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Rated: E · Book · Emotional · #1510374
Second part of Hindi poems in Hindi script, mainly ghazals, from 701-1225.
#626953 added December 31, 2008 at 5:33am
Restrictions: None
Poems / ghazals , no. 826- 850 in Hindi script


८२६. मैं जब से किसी के हृदय भा गयी-- बिना तिथि की गज़ल, ई-कविता को १२-४-०७ को प्रेषित


मैं जब से किसी के हृदय भा गयी
मुझ को जाने ये कैसी अदा आ गयी

अनखिली इक कली एक कोने पड़ी
फूल बन के बहारों पे मैं छा गयी

आप की दृष्टि मेरे बदन पर पड़ी
मैं घड़ों चान्दनी एक पल न्हा गयी

बस गयी जो मेरी श्वास के तार में
मैं अमर प्रेम की वह सुधा पा गयी

दूर कौन्धी है बिजली कहीं पर मगर
क्यों मेरा दिल खलिश आज तड़पा गयी.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
१२ अप्रेल २००७
















८२७. मिले हैं हर तरफ़ धोखे ज़माने में मुझे अब तक—१३-४-०७ की गज़ल, ई-कविता को १३-४-०७ को प्रेषित


मिले हैं हर तरफ़ धोखे ज़माने में मुझे अब तक
नहीं मैं जानता छलना, छला जाऊंगा मैं कब तक

जुबां को खोलना आसां है उस को रोकना मुश्किल
यही बेहतर है घर की बात न पहुंचे कभी सब तक

खुदा की ताकतों को किस तरह पहचान पाओगे
गरूर अपने ही दम खम का सतायेगा तुम्हें जब तक

न जब तक खुश उसे कर पाऊं जो मालिक है इक मेरा
उसी की शान में सज़दा किये जाऊंगा मैं तब तक

न पूछो मेहरबानी किस तरह पाओगे मालिक की
तुम्हें इंसान की खिदमत खलिश पहुंचाएगी रब तक.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
१२ अप्रेल २००७
०००००००००००००००००

from Shyamal Kishor Jha <shyamalsuman@yahoo.co.in>
date 13 Apr 2007 07:03:26 -0700

खलिश साहब,

मिले हैं हर तरफ़ धोखे ज़माने में मुझे अब तक
नहीं मैं जानता छलना, छला जाऊंगा मैं कब तक

बहुत सुन्दर। बधाई।

कहीं से चुनकर लायी दो पंक्तियाँ-

जब से देखी है जमाने की इनायत मैंने।
बडी मुश्किल से की है दामन की हिफाजत मैंने।।
सादर
श्यामल सुमन







८२८. शहरी सुबह—२७-६-०७ की कविता, ई-कविता को २७-६-०७ को प्रेषित


शहरों मे भोर नहीं होती
बस एक ऊदा सा सूरज है
जो अलसाया सा रहता है
सब उस को दूर भगाते हैं
खिड़की के रंगीं पर्दों से
आंखों के काले चश्मे से
और मुंह चादर में ढकने से.

चिड़ियों का वह संगीत नहीं
पनघट चरखी का गीत नहीं
जंगल जाने की रीत नहीं
जब सूरज न रुक पाये है
बरबस घर में घुस आये है
प्याला तब चाय का आये
और शहरी सुबह को लाये.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
१४ अप्रेल २००७






८२९. जोश-ए-जवानी—१८-४-०७ की कविता, ई-कविता को १८-४-०७ को प्रेषित

बदल दूंगा ज़माने को कभी यह बात कहता था
सभी पर वार करता था कभी न दर्द सहता था
सभी को चूर करने का रगों में जोश बहता था
मेरे बाजू में ताकत थी सदा मदहोश रहता था

जकड़ के इस तरह मुझ को ज़ुनूं ने आज छोड़ा है
नदी जो राह में आई है धारा उस का मोड़ा है
कोई दिल हो कि शीशा हो उसे पत्थर से तोड़ा है
सिरफ़ तोड़ा है, काटा है, न कुछ दुनिया में जोड़ा है

मगर अब सोचता हूं क्या ज़माने को बदल पाया
चला ता-उम्र न ख्वाबों की मन्ज़िल का महल पाया
चला था कत्ल करने और खुद को ही कतल पाया
नहीं दुनिया बदलने को खलिश मैंने सहल पाया.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
१७ अप्रेल २००७

०००००००००००००

from Sameer Lal <sameerlal_1@yahoo.com

date Apr 19, 2007 7:03 AM


बदल दूंगा ज़माने को कभी यह बात कहता था

मैं केवल वार करता था कभी न दर्द सहता था

--बहुत खूब शेर कहा है आपने. दाद कबूलें.

