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Rated: E · Book · Emotional · #1510374
Second part of Hindi poems in Hindi script, mainly ghazals, from 701-1225.
#626955 added December 31, 2008 at 5:40am
Restrictions: None
Poems / ghazals , no. 876 - 900 in Hindi script


P ८७६. जितना मुस्कराये हम, वो रूठते चले गये--१७-५-०७ की गज़ल, ई-कविता को १७-५-०७ को प्रेषित


जितना मुस्कराये हम, वो रूठते चले गये
उन की दोस्ती के तार टूटते चले गये

उन से जो मिले तो ज़िन्दगी पे यूं असर हुआ
हम खुशी के आसमां में कूदते चले गये

वो वफ़ा की राह में कभी बने थे हमसफ़र
उन के राह से कदम छूटते चले गये

कुछ न जब लिखा हुआ था हाथ की लकीर में
किसलिये कहें नसीब फूटते चले गये

एक पल को जो उठी खलिश पलक झुकी हुई
झील सी निगाह में डूबते चले गये.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
१७ मई २००७





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from Rakesh Khandelwal <rakesh518@yahoo.com>
date May 17, 2007 5:18 PM


कुछ न जब लिखा हुआ था हाथ की लकीर में
किसलिये कहें नसीब फूटते चले गये

अच्छी लगीं आपकी यह पंक्तियां. अपनी कुछ पुरानी पंक्तियां याद आ गईं

हर रोज नजूमी के आगे फ़ैलाकर देखा, पर दोनों
हाथों की धुन्ध लकीरो में किस्मत की कोई नहीं मिलती

राकेश

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P ८७७. एक उन की नज़र का इशारा हुआ--२०-५-०७ की गज़ल, ई-कविता को २०-५-०७ को प्रेषित


एक उन की नज़र का इशारा हुआ
कह गये वो कि दिल अब तुम्हारा हुआ

प्यार करते हैं वो या नहीं, सोचना
रोज़ का खत्म किस्सा वो सारा हुआ

आज दिल की खुशी का ठिकाना नहीं
कल तलक था परेशां ये हारा हुआ

इश्क की इब्तदा तो हुयी थी तभी
पहली पहली दफ़ा जब नज़ारा हुआ

शुक्रिया क्यों खुदा का करूं न खलिश
जिस को मांगा था दिल से, हमारा हुआ.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
१८ मई २००७

इब्तदा = शुरुआत, आरम्भ





















P ८७८. आंख से आंसू जो मेरी बह गये--२२-५-०७ की गज़ल, ई-कविता को २२-५-०७ को प्रेषित--RAMAS

आंख से आंसू जो मेरी बह गये
दास्ताने-ज़िंदगी इक कह गये

छोड़ बैठा हूं सभी अरमां मगर
कुछ अभी तक हैं जो दिल में रह गये

यूं तो कुछ तकलीफ़ भी मुझको हुई
पड़ गयी आदत सभी ग़म सह गये

था जिन्हें दिल में बिठाया प्यार से
पीठ में खन्जर चुभोकर वह गये

ख़्वाब के तूने महल देखे ख़लिश
ताश के पत्तों की माफ़िक ढह गये.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
२० मई २००७



















P ८७९. किस लिये बोलूं कोई सुनता नहीं--२१-५-०७ की गज़ल, ई-कविता को २१-५-०७ को प्रेषित


किस लिये बोलूं कोई सुनता नहीं
अक्लमन्दों में मुझे गिनता नहीं

असलियत का हो गया अहसास अब
झुक गया हूं आज मैं तनता नहीं

है यही बेहतर कि चुप्पी ठान लूं
मैं किसी के सामने ठनता नहीं

हर कदम खायीं यहां पर ठोकरें
बेवज़ह दुनिया में अब रमता नहीं

आज तनहाई में यादों का हुज़ूम
चाहता हूं पर खलिश थमता नहीं.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
२० मई २००७

हुज़ूम = भीड़, झुण्ड






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from Rakesh Khandelwal <rakesh518@yahoo.com>
to ekavita@yahoogroups.com
date May 21, 2007 5:36 PM

आज तनहाई में यादों का हुज़ूम
चाहता हूं, पर खलिश थमता नहीं.

बहुत खूब महेशजी.

