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Rated: E · Book · Emotional · #1510374
Second part of Hindi poems in Hindi script, mainly ghazals, from 701-1225.
#626949 added December 31, 2008 at 4:54am
Restrictions: None
Poems / ghazals , no. 801- 825 in Hindi script

८०१. तसवीर जो वो दे गये थे वक्त-ए-जुदाई--३०-३-०७ का नग़मा, ई-कविता को ३०-३-०७ को प्रेषित

तसवीर जो वो दे गये थे वक्त-ए-जुदाई
देखा जो उस को याद उन की और भी आयी

थी याद उन की गर्म और आंसू भी गर्म थे
तसवीर ठंडी सख्त उन के गाल नर्म थे

वो खुद ही इक नग़मा थे और तसवीर बेजुबान
तसवीर थी बेरंग, उन में लाख रंग की शान

जो बात उन में है वो इक तसवीर में नहीं
क्या अब झलक उन की मेरी तकदीर में नहीं

माना कि उन के सामने तसवीर है नाचीज़
फिर भी खलिश तसवीर उन की है बहुत अज़ीज़.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
२९ मार्च २००७
००००००००००००००
On 3/31/07, kusum sinha <kusumsinha2000@yahoo.com> wrote:
khalishji
namaskar
asha hai aap maje me honge. kitna achha likhte hain
aap?kash ki mai bhi etna achha likh pati? bhagwan
aapko khub swasth rakhe aur aap aise hi likhte rahen
kusum
०००००००००००

from kusum sinha <kusumsinha2000@yahoo.com
date Mar 31, 2007 8:43 PM

khalishji
namaskar
asha hai aap maje me honge. yun to aapki har gazal
mujhe bahut achhi lagti hai. par maine us tasvirvali
gazal ke bare me. likha tha.aise hi likhte rahiye aur
thoda ashirwad mujhe bhi den jisse mai bhi achha likh
sakun

kusum

०००००००००००००००००००००००





८०२. ज़िन्दगी को कोई जीने का बहाना चाहिये--९-४-०७ की गज़ल, ई-कविता को ९-४-०७ को प्रेषित


ज़िन्दगी को कोई जीने का बहाना चाहिये
ग़म की जब हो इन्तहा तो मुस्कराना चाहिये

देखने को ख्वाब तो कोई मनाई है नहीं
हाथ में कौड़ी हो तो हीरा बताना चाहिये

क्या मिला है अश्क-ओ-आहों से किसी को आज तक
दिल में चाहे दर्द हो तो भी छुपाना चाहिये

दर्द दिल का बांटने वाले ज़माने में कहां
घाव न हर्गिज़ कभी दिल का दिखाना चाहिये

जो खुशी चेहरे पे होगी दिल में आयेगी ज़रूर
राग दुनिया को नहीं ग़म का सुनाना चाहिये

प्यार ज़ुल्फ़ों का सभी यूं तो ख़लिश ढूंढें मगर
प्यार दुनिया में गरीबों का कमाना चाहिये.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
२९ मार्च २००७

०००००००००००००००००

from Shyamal Kishor Jha <shyamalsuman@yahoo.co.in
date 09 Apr 2007 13:48:03 -0700

खलिश साहब,

ज़िन्दगी को कोई जीने का बहाना चाहिये
गम की जब हो इन्तहा तो मुस्कराना चाहिये

हमेशा की तरह फिर एक सुन्दर रचना। बधाई।
सादर
श्यामल सुमन

०००००००००००००००००












८०३. मैं खुशी के गीत गा सकता नहीं--१-४-०७ की गज़ल, ई-कविता को १-४-०७ को प्रेषित--RAMAS


मैं खुशी के गीत गा सकता नहीं
ज़िन्दगी, मैं मु्स्कुरा सकता नहीं

लुट चुकी है इस तरह दुनिया मेरी
ख़्वाब कोई मैं सजा सकता नहीं

दोस्त करना माफ़ इन हालात में
मैं गले तुमको लगा सकता नहीं

ये नहीं मुमकिन बुलाऊं मैं तुम्हें
और तुम्हारे पास आ सकता नहीं

आस सब दिल की ख़लिश अब बुझ चुकी
और ग़म मैं अब उठा सकता नहीं.


