दिल क्या करूं तू ही बता अब क्या करूं

मेरे जीने पे न जाने आज क्यों एतराज़ है
मुखतलिफ़ दुनिया का मुझ से नुक्ता-ए-अन्दाज़ है
पंख कट जायें तो कैसे हो सके परवाज़ है
ऐ गम-ए-दिल क्या करूं तू ही बता अब क्या करूं

मैं तेरी दुनिया से इक दिन दूर यूं हो जाऊंगा
एक गुज़रे वक्त की मानिन्द नहीं आऊंगा
जाते जाते भीगी पलकों से तराना गाऊंगा
ऐ गम-ए-दिल क्या करूं तू ही बता अब क्या करूं

वक्त-ए-रूख्सत इत्तिला कर के न तुम को जाऊंगा
यूं ही सहरा में भटकता मैं कहीं खो जाऊंगा
अश्क चुक जायेंगे सूखे होंठ ही मर जाऊंगा
ऐ गम-ए-दिल क्या करूं तू ही बता अब क्या करूं

झेला मुझ दीवाने को ऐ दोस्त मेरे शुक्रिया
और न तकलीफ़ दूंगा मेरे हमदम शुक्रिया
तेरे दम पे जी लिया अब तक बहुत मैं शुक्रिया
ऐ गम-ए-दिल क्या करूं तू ही बता अब क्या करूं.

०००००००००

मजाज़ का लिखा मूल नगमा—

ऐ गम-ए-दिल क्या करूं ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूं

शहर की है रात मैं नौशाद-ओ-नाकारा फिरूं
जगमगाती जागती सड़कों पे आवारा फिरूं
गैर की बस्ती है कब तक दर-ब-दर मारा फिरूं
ऐ गम-ए-दिल क्या करूं ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूं

झिलमिलाते कुमकुमों की राह में जन्ज़ीर सी
रात के हाथों में दिन की मोहिनी तसवीर सी
मेरे सीने पर मगर जैसे कोई शमशीर सी
ऐ गम-ए-दिल क्या करूं ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूं

रात हंस हंस के ये कहती है कि मयखाने में चल
फिर किसी शहनाज़-ए-लाला-रोख के कहसाने में चल
ये नहीं मुमकिन तो फिर ऐ दोस्त वीराने में चल
ऐ गम-ए-दिल क्या करूं ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूं

एक महल की आड़ से निकला वो पीला माहताब
जैसे मुल्ला का अमामा जैसे बनिये की किताब
जैसे मुफ़लिस की जवानी जैसे बेवा का शबाब
ऐ गम-ए-दिल क्या करूं ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूं

ये रूपहली छांव ये आकाश पर तारों का जाल
जैसे सूफ़ी का तसव्वुर जैसे आशिक का खयाल
आह लेकिन कौन समझे कौन जाने जी का हाल
ऐ गम-ए-दिल क्या करूं ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूं

रास्ते में रूक के दम लूं ये मेरी आदत नहीं
लौट कर वापस चला जाऊं मेरी फ़ितरत नहीं
और कोई हमनवा मिल जाये ये किस्मत नहीं
ऐ गम-ए-दिल क्या करूं ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूं

*****
महेश चन्द्र गुप्त खलिश
२३ मार्च २००७
०००००००००००००००००००००००००

from roop hans <roophanshabeeb@yahoo.com>
date Mar 23, 2007 3:30 PM

Mar....ve...llous...! Marhawwaa...! Khalish Sahib bahut khoobsurat bahut baDiya. aapko to films men songs writtings ka kaam karna chahiye.aur ab aik dukki meri bhi daad ke tour par qubool karen.
" hamne maana zindagi ik tera aihsaan hai,
Or uspe tu yeh kahta tu hi nigahebaan hai,
fir bataa kayon aaya zindagi meN tufaan hai..." ai game dil kaya karun.?/'Habeeb'

००००००००००

from roop hans <roophanshabeeb@yahoo.com>
date 23 Mar 2007 03:33:22 -0700

"aik patta aaj bhari paD gaya hai shaakh ko..."
Khalish bhai aik baar aur is line ke liye daad qubool karen. aur shukria "to make my day", yahan din hai usa men is waqat.aur aaj yehi geet zuban par rahega; shayad kai din tak bhi.poori nazam likhdene se aaur maza aayega./'Habeeb'