राकेश

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P ८८०. यादें तुम्हारी मैं कैसे भुला दूं--२३-५-०७ की गज़ल, ई-कविता को २३-५-०७ को प्रेषित


यादें तुम्हारी मैं कैसे भुला दूं
ये अरमान दिल के मैं कैसे सुला दूं

सुन के करोगे मेरी दास्तां क्या
क्यों खुद भी रोऊं व तुम को रुला दूं

नहीं कोई मुमकिन है तदबीर ऐसी
बीते दिनों को मैं वापस बुला दूं

हकीकत जो दरपेश है वो रहेगी
यादों में दिल को मैं कितना झुला दूं

कभी राह में तुम खलिश जो मिले थे
क्यों आज खुद को मैं ग़म में घुला दूं?

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
२२ मई २००७

दरपेश = सामने उपस्थित



















८८१. किस को फ़ुरसत है खयालों में किसी को लाये--२४-५-०७ की (गै़र-मुरद्दफ़) गज़ल, ई-कविता को २४-५-०७ को प्रेषित

किस को फ़ुरसत है खयालों में किसी को लाये
सब के अपने ही जहां के हैं दिलों में साये

है कौन हमारे लिये एक पल सोचे
अश्क आंखों में ज़माने के लिये हम लाये

बाद मुद्दत के जो माज़ी पे नज़र डाली है
अपने साये से मिले आज बहुत कतराये

जिन की यादों को ज़माने से छिपा रखा है
उन को पाया जो तसव्वुर में तनिक शरमाये

हम ने समझा था कि जो हम से मिले अपने हैं
किस कदर उन के खयालों में खलिश भरमाये.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
२४ मई २००७

तर्ज़—

कभी ख़ुद पे, कभी हालात पे रोना आया
बात निकली, तो हर इक बात पे रोना आया

हम तो समझे थे कि हम भूल गए हैं उनको
क्या हुआ आज, ये किस बात पे रोना आया

किस लिये जीते हैं हम किसके लिये जीते हैं
बारहा ऐसे सवालात पे रोना आया

कौन रोता है किसी और की ख़ातिर ऐ दोस्त
सबको अपनी ही किसी बात पे रोना आया
--साहिर

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from Rakesh Khandelwal <rakesh518@yahoo.com>
date May 24, 2007 7:31 PM

बाद मुद्दत के जो माज़ी पे नज़र डाली है
अपने साये से मिले आज बहुत कतराये

बहुत खूब.

राकेश
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P ८८२. मेरी जां प्यार में सौ नाज़ दिखाया कीजे--बिना तिथि की गज़ल, ई-कविता को २५-५-०७ को प्रेषित


मेरी जां प्यार में सौ नाज़ दिखाया कीजे
मन्ज़िल-ए-मौत के पर पास न जाया कीजे

कौन मरता है किसी के लिये, झूठी कसमें
हमें न जान लुटाने की खिलाया कीजे

हम तो हाज़िर हैं बुलाने से भी पहले ही हज़ूर
इम्तिहां भर के लिये यूं न बुलाया कीजे

इश्क वाले तो इबादत भी किया करते हैं
दिल जलाने के लिये यूं न मनाया कीजे

जो भी करते हैं अकेले में खबर है हम को
झूठे किस्से न तड़पने के सुनाया कीजे

यूं वफ़ाओं का सिला दे के ज़फ़ाओं से सनम
न मोहब्बत में खलिश दाग लगाया कीजे.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
२५ मई २००७






तर्ज़—

जुर्म-ए-उल्फ़त पे हमें लोग सज़ा देते हैं - २
कैसे नादान हैं, शोलों को हवा देते हैं
कैसे नादान हैं

हमसे दीवाने कहीं तर्केवफ़ा करते हैं - २
जान जाये कि रहे बात निभा देते हैं
जान जाये...

आप दौलत के तराज़ू में दिलों को तौलें - २
हम मोहब्बत से मोहब्बत का सिला देते हैं
हम मोहब्बत से...

तख़्त क्या चीज़ है और लाल-ओ-जवाहर क्या है - २
इश्क़ वाले तो खुदाई भी लुटा देते हैं
इश्क़ वाले ...