महेश चन्द्र गुप्त खलिश
३० मार्च २००७






८०४. नाक-ओ-गर्दन की हिफ़ाज़त हर बशर को चाहिये—बिना तिथि की गज़ल, ई-कविता को ३०-३-०७ को प्रेषित


नाक-ओ-गर्दन की हिफ़ाज़त हर बशर को चाहिये
ज्यों हिफ़ाज़त समर की हर इक शज़र को चाहिये

जो न होगा समर तो फिर हो शज़र क्यूंकर भला
खाक में दाना मिला पूरे असर को चाहिये

रक्स-ए-आईना से खिल सकता नहीं ज़ोर-ए-शबाब
नज़र कोई और भी कमसिन नज़र को चाहिये

काफ़िया, रदीफ़ ही काफ़ी नहीं इक गज़ल को
एक अच्छा सा वज़न भी हर बहर को चहिये

अपने पैरों ही सभी को रास्ते चलने हैं पर
हमसफ़र फिर भी खलिश लम्बे सफ़र को चाहिये.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
३० मार्च २००७

बशर--आदमी
समर--फल
शज़र--वृक्ष
दाना--बीज
रक्स-ए-आईना-- दर्पण के सामने नृत्य
ज़ोर-ए-शबाब--सुन्दरता का आधिक्य

००००००००००००००००००

from Dinesh Parte <parte@bheledn.co.in>
date 30 Mar 2007 20:33:20 -0700

उम्दा...!
क्या बात है..!!
किसी एक शेर की क्या कहें....सभी एक से बढ़कर एक हैं.. खासकर मत्ला...!
अर्ज़ किया है....

ना सही सुघड़ ना सही लचकदार...
थोड़ा सा बल तो मगर हर कमर को चाहिये

(कुछ ज़्यादा रसिक हो गया लगता हूँ तो माफ़ी....आज बैंगलोर में मौसम ही कुछ ऐसा है..!)

-दिनेश पारते
००००००००००००
from santosh kumar <ksantosh_45@yahoo.co.in>
date Mar 31, 2007 2:15 PM

Gupt Ji,
Nak ya Gala Namak meri kavita aapako achhi lagi isake liye
mai aapaka aabhari huN.Aapaka protsahan mera lekhan TONIC sidhha
hoga. Aap naye vishhay per turant Gajal likhane ke maharthi hai. badhayee.
E-mail font mai dikkat mai bhi mahsoos kar raha hooN.
Santosh Kumar Singh
००००००००००००००००

from Devi Nangrani <devi1941@yahoo.com>

date Apr 2, 2007 1:40 AM

Maheshji

bahut hi acha laga yeh sher

काफ़िया, रदीफ़ ही काफ़ी नहीं इक
गज़ल को

एक अच्छा सा वज़न भी हर बहर को
चहिये
Agar Vazan daalne ki pratha shuroo ki jai to kaisa rahega???
seekhne kikhane ke liye acha khayaal hai
2122, 2122, 2122, 212
something like this
regards

Devi







८०५. मुमकिन था गम के दरया में गिरते हम ऐसे बह जाते--३-४-०७ की गज़ल, ई-कविता को ३-४-०७ को प्रेषित

मुमकिन था गम के दरया में गिर के हम ऐसे बह जाते
आने से एक लहर जैसे घर बने रेत के ढह जाते

एक किया इशारा जो तुम ने दिल की धड़कन हो गयी रवां
वरना हम बैठ किनारे ही दरया को तकते रह जाते

न आप अगर मिलते हम को जीते थे हम तनहाई में
बहलाने वाला कोई न था दिल में ही सब गम सह जाते

एहसान तेरा ऐ सुखनवरी हम भी महफ़िल में शामिल हैं
सुनने वाला न होता तो गम किस से अपना कह जाते

उलटी हो गयी यूं चाल खलिश हम कैद हुए अपने घर में
वरना हम भी नादान न थे दे कर मात और शह जाते.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
३० मार्च २००७



८०६. सुखनवरी भी मिली, सुखनवर भी मिले—बिना तिथि की गज़ल, ई-कविता को ३०-३-०७ को प्रेषित