00000000000000

from Ghanshyam Gupta <gcgupta56@yahoo.com>
date Mar 24, 2007 6:13 AM

महेश जी,

रचना बहुत सुन्दर है, बधाई। मजाज़ की नज़्म में दो-तीन जगह मामूली से बदलाव मैंने अपनी समझ से कर दिये हैं।










७८९. कल जैसा बीता क्यों बीता जो कल होगा कैसा होगा--२४-३-०७ का नगमा ई-कविता को २४-३-०७ को प्रेषित

कल जैसा बीता क्यों बीता जो कल होगा कैसा होगा
हम इस चिन्ता में पड़े रहे तो ऐसा न वैसा होगा

कर्तव्य मार्ग पर डटे रहो शुभ कर्म सदा करते जाओ
तुम कर्ता नहीं न सोचो कि यूं करूं तो फिर ऐसा होगा

अपने को कर्ता मानोगे फल पे अधिकार जताओगे
तो कर्मों से बन्ध जाओगे सब ऐसे का तैसा होगा

जब अंत समय आयेगा तो भव सागर को तरना होगा
जो तुम को पार लगायेगा वह मत समझो पैसा होगा

गीता का ज्ञान सार्थक है अधिकार कर्म पर हो केवल
फल की इच्छा मत करो खलिश अच्छा होगा जैसा होगा.
महेश चन्द्र गुप्त खलिश
२४ मार्च २००७

०००००००००००००

from roop hans <roophanshabeeb@yahoo.com
date 24 Mar 2007 01:17:11 -0700

Khalish Bhai bahut hi gahri aur sachch se bhari
anoobhooti hai. daad len/'Habeeb'

०००००००००००००००
from Shyamal Kishor Jha <shyamalsuman@yahoo.co.in>
date 25 Mar 2007 03:03:17 -0700

खलिश साहब,

आपकी काव्य लेखन शक्ति को नमन करते हुएः

यह पल जैसा बीत रहा प्रायः कल वैसा होगा।
कवि तो आते जाते हैं पर दूजा खलिश नहीं होगा।।

निरन्तर लिखते रहें इसी शुभकामना के साथ
सादर
श्यामल सुमन

00000000000000








P७९०. बहुत दिन सोचता था हाथ में खन्जर उठाऊंगा--२७-३-०७ का नगमा ई-कविता को २७-३-०७ को प्रेषित
बहुत बहुत सोचा किया मैं हाथ में खन्जर उठाऊंगा
कभी गम सह न पाऊंगा तो सीने में बिठाऊंगा

मुझे लगता था उस की याद यूं कर देगी सौदाई
करूंगा खुदकुशी इक दिन ये दुनिया छोड़ जाऊंगा

यही महसूस होता था कि सारी ज़िन्दगी अब तो
मैं आलम-ए-तन्हाई में सदा आंसू बहाऊंगा

मेरे दिल में यही इक ख्याल रह रह कर के आता था
बिना महबूब के मैं ज़िन्दगी कैसे बिताऊंगा

०००

मगर मुझ पर करम अल्लाह ने कुछ इस कदर बख्शे
गुज़रती अब तलक जो ज़िन्दगी थी फ़ख्त बेमानी

वो अब खाली नहीं है नूर उस में भर दिया अपना
मेरे मालिक मेरे अल्लाह बहुत मुझ पर मेहरबानी

बसाया दर्द मेरे दिल में औरों का यूं मौला ने
कि अपने दर्द को मैं आज दिल से भूल बैठा हूं

बड़ी तौफ़ीक़ है उस की भुला के रंज-ओ-गम अपना
भरी दुनिया से मैं बाहोश इतनी बात कहता हूं

खलिश हद से गुज़र जाये तो गम की रात चुकती है
नज़र-ए-रहम पर उस की ये कायनात लुटती है.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश, २४ मार्च २००७

२४ मार्च २००७







७९१. याद आती हैं वो रुखसार पे छातीं ज़ुल्फ़ें-- बिना तिथि की कविता, ई-कविता को २४-३-०७ को प्रेषित

याद आती हैं वो रुखसार पे छातीं ज़ुल्फ़ें
काली बदली में कोई चान्द छुपातीं ज़ुल्फ़ें