हमने दिल दे भी दिया एहद-ए-वफ़ा ले भी लिया - २
आप अब शौक से दे दें जो सज़ा देते हैं
जुर्म-ए-उल्फ़त पे हमें लोग सज़ा देते हैं.
--साहिर













P ८८३. यूं हम ने मोहब्बत के आदाब निभाये हैं--२६-५-०७ की गज़ल, ई-कविता को २६-५-०७ को प्रेषित

यूं हम ने मोहब्बत के आदाब निभाये हैं
रुसवाई के डर से सौ दाग छिपाये हैं

अन्दाज़-ए-वफ़ा कोई सीखे परवाने से
तन मन में खुद अपने हम आग लगाये हैं

ये सितम मोहब्बत के किस तरह बयां कीजे
दिल चोरी कर के अब नज़रों को चुराये हैं

ये झुकी हुई पलकें एक बार उठा लीजे
ज़ाहिर तो जरा कीजे क्या राज़ छुपाये हैं

कुर्बान खलिश ये दिल इस नाज़-ओ-अदा पे है
हम को दिल दे कर के हम से शरमाये हैं.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
२६ मई २००७













P ८८४. मुझे मौत क्यूं न कबूल हो मुझे ज़िन्दगी ने भुला दिया--२९-५-०७ की गज़ल, ई-कविता को २९-५-०७ को प्रेषित

मुझे मौत क्यूं न कबूल हो मुझे ज़िन्दगी ने भुला दिया
मुझे दुश्मनों ने पनाह दी मुझे दोस्ती ने रुला दिया

नहीं ज़ुल्फ़ की अब जुस्तज़ू, नहीं आरिज़ों की आरज़ू
मेरी हर तमन्ना छुट गयी, मैंने ख्वाहिशों को सुला दिया

ये तो ज़ालिमों का शहर है, कब तक बचाता खुद को मैं
मुझे लूट लो मेरे पास आ, न्यौता ये आम खुला दिया

दिल टूटने का ग़म नहीं, दिल तोड़ने से पेशतर
झूठे दिखा के ख्वाब क्यों हसीं वादियों में झुला दिया

सिफ़्त-ए-तसव्वुर शुक्रिया, दिल में उठी जब भी खलिश
दम भर में तूने यार को तनहाइयों में बुला दिया.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
२८ मई २००७

























P ८८५. रातों के अन्धेरे में बिजली सी चमकती है---१७-६-०७ की गज़ल, ई-कविता को १७-६-०७ को प्रेषित--RAMAS


रातों के अन्धेरे में बिजली- सी चमकती है
आवाज़ तसव्वुर में पायल की खनकती है

अनजान- सी लगती है पहचान पुरानी है
छाया है कोई धुन्धली अपने में सिमटती है

सोचा था जिसे अपने दिल से ही भुला देंगे
तनहाई के आलम में वो याद पलटती है

जो नहीं रहे उन की चाहत अब क्या कीजे
अनबूझ तमन्ना क्यों हर बार मचलती है

अरमां न तमन्ना है ख्वाहिश न कोई बाकी
जज़्बात की शिद्दत है अश्कों में निकलती है

बेहतर है ख़लिश ऐसी उम्मीद न पालो कि
बरबाद मोहब्बत की तक़दीर बदलती है.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
२९ मई २००७
०००००००००००००००

from Ghanshyam Gupta <gcgupta56@yahoo.com>
date Jun 17, 2007 9:40 AM



महेश जी,

रचना सं० ८८५, गज़ल बहुत सुन्दर है। केवल एक दो जगह थोड़ा अटकाव है, जैसे शायद इस मिसरे में,

'वो नहीं रहे उन की चाहत अब क्या कीजे'

०००००००००००००००००००००००००००००

from kusum sinha <kusumsinha2000@yahoo.com

date Jun 17, 2007 6:31 PM

-aderniy khalishji
namaskar
kitni sundar gazal likhi hai aapne? bahut hi sundar
hai shabd bhi motion ki tarah chune hain
bahut bahut badhai
kusum—

०००००००००००००००००००००






P ८८६. ता-उम्र हमारा दिल माना पछतायेगा---१६-६-०७ की गज़ल, ई-कविता को १६-६-०७ को प्रेषित