सुखनवरी भी मिली, सुखनवर भी मिले
एक नियामत मिली उस की मेहर तले

बांह थामे अगर आप सा इक हसीं
ये कदम रास्ते में फिसलते भले

मेरी तनहाई कितनी वफ़ादार है
रोज़ आती दबे पांव सूरज ढले

हमसफ़र आ बहारों में हम घूम लें
कौन जाने कदम फिर चले न चले

हैं खलिश वक्त-ए-रुख्सत की सौगात ये
अश्क आंखों में फिर ये पले न पले.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
३० मार्च २००७
००००००००००००००००

from Ghanshyam Gupta <gcgupta56@yahoo.com
date Mar 31, 2007 5:23 AM

महेश जी,

"माफी" जैसी बात से तो मैं बिल्कुल ही काँटों में घसीटा गया। ये तो भाषा के व्याकरण की बात थी। वैसे मुझे तो यह भी लगता है कि यह भूल टँकण की थी, क्यों कि बाद में देखा कि मतलब समझाते वक्त नीचे आपने रक्स-ए-आईना ही लिखा है। रचना सं० ८०६ में यह शे'र अच्छा लगा,

बांह थामे अगर आप सा इक हसीं
ये कदम रास्ते में फिसलते भले

- घनश्याम







८०७. चान्द जब बदली में ये ढक जाये है--५-४-०७ की गज़ल, ई-कविता को ५-४-०७ को प्रेषित


चान्द जब बदली में ये ढक जाये है
ज़ुल्फ़-ओ-रुख तेरा मुझे याद आये है

कौन डर है जो ज़हन में है मेरे
प्यार तेरा क्यों मुझे भरमाये है

तोड़ दो तुम आज पर्दे का चलन
हुस्न क्यों महबूब से घबराये है

आये तो मिलने को हैं पर किसलिये
हौंठ कांपैं और नज़र कतराये है

और भी प्यारा लगे दिल को खलिश
हुस्न जब अपने से ही शर्माये है.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
३० मार्च २००७
००००००००००००००

from santosh kumar <ksantosh_45@yahoo.co.in>
date 05 Apr 2007 02:32:51 -0700

Khalish ji
Bahut achhee gajal hai. Vadhayee.
Santosh Kumar Singh







८०८. उन के आने से बहार इक आ गयी--२-४-०७ की गज़ल, ई-कविता को ३१-३-०७ को प्रेषित


उन के आने से बहार इक आ गयी
हर तरफ़ इक रौशनी सी छा गयी

बिजलियां गिरने लगीं दिल पर मेरे
जब नज़र से इक नज़र टकरा गयी

हम पलक झपके न बस देखा किये
जाने क्यों उन की नज़र शरमा गयी

याद उन की आयी आधी रात को
दिल मेरा तनहाई में तड़पा गयी

एक झलक पायी थी आंखों ने खलिश
ख्वाब पलकों में हज़ारों ला गयी.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
३० मार्च २००७





८०९. आवारा न वो बदमिज़ाज़ आतताई था--३१-३-०७ की गज़ल, ई-कविता को ३१-३-०७ को प्रेषित


आवारा न वो बदमिज़ाज़ आतताई था
कांटे जो चुभाता रहा मेरा ही भाई था

बेटी भी गयी हाथ से घर भी मेरा गया
घर से जो बेघर कर गया वो घरजवाई था

बहुएं निभातीं लाज का पर्दा भला कब तक
दुनिया में चार सू ही आलम-ए-बेहयाई था

बहरी है हुकूमत भला फ़रियाद क्या कीजे
हाकिम को देता दर्द मेरा कब सुनाई था.

दार-ओ-रसन की फांस कैसे मुझ पे आ गयी
हुक्म-ए-अदालत तो खलिश फ़ौरन रिहाई था.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
३१ मार्च २००७








८१०. गुनगुनाने को तो तराना ज़रूर चाहिये—बिना तिथि की गज़ल, ई-कविता को ३१-३-०७ को प्रेषित