सादर
समीर लाल
००००००००००००००००००








८३०. हर दाद आप की मुझे दिल से कबूल है---- बिना तिथि की गज़ल, ई-कविता को २३-४-०७ को प्रेषित


हर दाद आप की मुझे दिल से कबूल है
औरों की दाद आप के आगे तो धूल है

औरों की दाद न मिले परवाह नहीं मुझे
दाद आप की मिली तो मुझे सब वसूल है

है आप से सुखनवरों ने हौसला दिया
तो आज खिल उठा मेरे नगमों का फूल है



इरशाद आप ने कहा तो सोचता हूं मैं
मैंने सही सुना या कुछ सुनने की भूल है

आप की निगाह ने फूलों से भर दिया
कांटों से भरा था खलिश तो वो बबूल है.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
१८ अप्रेल २००७









८३१. मुझ को मेरी तकदीर ने कैसा बनाया है---- बिना तिथि की गज़ल, ई-कविता को १८-४-०७ को प्रेषित

मुझ को मेरी तकदीर ने कैसा बनाया है
दौलत नहीं बस सिर्फ़ गम मैंने कमाया है

माना कि अपनों ने मुझे बेगाना कर दिया
बेगानों को मैंने मगर अपना बनाया है

दिल में लगाये हैं रफ़ीकों ने बहुत नश्तर
मैंने रकीबों को भी गले से लगाया है

मुझ को ज़माने ने फ़कत बख्शी हैं तल्खियां
दुनिया को मैंने प्यार का नगमा सुनाया है

गो मेरा पुर-पैबन्द, फटेहाल है लिबास
गज़लों से महफ़िल को मगर मैंने सजाया है

मुमकिन नहीं था सहरा को गुलज़ार कर देना
कांटों को राहों से खलिश मैंने हटाया है.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
१८ अप्रेल २००७






८३२. जाऊं कहां—२०-४-०७ की नज़्म, ई-कविता को २०-४-०७ को प्रेषित


कल तलक मैं ज़िन्दगी की दौड़ में भागा किया
खुद कमाया और खुद खरचा, न कुछ मांगा किया
जब भी चाहा सो गया जब जी किया जागा किया
शौक पूरा शौकखाने में बिना नागा किया

आज दर पे शौकखाने के खड़ा नाकाम हूं
जेब खाली है सड़क पर फिर रहा बदनाम हूं
पैर में ताकत नहीं मैं हो गया बेदाम हूं
लोग कहते हैं कि मैं खुद पे ही इक इलज़ाम हूं

आज दिल बैचैन है पर मैं सुकूं पाऊं कहां
मैं इलाज़-ए-ज़िन्दगी अब किस से करवाऊं कहां
किस बशर को दाग दिल के जा के दिखलाऊं कहां
कोई तो मुझ को बता दे अब खलिश जाऊं कहां.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
२० अप्रेल २००७






८३३. जो कल तलक दुश्मन थे आज यार बन गये—२१-४-०७ की गज़ल, ई-कविता को २१-४-०७ को प्रेषित

जो कल तलक दुश्मन थे आज यार बन गये
जो फांस थे गले की आज हार बन गये

उन की नज़र को कल तलक तरसा किये मगर
हम आज उन के प्यार के हकदार बन गये.