ता-उम्र हमारा दिल माना पछतायेगा
उन का दिल भी उन को रो रो के सतायेगा

जब आह मेरे दिल की उन तक जा पहुंचेगी
तनहाई में उन की शोला जल जायेगा

दिल चाक तो होगा पर फ़िर भी हम जी लेंगे
ग़म तर्क-ए-मोहब्बत का उन को तड़पायेगा

रुखसार के तिल को जो हुस्न और बढ़ाता था
देखेंगे मेरे दिल से दिल तो शरमायेगा

था कौन वफ़ा की राह और कौन ज़फ़ा की राह
ये तय न कभी होगा जीवन कट जायेगा

ये इश्क की राहें हैं मुड़ना न खलिश इन से
सोचो न कोई कब तक ये नाज़ उठायेगा.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
२९ मई २००७







P ८८७. पूछो न मेरे दिल से क्या मुझ को शिकायत है---१५-६-०७ की गज़ल, ई-कविता को १५-६-०७ को प्रेषित


पूछो न मेरे दिल से क्या मुझ को शिकायत है
ये दिल-ए-बुत-ए-संग है दिलबर की इनायत है

जज़्बात-ए-मोहब्बत क्यों ज़ालिम के दिल में हो
जब ज़ुल्म वो ढाता है करता न किफ़ायत है

सुनते थे मोहब्बत में सौदा है बराबर का
दुनिया में सितम फिर क्यों सहने की रवायत है

इलज़ाम ज़फ़ा का वो देता है हमें लेकिन
दुश्मनी हमीं से है औरों से हिमायत है

दिल तोड़ के हंसता है पर खलिश हमें फिर भी
रोने की इजाज़त है इतनी ही रियायत है.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
२९ मई २००७

दिल-ए-बुत-ए-संग = पत्थर की मूर्ति का दिल
रवायत = चलन
हिमायत = तरफ़दारी







P ८८८. मुझ को न ज़िन्दगी से अब कोई लगाव है---१३-६-०७ की गज़ल, ई-कविता को १३-६-०७ को प्रेषित


मुझ को न ज़िन्दगी से अब कोई लगाव है
बस आखिरी ये मौत से पहले पड़ाव है

साकी-ओ-मय-ओ-ज़ुल्फ़ से मैं दूर आ गया
रब के ही नाम की मुझे माफ़िक शराब है

लेना-ओ-देना चुक गया बन्दों से अब मेरा
अल्लाहताला से सिरफ़ बाकी हिसाब है

दोज़ख हो या ज़न्नत मुझे दोनों ही हैं कबूल
परवरदिगार को ही ये करना चुनाव है

मौला पकड़ लो हाथ, बचालो मुझे खलिश
फंसने लगी गहरे भंवर जीवन की नाव है.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
२९ मई २००७






































P ८८९. पूछो न कोई हम से क्या धर्म हमारा है--३०-५-०७ की गज़ल, ई-कविता को ३०-५-०७ को प्रेषित-

पूछो न कोई हम से क्या धर्म हमारा है
अल्लाह की बेटी मैं, वो राम का प्यारा है

हिन्दू या मुसलमां हो पर खून है इक रंग का
एक नूर से दोनों को उस रब ने संवारा है

दिल एक सा सब का है हिन्दू हो या हो मुस्लिम
एक इश्क का मज़हब है जो हम को गवारा है

हैं प्यार पे दुनिया के माना कि बहुत पहरे
पर फिर भी मिलेंगे हम जब दिल ने पुकारा है

हम प्यार के तूफ़ां में किश्ती को डुबो देंगे
हस्ती है सिरफ़ दिल की दिल का ही सहारा है

अल्लाह, कृष्ण, यीशु, बेकस पे करम कीजे
एक ओर भंवर गहरा एक ओर किनारा है

शाहों के तखत डूबे पर पाक मोहब्बत का
दुनिया में खलिश डूबा अब तक न सितारा है.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
२९ मई २००७
























P. ८९०. एक दिन यूं ही खतम हो जाऊंगा---३१-५-०७ की गज़ल, ई-कविता को ३१-५-०७ को प्रेषित

एक दिन यूं ही खतम हो जाऊंगा
ज़िन्दगी की राह में खो जाऊंगा

मैं ज़माने में बहुत नाचा किया
एक लम्बी नीन्द अब सो जाऊंगा

कर चलूंगा कर्ज़ मैं सब के अदा
पाप जितने भी किये धो जाऊंगा

दोस्तो न अब मिलेंगे फिर कभी
कौन जाने किस जहां को जाऊंगा

वक्त-ए-रुखसत पाओगे हंसता मुझे
न समझना मैं खलिश रो जाऊंगा.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
३० मई २००७