गुनगुनाने को तो तराना ज़रूर चाहिये
बोल अपने हों न हों गाना ज़रूर चाहिये

न पियें न पीने वाले पर सड़क से क्या गुरेज़
मयकदे का रास्ता आना ज़रूर चाहिये

काबिल-ए-तारीफ़ है तौबा-ए-मय लेकिन कभी
जाम को हॊठों से लगाना ज़रूर चाहिये

बोतलॊं को मुंह लगाने से नहीं पचती शराब
नापने को एक पैमाना ज़रूर चाहिये

मुफ़लिसी में कोई भूखा रह नहीं सकता खलिश
चोरी का हो चाहे पर खाना ज़रूर चाहिये

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
३१ मार्च २००७






८११. न वो अब खुशबुएं ज़मानों में—बिना तिथि की गज़ल, ई-कविता को २-४-०७ को प्रेषित


न वो अब खुशबुएं ज़मानों में
इश्क बिकता है अब दुकानों में

जहां बीते जवानियों के दिन
नहीं अब चैन उन ठिकानों में

जाने वाला चला गया न कुछ
मिलेगा पांव के निशानों में

नये नगमों में अब नहीं जज़्बे
आओ कुछ लुत्फ़ लें पुरानों में

तर्क हम आज दोस्ती कर लें
रखा क्या है खलिश बहानों में.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
२ अप्रेल २००७
०००००००००००००००००

Devi Nangrani <devi1941@yahoo.com>
date 03 Apr 2007 12:11:54 -0700
Na vo ab khusbuein zamaanoN mein
Kuch to DUM aaj hai khizaaoN mein.

Dar se katraake chalte rahooN mein
Naksh kal chodte the asmaanon mein

Kya kisi ki ek line lekat tahahi gazal ki tarah likhne munasin hai
ya nahin..
Daad kabool
Devi
०००००००००००००००००००००००






८१२. तुम्हारा है नहीं जो क्यों उसे अपना बताते हो—४-४-०७ की एक रूहानी गज़ल, ई-कविता को ४-४-०७ को प्रेषित

तुम्हारा है नहीं जो क्यों उसे अपना बताते हो
जो अपना हो नहीं सकता उसे अपना बनाते हो

ये देह पुतला है माया का मगर इस में जो देही है
तुम्हें उस से ही मतलब है ये क्यों मन से भुलाते हो

तुम आये ईश के घर से वहीं पर लौट जाना है
यहीं रह जायेगा सब कुछ यहां क्यों मन लगाते हो


जो है परलोक की दौलत उसे जोड़ा नहीं तुम ने
यहां की दौलतों को देख कर क्यों मुस्कराते हो


लगाया मन नहीं तुम ने कभी सिमरन में सेवा में
खलिश यम पाश को क्यों देख कर अब छटपटाते हो.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
३ अप्रेल २००७

0000000000000

from Shyamal Kishor Jha <shyamalsuman@yahoo.co.in>

date 04 Apr 2007 08:30:08 -0700

खलिश साहब,

बहुत सुन्दर रचना है। बधाई।

तुम्हारा है नहीं जो क्यों उसे अपना बताते हो
जो अपना हो नहीं सकता उसे अपना बनाते हो

किसी शायर की दो पंक्तयाँ पेश है-

दुनियाँ का एतवार करें भी तो क्या करें।
आँसू भी अपनी आँख का अपना हुआ नहीं।।

सादर
श्यामल सुमन








८१३. क्या ऐसा दिन भी आयेगा—बिना तिथि की गज़ल, ई-कविता को ३-४-०७ को प्रेषित


नारी मनुष्य की कारक है
नारी जीवन की धारक है
नारी ही नर की पालक है.
कितने दिन और अभी नर इन
तथ्यों से आंख चुरायेगा?

बेटे को दूध पिलाती है
भाई का हाथ बंटाती है
पति को वह सुख पहुंचाती है.
है कौन जो उस का अपना दुख
अपना हो कम कर पायेगा?

जब चीख न निकले नारी की
न लुटे अस्मिता नारी की
सच में पूजा हो नारी की
मानवता तेरे पृष्ठों में
क्या ऐसा दिन भी आयेगा?

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
३ अप्रेल २००७











गुज़र जायेंगे दुनिया से कलम ये ठहर जायेगी
बिखर मेरी गज़ल-ए-ज़िन्दगी की बहर जायेगी

सुनाऊं क्या तुम्हें नग़मा कि मेरा साज़ है टूटा
रहेगा राग क्या जब सांस की ये लहर जायेगी

मेरी आंखों में मत झांको हैं इन में अश्क-अंगारे
नज़र ये एक दिन मेरी ढहाकर कहर जायेगी

न होंगे रात-दिन वो और न रंगीनिये-महफ़िल
वीराने में रहूंगा, यूं ही शाम-ओ-सहर जायेगी

ख़लिश वो चन्द लमहे उम्र भर मुझको न भूलेंगे
ग़ुमां न था कि शबेवस्ल दे के ज़हर जायेगी.