जिन की न थी मज़ाल एक लफ़्ज़ भी बोलें
खम ठोक आज सामने दमदार बन गये

सिक्कों में तौलते हैं वो हर एक शख्स को
जज़्बात उन के वास्ते व्यौपार बन गये

पहले भी तोपची नहीं थे यूं तो कुछ खलिश
जब से हुए हैं शायर हम बेकार बन गये.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
२१ अप्रेल २००७






८३४. आप से है यही विनती मेरे प्रभु, मुझ को कांटों में चलना सिखा दीजिये—२२-४-०७ की एक भक्ति-गज़ल, ई-कविता को २२-४-०७ को प्रेषित


आप से है यही विनती मेरे प्रभु, मुझ को कांटों में चलना सिखा दीजिये
मैं न चाहत में सुख की ही फिरता रहूं, मुझ को कष्टों को सहना सिखा दीजिये

मन पे पर्दा पड़ा है मेरे मोह का, हर कदम पे है माया बुलाती मुझे
पाप की राह से बच निकलता रहूं, मुझ को शुभ कर्म करना सिखा दीजिये

धर्म की राह से नित गुज़रता रहूं, अपने मन से ही मैं आप डरता रहूं
सब को मरना है यूं तो प्रभु एक दिन, दीन की हेत मरना सिखा दीजिये

ये जहां जब तलक मुझ में होगा निहां, चैन मुझ को न हरगिज़ मिलेगा कभी
आप को ही मैं दिल में बसाता चलूं, मन का संताप हरना सिखा दीजिये

ये ज़माना प्रभु एक जन्जाल है, इस में उलझा हूं मेरा अजब हाल है
आयु बीती मगर कुछ न सीखा खलिश, मुझ को सागर से तरना सिखा दीजिये.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
२१ अप्रेल २००७
जहां = संसार
निहां = छिपा हुआ
सागर =भव सागर

०००००००००००००००

from sunita sharma <shanoo03@yahoo.com
date Apr 22, 2007 11:55 AM

bahut sundar likha hain,..kuch line jiyada acchi lagi,..

ये जहां जब तलक मुझ में होगा
निहां, चैन मुझ को न हरगिज़
मिलेगा कभी

आप को ही मैं दिल में बसाता चलूं,
मन का संताप हरना सिखा दीजिये

ये ज़माना प्रभु एक जन्जाल है, इस
में उलझा हूं मेरा अजब हाल है

आयु बीती मगर कुछ न सीखा खलिश,
मुझ को सागर से तरना सिखा
दीजिये.
sunita(shanoo)

०००००००००००००००००००









८३५. वो क्या गये हमारा कद्रदान न रहा—बिना तिथिकी गज़ल, ई-कविता को २१-४-०७ को प्रेषित


वो क्या गये हमारा कद्रदान न रहा
आंखें हैं सूनी इन में अब मेहमान न रहा

काफ़िर नज़र ने आज कैसा ज़ुल्म कर दिया
ऐसा लुटा मैं दीन और ईमान न रहा

सहरा में फ़िज़ाओं का रंग फिर से छा गया
वो आये अब दिल का चमन वीरान न रहा

जब से खुदा ने मुझ को अपना नूर दे दिया
मैं सामने जहां के पशेमान न रहा

यूं आलम-ए-रूहानी मेरे दिल पे छा गया
दिल में खलिश मेरे कोई अरमान न रहा.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
२१ अप्रेल २००७








८३६. उन से नज़र मिली हसीन भूल हो गयी—२६-४-०७ की गज़ल, ई-कविता को २६-४-०७ को प्रेषित

उन से नज़र मिली हसीन भूल हो गयी
शुरुआत-ए-इश्क की अजीब तूल हो गयी

दिल में अकड़ थी हूं किसी फ़ौलाद का बना
आगे झुकी निगाह के वो धूल हो गयी

चुभते रहे कांटे मुझे तनहाई के अब तक
अब ज़िन्दगी मानिन्द एक फूल हो गयी

कट जायेगा अब हमसफ़र के संग ये सफ़र
मुश्किल पहाड़ सी बहुत मामूल हो गयी

मैंने सभी असूल खलिश तर्क कर दिये
महबूब की नज़र ही अब असूल हो गयी.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
२१ अप्रेल २००७









८३७. दाद आप की मिली तो यूं सरूर आ गया—बिना तिथिकी गज़ल, ई-कविता को २१-४-०७ को प्रेषित