ये जो काटें तो कोई बच ही न पाये इन से
किसी नागिन की तरह चाल दिखातीं ज़ुल्फ़ें

बाल इक भूले से बांका न कभी हो इन का
कत्ल महफ़िल में सरेआम मचातीं ज़ुल्फ़ें

इन की ज़ानिब तो ज़माना ही खिंचा आता है
अपनी जब शोख अदा से हैं बुलाती ज़ुल्फ़ें

जश्न-ए-सालाना पे दौलत तो लुटाते हैं अमीर
दौलत-ए-हुस्न हर एक शाम लुटातीं ज़ुल्फ़ें

इन में ज़ालिम ने कोई शोले छिपा रखे हैं
वरना क्यों आग सी पानी में लगातीं ज़ुल्फ़ें

जिन की ताबीर समझना ही नहीं है मुमकिन
ख्वाब पल भर में हज़ारों हैं जगातीं ज़ुल्फ़ें

पेच-ओ-खम इन के बुलन्दी पे रहें ये है दुआ
ताज शाहों के खलिश पल में झुकातीं ज़ुल्फ़ें.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
२४ मार्च २००७
तर्ज़—
भूल सकता है भला कौन ये प्यारी आंखें
रंग में डूबी हुई नीन्द से भारी आंखें
०००००००००००००००

from roop hans <roophanshabeeb@yahoo.com>
date 25 Mar 2007 21:27:16 -0700

Wahhhh ! Khalish Bhai aapne to kamaal kar diya aapki yeh zulphen bahut pasand aayee , daad len/'Habeeb'

०००००००००००००००





७९२. मैं एक दिन खामोश जो हो जाऊं भी तो क्या-- बिना तिथि की कविता, ई-कविता को २४-३-०७ को प्रेषित


मैं एक दिन खामोश जो हो जाऊं भी तो क्या
दुनिया की भीड़ में कहीं खो जाऊं भी तो क्या

है कौन जो दामन से मेरे अश्क भी पौंछे
हो कर परेशां दर्द से रो जाऊं भी तो क्या

कोई नहीं सहलाये या लोरी सुनाये जो
पावों में हौं छाले, थकूं सो जाऊं भी तो क्या

खा लेंगे सब समर, जला डालेंगे सब शज़र
कू-ए-चमन में बीज जो बो जाऊं भी तो क्या

मिल जायेंगे पल भर में लाखों दाग फिर खलिश
रो रो के दाग दिल के गर धो जाऊं भी तो क्या.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
२४ मार्च २००७

समर--फल; शज़र--पेड़

०००००००००००००००००००










७९३. हारा हुआ हूं बाजी पशेमान तो नहीं--२६-३-०७ की गज़ल, ई-कविता को २६-३-०७ को प्रेषित


हारा हुआ हूं बाजी पशेमान तो नहीं
मुफ़लिस हूं पर बेचा अभी ईमान तो नहीं

गम से मैं घबराता नहीं कह दूं ये किस तरह
मैं भी तो इक इंसान हूं भगवान तो नहीं

सामान-ए-दिल्लगी मुझे भी कुछ तो चाहिये
वादी मेरे दिल की हुई सुनसान तो नहीं

सड़कों पे आ गया हूं तो दुत्कारते क्यों हो
इंसान हूं मैं भी कोई हैवान तो नहीं

बूढ़ा हुआ तो क्या हुआ कुछ तो करो खयाल
मालिक हूं मैं घर का कोई दरबान तो नहीं

माना खलिश आते नहीं आदाब-ए-अमीरी
नज़रों से न गिरायें मैं शैतान तो नहीं.


महेश चन्द्र गुप्त खलिश
२४ मार्च २००७

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from roop hans <roophanshabeeb@yahoo.com>
date Mar 26, 2007 9:06 AM
Khalish Bhai,
"Ham zamane men yaro be-imaN na huye.
haiwanoN men rahe par haiwaN na huye.
hare huye bhi ham bazi jeete huye hain,
nazaroN se gire kayonki ham shaitaN na huye.../"Habeeb'
Bahut khoob daad len.