८१४. गुज़र जाऊंगा दुनिया से कलम ये ठहर जायेगी—६-४-०७ की गज़ल, ई-कविता को ६-४-०७ को प्रेषित


गुज़र जाऊंगा दुनिया से कलम ये ठहर जायेगी
बिखर मेरी गज़ल-ए-ज़िन्दगी की बहर जायेगी

सुनाऊं क्या तुम्हें नग़मा कि मेरा साज़ है टूटा
रहेगा राग क्या जब सांस की ये लहर जायेगी

मेरी आंखों में मत झांको हैं इन में अश्क-अंगारे
नज़र ये एक दिन मेरी ढहाकर कहर जायेगी

न होंगे रात-दिन वो और न रंगीनिये-महफ़िल
वीराने में रहूंगा, यूं ही शाम-ओ-सहर जायेगी

ख़लिश वो चन्द लमहे उम्र भर मुझको न भूलेंगे
ग़ुमां न था कि शबेवस्ल दे के ज़हर जायेगी.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
६ अप्रेल २००७

००००००००००००००

from Ripudaman Pachauri <pachauriripu@yahoo.com
date 06 Apr 2007 07:25:15 -0700

aapki yah gazal bahut acchii lagi, Dr. Guptaa.
khaas taur se pahalaa sher. waah !

००००००००००००००

from Shyamal Kishor Jha <shyamalsuman@yahoo.co.in>
date 05 Apr 2007 18:32:06 -0700

खलिश साहब,

सतत उच्च लेखनकर्म के लिए बधाई।

माना कि चमन को हम गुलजार न कर सके।
कुछ खार तो कम हुए गुजरे जिधर से हम।।
सादर
श्यामल सुमन
०००००००००००००००००००००००००









८१५. रवानी कब तलक जाने कलम में और बाकी है—७-४-०७ की गज़ल, ई-कविता को ७-४-०७ को प्रेषित


रवानी कब तलक जाने कलम में और बाकी है
अभी जो चल रही है वो मेहरबानी खुदा की है

नहीं परवाह मेरे पास सागर है न पैमाना
मेरे दिल को सुकूं देने को मेरे साथ साकी है

सभी आका बने हैं आज हिन्दोस्तां में किरकिट के
नहीं है खैरख्वाह कोई बहुत मायूस हाकी है

वो कहता है गरीबों को भी हक है पेट भरने का
है ये इलज़ाम उस पर कि बहुत वो इश्तराकी है

सुना है आजकल खुद को बड़ा शायर समझता है
बहुत फ़ितरत खलिश की आजकल लगती मज़ाकी है.

इश्तराकी = साम्यवादी

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
६ अप्रेल २००७





























P८१६. मेरे रुखसार को माहताब समझने वाले, मेरे दिल में न यूं सैलाब उठाया कीजे—८-४-०७ की गज़ल, ई-कविता को ८-४-०७ को प्रेषित

मेरे रुखसार को माहताब समझने वाले, मेरे दिल में न यूं सैलाब उठाया कीजे
न मैं दुनिया की हकीकत से परे हो जाऊं, न मुझे रोज़ नये ख्वाब दिखाया कीजे

इस ज़माने में फ़कत एक तुम्हीं हो मेरे, कहीं गै़रों की नज़र प्यार को न लग जाये
बेवफ़ाई न कहीं हम से खफ़ा हो जाये, न मुझे राग-ए-वफ़ा गा के सुनाया कीजे

मैंने सहरा-ओ-बियाबां का समां देखा है, मैं फ़िज़ाओं को बहारों को सम्हालूं कैसे
हुस्न गर हद से बढ़े शीशा चटक जाता है, मेरी शिद्दत-ए-खुशी यूं न बढ़ाया कीजे

बाद मुद्दत के बने राही उसी मन्ज़िल के, प्यार सच्चा है हमारा तो न हम होंगे जुदा,
हम तुम्हारे हैं दिल-ओ-जां से सनम मेरी कसम, रोज़ यूं प्यार की कसमें न खिलाया कीजे

मैंने झेले हैं मोहब्बत में सनम लाख सितम, मुझे गर तुम ने सहारा न दिया क्या होगा
जो कभी दिल को खलिश ठेस मेरे लग जाये, पौंछ कर अश्क मेरे, दिल से लगाया कीजे.