दाद आप की मिली तो यूं सरूर आ गया
महफ़िल में जैसे एक नया रंग छा गया

कुछ आप ने कहा न हौंठ आप के हिले
दिल को लगा पयाम ज्यों कोई सुना गया

दिल न किसी को देंगे हमें था बहुत गरूर
ये क्या हुआ कि आज कोई दिल को भा गया

नज़रों से दूर है कोई पर दिल के पास है
ख्वाबों में आ के प्यार का नगमा जो गा गया

उस के बिना ये ज़िन्दगी लगती है अब फ़िज़ूल
ऐसे मुकाम पर खलिश वो दिल को ला गया.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
२१ अप्रेल २००७







८३८. हाथों में उसके यूं तो इक फूलों का हार था –RAMAS—ईकविता, २३ अप्रेल २००७

हाथों में उस के यूं तो इक फूलों का हार था
न जाने उस के दिल में क्यों शिकवा हज़ार था

जिस ने दिखाया रास्ता और राह में लूटा
वो कोई और नहीं इक बचपन का यार था

नज़रों से बेरुखी का देता ही रहा पयाम
बातों में गोया प्यार उस की बेशुमार था

अन्दाज़ेगुफ़्तगू से उस ने साफ़ कर दिया
वो तर्क करने को मोहब्बत बेकरार था

जो आज बन बैठा है मेरी जान का दुश्मन
वो कल तलक कहने को मेरा ग़मगुसार था

माज़ी के धुंधलके में एक बात साफ़ है
वो इश्क नहीं सिर्फ़ इक बेज़ा खुमार था

सूनी है नज़र आज जिस में था हसीन ख्वाब
है एक दयार आज कल दूजा दयार था.

जो वक्त उस के संग बिताया था ख़लिश कभी
वो रंजोग़म से दूर कितना ख़ुशग़वार था.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
२१ अप्रेल २००७

०००००००००००००००००००००००

from Sitaram Chandawarkar <smchandawarkar@yahoo.com>
date Apr 24, 2007 7:02 AM


डॉ. गुप्त जी,

क्या खूब! आप की ग़ज़ल के मत्ले किसी का शेर याद आया:

जिस के हाथों में कल मैं दे आया था फूल
उसी के हाथों का पत्थर मेरी तलाश में है

सस्नेह
सीताराम चंदावरकर



८३९. ज़िन्दगी में मेरी बचा क्या है—बिना तिथिकी गज़ल, ई-कविता को २१-४-०७ को प्रेषित


ज़िन्दगी में मेरी बचा क्या है
चन्द सांसों में अब रखा क्या है

उस ने रस्म-ए-ज़फ़ा ही सीखी है
वो नहीं जानता वफ़ा क्या है

अपनी क्यूंकर सफ़ाई दूं सब को
मुझे दे दो मेरी सज़ा क्या है

जो उजाड़े है अपना घर उस का
नाम इंसान के सिवा क्या है

एक अजब बू-ए-खूं-ए-इंसां है
आज दुनिया की ये हवा क्या है

क्या करेगा इलाज़ वो दिल का
जो नहीं जानता दुआ क्या है

मैं हूं खादिम तेरा बता मुझ को
मेरे मालिक तेरी रज़ा क्या है

हार बैठे हैं चारागर सारे
"आखिर इस दर्द की दवा क्या है."

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
२१ अप्रेल २००७
















P८४०. न तुम मेरी तरफ़ देखो न मेरे पास आओ तुम—२४-४-०७ की गज़ल, ई-कविता को २४-४-०७ को प्रेषित--RAMAS


न तुम मेरी तरफ़ देखो, न मेरे पास आओ तुम
गयी यादों की मुझको याद फिर से मत दिलाओ तुम

ये सच है कि कभी हम एक ही रस्ते से गुज़रे थे
मुझे भूली हुई राहों में न फिर से बुलाओ तुम

सुकूं सहरा में कितना है, चमन के लोग क्या जानें
फ़िज़ां-ओ-वादियों के ख्वाब मुझको मत दिखाओ तुम