०००००००००००००००००

from kusum sinha <kusumsinha2000@yahoo.com>
date Jun 4, 2007 10:24 PM

khalishji
namaskar
aisi dil todnevali baat kyao karte hain. aap chale
jaaiyega to etni achhi gazalein kaun sunayega?
kusum

०००००००००००००००००
























P ८९१. एक ज़ुल्फ़ का सर होना अरसों में नहीं मुमकिन---१-६-०७ की गज़ल, ई-कविता को १-६-०७ को प्रेषित

एक ज़ुल्फ़ का सर होना अरसों में नहीं मुमकिन
रातों का सहर होना बरसों में नहीं मुमकिन

उल्फ़त की हकीकत को पूछे न कोई हम से
अहसास बयां करना लफ़्ज़ों में नहीं मुमकिन

पल भर में असर होता नज़रों के इशारे का
तफ़सील-ए-असर लिखना वरकों में नहीं मुमकिन

दिल जीतते हैं कैसे दिल कैसे लगाते हैं
ये राज़ सिखा देना सबक़ों में नहीं मुमकिन

दीदार तो ख्वाबों में करते हैं खलिश सब ही
आगोश में भर लेना सपनों में नहीं मुमकिन.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
३० मई २००७










०००००००००००००००००००

from Ghanshyam Gupta <gcgupta56@yahoo.com>
date Jun 1, 2007 8:18 AM

महेश जी,

खूबसूरत ग़ज़ल के चौथे शे’र के पहले मिसरे में कुछ गड़बड़ लगती है। ’रातों का सहर होना बरसों में नहीं मुमकिन’ और ’आगोश में भर लेना सपनों में नहीं मुमकिन’ ये दोनों पंक्तियां अच्छी लगीं।

’तफ़सील-ए-असर लिखना वरकों में नहीं मुमकिन’ से ग़ालिब के
"वरक तमाम हुआ और मदह बाकी है" के अलावा फिराक गोरखपुरी का ये उम्दा शे’र याद आ गया कि,

एक था मजनूं, आशिके-लैला, वीराने में मौत हुई
और अगर तफ्सील से पूछो किस्सा ये तूलानी है

- घनश्याम
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Ed / new write [pending]—[भूली हुई यादो मुझे इतना न सताओ—की तर्ज़ पर


मत तीर मोहब्बत के यूं दिल पे चलाओ
सम्हला हूं बहुत गिर के न तुम फिर से गिराओ

कमसिन-ओ-जवां तुम हो सीना है मेरा ज़ख्मी
जज़्बात पे मत जाओ न दिल से लगाओ तुम

आलम है ये उल्फ़त का न कदम फ़िसल जाये
महफ़ूज़ रहो खुद भी मुझ को भी बचाओ तुम

है इश्क हकीकत तो जीयो भी हकीकत में
न ख्वाब कोई देखो न मुझ को दिखाओ तुम


हम पे हैं खलिश बीते लमहात बहुत मुश्किल
अब और सितम खुद पे नाहक न बुलाओ तुम.



P ८९२. मत तीर मोहब्बत के यूं दिल पे चलाओ तुम---६-६-०७ की गज़ल, ई-कविता को ६-६-०७ को प्रेषित

मत तीर मोहब्बत के यूं दिल पे चलाओ तुम
सम्हला हूं बहुत गिर के मत फिर से गिराओ तुम

कमसिन-ओ-जवां तुम हो सीना है मेरा ज़ख्मी
जज़्बात पे मत जाओ न दिल से लगाओ तुम

आलम है ये उल्फ़त का न कदम फ़िसल जाये
महफ़ूज़ रहो खुद भी मुझ को भी बचाओ तुम

है इश्क हकीकत तो जीयो भी हकीकत में
न ख्वाब कोई देखो न मुझ को दिखाओ तुम

हम पे हैं खलिश बीते लमहात बहुत मुश्किल
अब और सितम खुद पे नाहक न बुलाओ तुम.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
३१ मई २००७