तर्ज़—
फिर ना कीजे मेरी गुस्ताख़ निगाहों का गिला
देखिये आप ने फिर प्यार से देखा मुझको
--साहिर, खैय्याम, फिर सुबह होगी, १९५८

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
७ अप्रेल २००७
००००००००००००००००००
दोस्तो,

हिन्दुस्तान की जनता जिस आब-ओ-हवा में पली-बढ़ी है, उस में मौसीकी, सुर, ताल, लय और राग की प्रधानता रही है. काव्य और संगीत भारतीयता की जान है. पुरानी फ़िल्मों में १६ गाने तक हुआ करते थे, हर एक गाना एक से एक बढ़ कर, विख्यात शायरों, संगीतज्ञों, गायकों द्वारा लिखा, संगीतबद्ध किया और गाया हुआ. यही उन गानों की और उन फ़िमों की सफ़लता का राज़ था.

कल एक ऐसे गज़लनुमा नगमे की रचना सहसा हो गयी जिसे मैंने गा के देखा तो स्वयं सराहे बिना न रह सका, जैसे कोई सुन्दरी दर्पण से वार्तालाप कर रही हो. बहुत देर सोचता रहा कि वह कौन सी धुन है जो दबी दबी सी उभर रही है पर स्पष्ट नहीं हो पा रही. आउर तब अचानक ही कुछ शब्द याद आये--देखिये आपने फिर प्यार से देखा मुझ को. इस के बाद तो गूगल महोदय ने क्षणों में गंतव्य तक पहुंचा दिया. जब इस गाने को गुनगुनाया तो दोनों गानों की धुन बिल्कुल एक समान निकली. निकलनी ही थी. आखिर, जितनी देर गज़ल लिखता रहा था, कोई भूली, अनजानी, पहचानी सी धुन अंतर्मन के नेपथ्य में लगातार गुन्जित हो रही थी.

गज़ल / नगमा पेश है. अंत में उस मशहूर फ़िल्मी गाने की तर्ज़ भी दी है जिस ने अनजाने ही इसे प्रेरित किया.

मेरा सुझाव है कि इस नगमे को सस्वर गाने की कोशिश करें तो कम से कम पुरानी पीढ़ी के पाठकों को उस गाने की याद सहसा ही आ जायेगी--

०००००००००००००००००००००
from "Laxmi N. Gupta" <lngsma@rit.edu>
date 08 Apr 2007 07:41:31 -0700
बहुत सुन्दर ग़ज़ल है, ख़लिश जी। बधाई।
लक्ष्मीनारायण
००००००००००००००००००००







८१७. था कभी जवां मैं भी मेरी बाहों में फ़ौलादी बल था—११-४-०७ की ‘दोहरी’ गज़ल, ई-कविता को ११-४-०७ को प्रेषित

था कभी जवां मैं भी मेरी बाहों में फ़ौलादी बल था
बेशक हूं हारा आज मगर बेजोड़ बुलन्दी पर कल था

ताकत मेरे अन्दाज़ों से हर वक्त टपकती थी ऐसे
दुनिया से टक्कर लेने को हर दम मैं रहता बेकल था

दूं बदल हमेशा को दुनिया दिल में अरमान यही था इक
औरों की छिपी बुराई को खोजा करता मैं पल पल था

जो आंख मून्द कर सोये हैं उन सब की नीन्द भगा दूंगा
मेरी नज़रों में खलिश यही दुनिया में गर्दिश का हल था
***
इन बूढे़ बालों ने लेकिन असलियत जताई है मुझ को
इंसां के ऊपर अल्लाह है यह सीख सिखाई है मुझ को

हो अक्ल भले चाहे तुम में मत समझो औरों को अहमक
खुद पर गरूर न करो कभी यह बात बताई है मुझ को

जो भी होता है उस सब में अल्लाह ताला की मर्ज़ी है
दुनिया की शय में रूहानी तसवीर दिखाई है मुझ को

जब भी मैं उस को भूला हूं और भटका हूं उस की राह से
परवरदिगार की रहमत की मय पाक पिलाई है मुझ को

क्या उस की महर बयान करूं बस इतना खलिश समझ लीजे
करने वाला तो अल्लाह है पर मिले भलाई है मुझ को.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
१० अप्रेल २००७
००००००००००००