रहा मैं उम्र भर प्यासा कि अब तो पड़ गयी आदत
भरे ये जाम उल्फ़त के न अब मुझको पिलाओ तुम

मुझे भी रास थीं खुशियां जवानी के ज़माने में
मधुर मुस्कान से मुझको ख़लिश अब मत लुभाओ तुम.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
२३ अप्रेल २००७






०००००००००००००००००००००

from santosh kumar <ksantosh_45@yahoo.co.in>

date Apr 25, 2007 4:24 PM
Khalish ji,
Bahut he achchi rachana hai.Esake liye mai VADHAYEE deta huN.
Santosh Kumar Singh
०००००००००००००००००००००००००










८४१. प्रेम का प्रमाणपत्र --बिना तिथिकी गज़ल, ई-कविता को २३-४-०७ को प्रेषित


मुझ को तुम बुला रहे हो किसलिये
याद तेरी आ रही है इसलिये

पास आ गयी तो क्या करेंगे हम
सैर बाग-ए-इश्क में करेंगे हम

पर प्रमाण पत्र तो दिखाइये
पहले हम को देख मुस्कराइये

देखिये हमारी मुस्कराहटें
आओ छिपें आ रहीं हैं आहटें

पहले तुम प्रमाण पत्र लाओ जी
उस के बाद इश्क तुम जताओ जी.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
२३ अप्रेल २००७
















८४२. एक नन्ही अभिलाषा—२५-४-०७ की कविता, ई-कविता को २५-४-०७ को प्रेषित


कुछ श्वास घुटन से दूर मुझे इन झोंकों में ले लेने दो
नदिया की शीतल धारा में कुछ देर मुझे बह लेने दो
उन्मुक्त कंठ से मुझ को भी तुम जग में कुछ कह लेने दो
जो कहूं,
सब कुछ कहूं;
कुछ कुछ क्यों कहूं

धरती माता के आंगन में क्रीड़ा करना सब का हक है
बढ़ना, खिलना, विकसित होना, कुसुमित होना सब का हक है
कुछ स्वप्न सजाना और उन्हें पूरा करना सब का हक है
जो करूं
सब कुछ करूं
कुछ कुछ क्यों करूं

हैं इन्द्र धनुष में रंग कितने क्यों मुझ को हों वे बेमानी
सौ फूल खिले हैं उपवन में क्यों रहूं गंध से अनजानी
मधुपान करूं भंवरे सी मैं रस-स्वाद चखूं मैं मनमानी
जो चखूं
सब कुछ चखूं
कुछ कुछ क्यों चखूं.

जो कहूं,
सब कुछ कहूं;
कुछ कुछ क्यों कहूं

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
२५ अप्रेल २००७
• नन्ही कवियित्री कीर्तना संकर की निम्न कविता से प्रेरित—

पंछी चहचहाते हैं जैसे
नदिया बहती है वैसे
जो कहूं, सब कुछ कहूं; कुछ कुछ क्यों कहूं
पंछी चहचहाते है जैसे
नदिया बहती है वैसे
जो कहूं, सब कुछ कहूं; कुछ कुछ क्यों कहूं
पौधे झूमते हैं जैसे
हवा सरसराये वैसे
जो कहूं, सब कुछ कहूं; कुछ कुछ क्यों कहूं
तितली घूमती है वैसे
सूरज रोशनी देता है वैसे
सागर लहराये वैसे
चॉद चमचमाये वैसे
जो कहूं, सब कुछ कहूं, कुछ कुछ क्यों कहूं
सूरज निकलता है जैसे
फूल खिलता है वैसे
पंछी चहचहाते हैं जैसे
नदिया बहती है वैसे
जो कहूं, सब कुछ कहूं; कुछ कुछ क्यों कहूं
---
०००००००००००००००००००००००








८४३. तुम्हारी नज़र क्यों खफ़ा हो गयी--बिना तिथिकी गज़ल, ई-कविता को २५-४-०७ को प्रेषित