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७९४. हम को न आसमान से लायें ज़मीन पर--२८-३-०७ की गज़ल, ई-कविता को २८-३-०७ को प्रेषित

हम को न आसमान से लायें ज़मीन पर
क्यों ग़म जहां के आ के उठायें ज़मीन पर

आज़ाद पखेरू हैं हम इंसान किसलिये
पिंजरे में बन्द कर के सतायें ज़मीन पर

हैं रास्ते ज़मीन के इतने घुमावदार
राहों को भूल कर न खो जायें ज़मीन पर

हम रहते हैं आगोश में वादी-ओ-चमन के
कुदरत से दूर हम न हो जायें ज़मीन पर

है परबती हवाओं में रहती हमारी गूंज
क्यों पत्थरों को तान सुनायें ज़मीन पर

औकात हमारी नहीं इंसान के आगे
गर्दन मरोड़ पंख सजायें ज़मीन पर

इंसान तो इंसान को भी हज़्म कर जाये
हम को खलिश क्यों मार न खायें ज़मीन पर.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
२४ मार्च २००७







७९५. औलाद से मां बाप को हो आस किसलिये--२५-३-०७ की गज़ल, ई-कविता को २५-३-०७ को प्रेषित


औलाद से मां बाप को हो आस किसलिये
खिदमत करेगा कोई ये विश्वास किसलिये

दिल में हज़ार ख्वाहिशों की गन्दगी भरी
पाकीज़गी का बाहरी लिबास किसलिये

ग़र काम है अच्छा तो फिर बेखौफ़ कीजिये
चोरी छिपे तकना ये आस पास किसलिये

ग़म गल्त करना हो तो जाम पीजिये ज़रूर
खोना ज़नाब होश-ओ-हवास किसलिये

हम भी वही हैं और ग़म-ए-रात भी वही
अन्दाज़ आप के मगर हैं खास किसलिये

कुर्बान सादगी पे खलिश दिल ये क्यूं न हो
तड़पा के पूछते हैं हो उदास किसलिये.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
२४ मार्च २००७

तर्ज़—मिट्टी से खेलते हो बार बार किसलिये









७९६. आप तारीफ़ मेरी जो करते रहे मैं हकीकत से ही दूर हो जाऊंगा-- बिना तिथि की गज़ल, ई-कविता को २५-३-०७ को प्रेषित


आप तारीफ़ मेरी जो करते रहे मैं हकीकत से ही दूर हो जाऊंगा
तल्ख दुनिया की सच्चाई को भूल कर ख्वाब की वादियों में मैं खो जाऊंगा

रास्ते इस जहां के हैं कांटॊं भरे जो चला उस के पांवों से धारे बहे
पांव सहलाऊंगा खार चुन जाऊंगा और फूलों को राहों में बो जाऊंगा

गम तो यूं हैं सभी को मगर मेरा गम है ज़माने में कितने ही लोगों से कम
गम न कर पाया कम जो किसी और का चार आंसू ही संग उस के रो जाऊंगा

राह लम्बी बहुत मन्ज़िलें दूर हैं चल रहा हूं खलिश जानता हूं मगर
पांव थक जायेंगे सांस रुक जायेगी वक्त आयेगा राहों में सो जाऊंगा.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
२५ मार्च २००७





७९७. मैं अकेला ही राहों में चलता रहा--२९-३-०७ की गज़ल, ई-कविता को २९-३-०७ को प्रेषित


मैं अकेला ही राहों में चलता रहा
सांझ आती गयी सूर्य ढलता रहा

मैं तो चलने को तैय्यार कब से खड़ा
वक्त फिर भी विदाई का टलता रहा

संग चलना तुम्हें न गवारा हुआ
ख्याल कांटों का ही तुम को खलता रहा

तुम समझते रहे चुप मैं अनजान हूं
दिल मेरा बेवफ़ाई से जलता रहा

दोस्त तो वह बना कुछ मगर इस तरह
मूंग सीने पे मेरे ही दलता रहा

जाने अफ़सोस था या वो आक्रोश था
अश्केतनहाई में जो निकलता रहा

गीत खुशियों के जग को सुनाता गया
दर्द मूक आंसुओं में पिघलता रहा

दूर दुनिया से आ सोचता हूं ख़लिश
जग मुझे या कि मैं जग को छलता रहा.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
२८ मार्च २००७

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from Ripudaman Pachauri <pachauriripu@yahoo.com>
date Mar 30, 2007 12:03 AM

aakari do sher behad pasand aaye.