८१८. रे मन तू क्यों न कहीं ठहरे—बिना तिथि की गज़ल, ई-कविता को १०-४-०७ को प्रेषित


रे मन तू क्यों न कहीं ठहरे
रे मन तू क्यों न कहीं ठहरे

कितना ही तुझ को समझाया
भले बुरे का ज्ञान बताया
हरि चरणों में तुझे लगाया
तू भागे तोड़ सभी पहरे
रे मन तू क्यों न कहीं ठहरे

घर ठहरूं या बन में जाऊं
व्रत साधूं या भर भर खाऊं
सिमरूं या हरि को बिसराऊं
तू ही कुछ कह रे
रे मन तू क्यों न कहीं ठहरे

जीवन बीता कुछ न पाया
खेती की पर फल न आया
पड़ी रही आंखों पर माया
पीर मेरी सह रे
रे मन तू क्यों न कहीं ठहरे
रे मन तू क्यों न कहीं ठहरे.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
१० अप्रेल २००७
०००००००००००

from shanoo <shanoo03@yahoo.com>
date Apr 11, 2007 12:11 PM
subject Re: रे मन तूं फ़िर उङ चला

बहुत खूब आपने मेरी रचना का सही उत्तर दिया है,...आप महान कवि है मै तो
अभी शिष्य ही हूँ इतना अच्छा नही लिख पाती,...बहुत-बहुत धन्यवाद,...

सुनीता(शानू)

०००००००००००००००००००






८१९. अहमक बता रहे हैं सब को आज तन के वो-- बिना तिथि की गज़ल, ई-कविता को ११-४-०७ को प्रेषित


अहमक बता रहे हैं सब को आज तन के वो
घूमते थे कल तलक नादान बन के वो

दो चार काफ़िये मिलाना आ गया है तो
खुद को समझ रहे हैं अब माहिर सुखन के वो

जिस का अलिफ़ बे उम्र भर हम सीखते रहे
उस्ताद दो दिन में ही बन बैठे हैं फ़न के वो

तारीफ़ के वो खुद ही अपने बान्धते हैं पुल
पर दाद देने में बहुत हैं छोटे मन के वो

तनख्वाह तो उन की नहीं है काबिल-ए-बयां
सरमायेदार हैं खलिश पर काले धन के वो.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
११ अप्रेल २००७
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from Rakesh Khandelwal <rakesh518@yahoo.com>
date 11 Apr 2007 10:01:38 -0700
subject Re: [ekavita] Dr subhash Bhadauria kr Gazal
महेशजी,
अच्छी रचना है आपकी. बधाई स्वीकारें.

राकेश
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८२०. कविता होती अन्तर्मन से यह सिर्फ़ कलम का खेल नहीं-- बिना तिथि की गज़ल, ई-कविता को ११-४-०७ को प्रेषित


कविता होती अन्तर्मन से यह सिर्फ़ कलम का खेल नहीं
तुम भावों को देखो मेरे लफ़्ज़ों में चाहे मेल नहीं

देखे हैं सुखनवर ऐसे भी जो बहर वज़न में उलझ रहे
है लौ में तो रौशनी मगर जिन के दीपक में तेल नहीं

इंसाफ़ है क्या मालूम नहीं कानून बनाने वालों को
ईसा चढ़ता है सूली पर और गद्दारों को जेल नहीं

पैसा और पाप पनपते हैं संग संग दोनों ही शहरों में
इस से तो गांव भले जिन में शहरों की रेलमपेल नहीं

गोरखधन्धा काले गोरे धन का हम समझ नहीं पाये
पर कर्म क्षेत्र की भूमि में हम पास हुए हैं फ़ेल नहीं

कवि का मन और कवि की कविता मत खलिश इन्हें तुम दूर करो
कवि का मन निर्मल रहने दो बोओ उस में विष बेल नहीं.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
११ अप्रेल २००७




८२१. हम जा के किस के दर भला गम को सुनाइये-- बिना तिथि की गज़ल, ई-कविता को ११-४-०७ को प्रेषित


हम जा के किस के दर भला गम को सुनाइये
क्यों दर्द-ए-दिल मालिक-ए-सितम को सुनाइये

अन्ज़ाम जानते हैं अपनी बेबसी का हम
फ़रियाद क्यों दुश्मन-ए-रहम को सुनाइये

हम तो हज़ूर कुछ नहीं कहते हैं आप से
पर इल्तज़ा है आप कुछ हम को सुनाइये

पूरी करेंगे ख्वाहिशें मर के भी आप की
फ़रमान अपना दीदा-ए-नम को सुनाइये

लिखी है खलिश खून-दिल में हम ने ये गज़ल
अब फ़ैसला खुद आप बज़म को सुनाइये

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
११ अप्रेल २००७









८२२. आप कहते हैं कि मेरा है कसूर-- बिना तिथि की गैर-मुरद्दफ़ गज़ल, ई-कविता को ११-४-०७ को प्रेषित