तुम्हारी नज़र क्यों खफ़ा हो गयी
खता बख्श दो गर खता हो गयी

हमारा इरादा तो कुछ भी न था
खफ़ा आप हैं ये सज़ा हो गयी

हंसी देख कर आप के हौंठ पर
लगा आप की भी रज़ा हो गयी

हमारी अदा सिर्फ़ अनजान थी
अजब इश्क का ये सिला हो गयी

खलिश माफ़ कीजे सरेआम अब
महफ़िल में ये इल्तज़ा हो गयी.
न्मुक्त कंठ उन_,_.
महेश चन्द्र गुप्त खलिश
२५ अप्रेल २००७

• पहली तीन पंक्तियां साहिर लुधियानवी के निम्न मशहूर गाने की हैं—

तुम्हारी नज़र क्यों खफ़ा हो गयी
खता बख्श दो गर खता हो गयी
हमारा इरादा तो कुछ भी न था
तुम्हारी खता खुद सज़ा हो गयी

सज़ा ही सही आज कुछ तो मिला है
सज़ा में भी इक प्यार का सिलसिला है
मोहब्बत का कुछ भी अन्ज़ाम हो
मुलाकात ही इल्तज़ा हो गयी

मुलाकात पे इतने मगरूर क्यों हो
हमारी खुशामद पे मज़बूर क्यों हो
मनाने की आदत कहां पड़ गयी
सताने की तालीम क्या हो गयी

सताते न हम तो मनाते ही कैसे
तुम्हें अपने नज़दीक लाते ही कैसे
इसी दिन का चाहत को अरमान था
कबूल आज दिल की दुआ हो गयी.
---[फ़िल्म—दो कलियां; रफ़ी, लता]
००००००००००००००००००

from roop hans <roophanshabeeb@yahoo.com>
date Apr 25, 2007 7:35 AM
Khalish bhai agar Sahir Ludhianawi ki ungali pakaD ke chaloge to usi ki tarah ho jaoge. bahut khoob surat likha aapne.Main aik aise aadami ko janta hun jo siraf filmon ke ganon ki nakal par likhta tha 20 saal pahle vo filmi dunia men mash'hoor ho gaya ham apni leek ke fakeer hi rahe./'Habeeb'
०००००००००००००००००००००००००

















P८४४. वो आये ज़िन्दगी में और आकर चले गये—२७-४-०७ की गज़ल, ई-कविता को २७-४-०७ को प्रेषित--RAMAS


वो ज़िन्दगी में आये और आकर चले गये
इक शम्म मेरे दिल में जलाकर चले गये

है शम्म दिल में और परवाना भी है दिल ही
कैसा तिलस्म हाय सजाकर चले गये

सहरा ही किस्मत में बदा है जानते थे हम
क्यों हम को सब्ज़ बाग दिखाकर चले गये

आबाद उनके नाम से हमने किये थे ख़्वाब
क्या मिल गया उन्हें जो मिटाकर चले गये

मांगी थी हम ने प्यार की बस रौशनी ख़लिश
वो आग ज़िंदगी में लगाकर चले गये.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
२६ अप्रेल २००७
तर्ज़—
उन के खयाल आये तो आते चले गये
दीवाना ज़िन्दगी को बनाते चले गये



००००००००००००००

from Shyamal Kishor Jha <shyamalsuman@yahoo.co.in>
date Apr 28, 2007 5:52 AM

खलिश साहब,

आबाद उन के नाम से हम ने किये थे ख्वाब
क्या मिल गया उन्हें जो मिटा कर चले गये

क्या बात है? बधाई।
सादर
श्यामल सुमन







८४५. उम्मीद की उम्मीद भी अब टूटने लगी—२१-६-०७ की गज़ल, ई-कविता को २१-६-०७ को प्रेषित