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७९८. ग़म-ए-सहरा से मुझ को शिकायत नहीं---१६-४-०७ की गज़ल, ई-कविता को १६-४-०७ को प्रेषित


ग़म-ए-सहरा से मुझ को शिकायत नहीं
यूं भी दिल में खुशी की रवायत नहीं

मुफ़लिसी की मुझे कोई परवाह नहीं
दौलतों की मुझे है हिमायत नहीं

ज़ुर्म तो जांचिये फिर सज़ा दीजिये
चाहता मैं किसी से रियायत नहीं

खींचिये हाथ खर्चे से पहले मगर
प्यार के मामलों में किफ़ायत नहीं

कुछ शरम-ओ-हया तो खलिश कीजिये
ये है हिन्दोस्तां कोई विलायत नहीं.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
२८ मार्च २००७
०००००००००००००००००००

from roop hans <roophanshabeeb@yahoo.com>
date 15 Apr 2007 23:07:50 -0700

gam-e- sahra se mujhko shikayat nahin, shikayat aapse hai.
yun bhi dil men khushi ki rawayat nahin, rawayat aapse hai.
ye hai Hindustan koi Vilayat nahin, sach poochho to meri jaN,
Hindustan men hi rahte huye bhi Meri VILAYAT aapse hai.../'Habeeb"

Bahut khoob Khalish sahib , aapki gazal se hamne aapke dil
ka raz jan liya.. umda gazal hai , is gazal ke pahle sheyer se shuru kar ke Kawaali , Main KHUD sari raat kisi ko udhne na dun, sharat yeh ki aap ki shadi ho../ Mar'rhawa/Jio/'Habeeb'


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७९९. सोचा था हम ने ग़म के दिन अब दूर हो गये---१५-४-०७ की गज़ल, ई-कविता को १५-४-०७ को प्रेषित


सोचा था हम ने गम के दिन अब दूर हो गये
खुशियों के रंग-ओ-नूर में हम चूर हो गये

लगता था ग़म की फ़ौज़ हम से डर के जा छिपी
हम यूं समझ बैठे कि मानो तूर हो गये

जो ज़िन्दगी में चाहिये सब हम ने पा लिया
ऐसे ही ख़यालात से मग़रूर हो गये

इस बद-ख़याली का हमें ऐसा सिला मिला
फिर एक बार ग़म से हम मामूर हो गये

इलज़ाम औरों पे नहीं खुद हम पे आज है
अपने ही दिल के हाथ हम मज़बूर हो गये

दौलत गुज़ारे लायक काफ़ी है ख़लिश फिर भी
पर यूं गया दिल का सुकूं बेनूर हो गये.

तूर—बहादुर, सूरमा
मगरूर—घमन्डी
मामूर—भरा हुआ

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
२८ मार्च २००७


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from Ghanshyam Gupta <gcgupta56@yahoo.com>
date 15 Apr 2007 16:17:19 -0700

महेश जी,

आपकी गज़ल (रचना सं० ७९९) का ये शे'र पसन्द आया :-

जो ज़िन्दगी में चाहिये सब हम ने पा लिया
ऐसे ही खयालात से मगरूर हो गये

- घनश्याम

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८००. चला जाता हूं सबसे दूर अब वापस न आऊंगा---१०-४-०७ की (गैर-मुरद्दफ़) गज़ल, ई-कविता को १०-४-०७ को प्रेषित--RAMAS


चला जाता हूं सबसे दूर अब वापस न आऊंगा
गले मिल लो न लौटूंगा न फिर सूरत दिखाऊंगा

बिताऊंगा मैं तनहाई में अपने रात-दिन सारे
लबों पर कोई नग़मा अब खुशी का मैं न लाऊंगा

खि़जां से हो चुकी है दोस्ती अब इस कदर मेरी
बहारें देख कर अब मैं कभी न मुस्कुराऊंगा

कोई जब हाल पूछेगा ज़ुबां पे होगी खा़मोशी
किसी से कुछ न बोलूंगा सिरफ़ आंसू बहाऊंगा

रहूं चुप ही तो है बेहतर वरन् कैसे ख़लिश सबको
जुदाई क्यों हुई इसका सबब नाहक सुनाऊंगा.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश --Reverse
२८ मार्च २००७

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from Shyamal Kishor Jha <shyamalsuman@yahoo.co.in>
date 10 Apr 2007 06:45:37 -0700

खलिश साहब,

चला जाता हूं सब से दूर अब वापस न आऊंगा
गले मिल लो न लौटूंगा न फिर सूरत दिखाऊंगा

ऐसा न कहें। अभी आपकी जरूरत है हम सबको। मैं तो आपके लिए कहूँगा कि-

रोज मैं गीत नया गाता हूँ।
सोने वाले को ही जगाता हूँ।
आँधियाँ आतीं जातीं रहतीं हैं,
दीप को दीप से जलाता हूँ।।

वैसे अच्छी रचना के लिए बधाई।
सादर
श्यामल सुमन




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