आप कहते हैं कि मेरा है कसूर
आप ही होंगे सही मेरे हज़ूर

आप गलती क्या है समझायें अगर
मान लेंगे बा-अदब उस को ज़रूर

यूं तो प्यादा भी बने फ़र्ज़ी वज़ीर
इल्म से भी है कभी आता सरूर

न समर पाये न छांह इक राहगीर
है बहुत ऊंचा शज़र यूं तो खज़ूर

आप शायर हैं बहुत आला मगर
क्यों सुखन का कीजिये इतना गरूर

है भले इंसान को लाज़िम खलिश
न कभी भूले सलीका-ओ-शऊर.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
११ अप्रेल २००७
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from Rakesh Khandelwal <rakesh518@yahoo.com>
date 12 Apr 2007 10:32:08 -0700

आपने बहुत बड़ी बात कही है महेशजी. सादर नमन स्वीकारें

आप कहते हैं कि मेरा है कसूर
आप ही होंगे सही मेरे हज़ूर
आप गलती क्या है समझायें अगर
मान लेंगे बा-अदब उस को ज़रूर

राकेश

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८२३. दुनिया का ठेकेदार कोई भी यहां नहीं-- बिना तिथि की गज़ल, ई-कविता को ११-४-०७ को प्रेषित


दुनिया का ठेकेदार कोई भी यहां नहीं
मत भूल उस खुदा को वो जाने कहां नहीं

दुनिया का अपने आप को समझे है तू लीडर
सहरा में छोड़ पायेगा अपना निशां नहीं

जिस के बमों ने रौन्द डाले हैं हज़ारों घर
उस का भी बच पायेगा इक दिन आशियां नहीं

दो गिर गये टावर ये हादसा था शर्मनाक
वाज़िब था लेकिन भेजना फ़ौज़ें वहां नहीं

इखलाक-ओ-इंसाफ़-ओ-असूल से खलिश
जो बेखबर हो हश्र उस का खुशनुमां नही.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
११ अप्रेल २००७










८२४. वफ़ा के नाम पर लो ये ज़हर भी पी लिया मैंने—१४-४-०७ की गज़ल, ई-कविता को १४-४-०७ को प्रेषित


वफ़ा के नाम पर लो ये ज़हर भी पी लिया मैंने
बिना महबूब की मर्ज़ी के अब तक जी लिया मैंने

तुम्हारे मयकदे में जाम तो थे सैंकड़ों लेकिन
मेरी किस्मत में अश्केजाम था खाली, लिया मैंने

लगा इलज़ाम मुझ पर आज है जो बेवफ़ाई का
वो झूठा ही सही इकरार कर लब सी लिया मैंने

कहूंगा न किसी से क्या वज़ह थी तर्केउल्फ़त की
ये वादा आज अपने आप से कर ही लिया मैंने

ख़लिश पूछे अग़र कोई किया बरबाद है किस ने
कसम मुझ को तुम्हारा नाम हरगिज़ भी लिया मैंने.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
१२ अप्रेल २००७















८२५. मेरा आलम-ए-बरबादी चमन को भी न रास आया—१२-४-०७ की गज़ल, ई-कविता को १२-४-०७ को प्रेषित


मेरा आलम-ए-बरबादी चमन को भी न रास आया
खिला जो फूल गुलशन में नज़र मुझ को उदास आया

बिता दी उम्र ही इस आस में कि वो पलट आये
गया जो छोड़ कर मुझ को न हरगिज़ मेरे पास आया

किसी के शौक की खातिर गयी इक जान मुर्गे की
मुल्ला ने कहा खा कर नहीं कुछ स्वाद खास आया

जो उन की याद आई तो लगा एकबारगी मुझ को
कि जैसे भूख से बेहाल के मुंह कोई ग्रास आया

न बाजी मैं कभी जीता वो दिल की हो या किस्मत की
बहुत रंगीन महफ़िल से खलिश हो कर हताश आया.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
१२ अप्रेल २००७







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