उम्मीद की उम्मीद भी अब टूटने लगी
उन से मिलन की आस ही अब छूटने लगी

पूरी कभी हुई नहीं दिल से भी न गयी
हसरत मेरे दिल का सकून लूटने लगी

ढलने लगी जब उम्र तो होने लगा यकीन
हर इक लकीर हाथ की अब रूठने लगी

हर शेर पे इरशाद जो करती रही सदा
वो बज़्म मेरी हर गज़ल अब हूटने लगी

मैं तो नहीं था यास का कायल खलिश कभी
क्योंकर कहूं तकदीर ही अब फूटने लगी

यास = निराशा, pessimism

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
२७ अप्रेल २००७
०००००००००००००००

from Ghanshyam Gupta <gcgupta56@yahoo.com>
date Jun 22, 2007 6:50 AM

रचना सं० *८४५. उम्मीद की उम्मीद भी अब टूटने लगी**-*२१-६-०७ की गज़ल बेशक अच्छी बन पड़ी है, पर अगर यह मानते हों कि उन्नीस से बीस की कुछ गुंजाइश है तो कुछ सुझाव नीचे दे रहा हूं। इनमें से कुछ से तो विशेष अंतर नहीं पड़ता और उन्हें नज़रअन्दाज़ किया जा सकता है। बस शैली का अन्तर है। केवल परिवर्तित रूप दे रहा हूं। देख लीजिये कहां भिन्न है। "हूटने" वाला शे'र कतई पसंद नहीं आया, वैसे भी अन्देशा है कि
'इरशाद' आप 'मुकर्रर' के अर्थ में लगा रहे हैं। मकता जान बूझ कर आपके जीवन के अनुरूप कर दिया है।

उम्मीद की उम्मीद भी अब टूटने लगी
पी से मिलन की आस ही जब छूटने लगी

पूरी हुई नहीं कभी दिल से नहीं गयी
हसरत मेरे दिल का सुकून लूटने लगी

ढलने लगी जब उम्र तो होने लगा यकीन
हर इक लकीर हाथ की अब रूठने लगी

हर शेर पे इरशाद जो करती रही सदा
वो बज़्म मेरी हर गज़ल अब हूटने लगी

मैं तो नहीं था यास का कायल खलिश कभी
क्योंकर कहूं तकदीर ही अब फूटने लगी

-क्षमायाचना सहित, घनश्याम

००००

from singhkw <singhkw@indiatimes.com>

date Jun 22, 2007 1:28 PM
subject Re: [ekavita] ८४५. उम्मीद की उम्मीद भी अब टूटने लगी—२१-६-०७ की गज़ल

बहुत अच्छे खलिश साहब! मुबारक हो

कवि कुलवंत सिंह
०००००००००








८४६. गज़ल-ए- ज़िन्दगी इक मौत का गुमनाम साया है—२८-४-०७ की गज़ल, ई-कविता को २८-४-०७ को प्रेषित


गज़ल-ए- ज़िन्दगी इक मौत का गुमनाम साया है
मुझे दहशत से अपनी उम्र भर इस ने सताया है

है हस्ती और फ़ितरत मौत की बस चन्द लमहों की
न आती है न जाती है मगर डर सा समाया है

दुआ किस से भला मांगें गिला कीजे भला किस से
करें क्या रोग उल्फ़त का ये खुद हम ने लगाया है

जहां में कुछ न लाये थे है खाली हाथ ही जाना
न जाने किसलिये पूछे है दुनिया क्या कमाया है

नहीं हूं मुन्तज़िर इरशाद का न दाद लाज़िम है
खलिश जो हाल है दिल का हकीकत में सुनाया है.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
२७ अप्रेल २००७
००००००००००००००

from Praveen Parihar <p4parihar@yahoo.co.in
date Apr 29, 2007 6:50 PM

खलिश जी,
आपने दिल की हकिकत को गज़ल कहा तो मैं कहुँगा बहुत अच्छी गज़ल है।
पर... दिल के छालो को कोई गज़ल कहे तो परवा नही,
तकलिफ तो तब होती है जब कोई वाह-वाह करता है।
प्रवीण परिहार
०००००००००००००००००००







८४७. पा के तुम्हें लगता है मैं सब कुछ ही पा गया--२८-५-०७ की गज़ल, ई-कविता को २८-५-०७ को प्रेषित

पा के तुम्हें लगता है मैं सब कुछ ही पा गया
माहौल खुशियों का मेरी हस्ती पे छा गया

मैं जी रहा था अब तलक तनहा सी ज़िन्दगी
अन्दाज़ जीने का नया ये रास आ गया

अब हो गया यकीन कि कट जायेगा सफ़र
जब से हसीन हमसफ़र इस दिल को भा गया

तू तो सनम मिला नहीं तेरी तलाश में
मुझ पे सितम हज़ार तेरा इश्क ढा गया

उन का न हो सका खलिश अपना भी न रहा
कैसे मुकाम पर मुझे ये इश्क ला गया.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
२८ अप्रेल २००७








८४८. जो ख्वाब था वो आज दिल का दर्द बन गया—१-५-०७ की गज़ल, ई-कविता को १-५-०७ को प्रेषित


जो ख्वाब था वो आज दिल का दर्द बन गया
शोला कभी था याद एक सर्द बन गया

पोशीदा रह सका न उन के प्यार का फ़रेब
जब असलियत खुली तो चेहरा ज़र्द बन गया

कितना हसीन था तसव्वुरों का वो महल
पर टूट के ऐसा गिरा कि गर्द बन गया

लाली-ए-रुख-ए-हुस्न कुछ ढली ढली सी है
दिलवर हसीन जब से कुछ बेपर्द बन गया

लानत है इस अन्दाज़-ए-खयाल पर खलिश
कोई ज़लील कर के हुस्न मर्द बन गया.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
२८ अप्रेल २००७
पोशीदा = छिपा हुआ
तसव्वुर = कल्पना
लाली-ए-रुख = चेहरे की लाली































P८४९. दिलवर की याद ने मुझे शायर बना दिया—२९-४-०७ की गज़ल, ई-कविता को २९-४-०७ को प्रेषित--RAMAS


दिलवर की याद ने मुझे शायर बना दिया
जज़्बात की शिद्दत ने करिश्मा दिखा दिया

शेरोसुखन-ओ-बज़्म से अनजान था कभी
दिल में मेरे चिराग गज़ल का जला दिया

सदके तेरे नगमात-ओ-नज़्मात की दुनिया
तनहाइयों में जीने का रस्ता बता दिया

अन्दाज़े-शायरी ने तसव्वुर में बिठा कर
जब चाहे नग़मा उनको सुनाना सिखा दिया

वो ग़म तो दे गये हैं ख़लिश ज़िन्दगी भर को
पर ग़म गलत करने का तरीका जता दिया.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
२८ अप्रेल २००७









from kusum sinha <kusumsinha2000@yahoo.com>
date Apr 30, 2007 12:18 AM

khalishji
namaskar
kya khub likha hai? dilbar ne aise to aapki har gazal
sundar hoti hai.mai to bar bar use padhti rahti hun

kusum

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from singhkw <singhkw@indiatimes.com>
date Apr 30, 2007 11:05 AM

खलिश जी की रचनाएं दिल को छू जाती हैं।

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८५०. मुझे तनहाई के आलम में फ़कत जीना है—३०-४-०७ की गज़ल, ई-कविता को ३०-४-०७ को प्रेषित


मुझे तनहाई के आलम में फ़कत जीना है
जाम माजी़ के पियाले से मुझे पीना है

पेश लमहात से तकलीफ़ बहुत होती है
कितना माज़ी मेरा खुशबू से भरा भीना है

मुझ पे ज़ुल्मात ज़माने ने बहुत ढाए हैं
चाक दिल बैठ के फ़ुरसत से मुझे सीना है

मुझे अपने ही खयालों में सुकूं मिलता है
चैन दुनिया के खयालों ने मेरा छीना है

पेश गुलदस्ता तसव्वुर में तुम्हें करता हूं
इसे यादों के झरोखे से खलिश बीना है.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
२९ अप्रेल २००७
माज़ी—बीता हुआ समय, भूतकाल
पेश = वर्तमान
ज़ुल्मात = ज़ुल्म का बहुवचन
चाक = फटा हुआ
तसव्वुर = कल्पना

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from Sitaram Chandawarkar <smchandawarkar@yahoo.com
date Apr 30, 2007 6:37 AM


खलिश साहब,
बहुत खूब!
मुझ पे ज़ुल्मात ज़माने ने बहुत ढाए हैं
चाक दिल बैठ के फ़ुर्सत से मुझे सीना है
वाह, वाह!
सस्नेह
सीताराम चंदावरकर
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