P ८९३. जब प्यार किया है तो वादा भी निभायेंगे---२-६-०७ की गज़ल, ई-कविता को २-६-०७ को प्रेषित


जब प्यार किया है तो वादा भी निभायेंगे
पहरे हैं ज़माने के तो ख्वाब में आयेंगे

जलती है अगर दुनिया इस प्यार के रिश्ते से
हम प्यार करेंगे और दुनिया को जलायेंगे

ये कम न कभी होंगी दिलबर से मुलाकातें
हम राज़ मोहब्बत के सीखेंगे सिखायेंगे

पुरखतर-ओ-पुरतूफ़ां ये इश्क का दरिया है
आशिक बेखौफ़ हैं हम सूली चढ़ जायेंगे

जब प्यार किया है तो रुसवा भी खलिश होंगे
गा गा के मोहब्बत का पैगा़म सुनायेंगे.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
३१ मई २००७







P ८९४. और अब जीऊं भला किस के लिये---बिना तिथि की गज़ल, ई-कविता को ३१-५-०७ को प्रेषित--RAMAS

और अब जीऊं भला किसके लिये
न रहा अब तक जिया जिसके लिये

मेरी तनहाई मुझे है कह रही
ज़िंदगी थी एक नरगिस के लिये

है तमन्ना सिर्फ़ बाकी मौत की
क्यों जियूं बेकार ग़र्दिश के लिये

भूल जाओ आलमे-रंग और बू
मुंतज़िर कोई नहीं इसके लिये

फूंक दो माज़ी की यादों को ख़लिश
चीज़ अच्छी है ये आतिश के लिये.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
३१ मई २००७









८९५. कितने गीत और लिखने हैं कौन कवि को बतलायेगा---बिना तिथि की (ग़ैर-मुरद्दफ़) गज़ल, ई-कविता को ३१-५-०७ को प्रेषित


कितने गीत और लिखने हैं कौन कवि को बतलायेगा
अश्रु और कितने झरने हैं कौन नयन को समझायेगा

काम कवि का कविता करना और नयन का अविरत झरना
जिस में हृदय नहीं है ऐसे कौन तर्क से टकरायेगा

गीतों में तुम और वेदना भरो लेखनी को चलने दो
पिघल तभी तो हे आराधक, आराध्य का मन पायेगा

बैठ शिखर पर पूछ रहे हो मार्ग और कितना बाकी है
बिरला ही होगा जो कोई दीप रवि को दिखलायेगा

पन्थ कठिन है खलिश कदापि साहस डोर छोड़ मत देना
जो राह में रुक गया मुसाफ़िर वही एक दिन पछतायेगा.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
३१ मई २००७
०००००००००००००००

from Ripudaman Pachauri <pachauriripu@yahoo.com>
date May 31, 2007 7:36 PM


वाह खलिश जी, बहुत ही
सुन्दर उत्तर है !

सादर नमन
रिपुदमन

०००००००००००००००००००००००




८९६. जो भी चाहा था मैंने मुझे मिल गया---बिना तिथि की गज़ल, ई-कविता को १-६-०७ को प्रेषित


जो भी चाहा था मैंने मुझे मिल गया
मेरी किस्मत का मानो चमन खिल गया

कोई इरशाद न जब हुई तो लगा
मेरे सीने पे कोई टिका सिल गया

आप की दाद पा कर हुआ इत्मिनां
मेरा खुद से भरोसा ही था हिल गया

फिर किसी की नज़र का इशारा हुआ
बिन इजाज़त मेरा आज फिर दिल गया

आज फ़र्ज़न्द ने फ़र्ज़ तोड़ा खलिश
आज नासूर दिल का कोई छिल गया.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
१ जून २००७





P ८९७. छोड़ दो मुझ को अकेला आज तुम--५-६-०७ की गज़ल, ई-कविता को ५-६-०७ को प्रेषित


छोड़ दो मुझ को अकेला आज तुम
फिर न अब देना कभी आवाज़ तुम

भूल थी मेरी जो सोचा था कभी
ज़िन्दगी के हो मेरे हमराज़ तुम

सुर मिलाये आज सरगम किस तरह
तोड़ बैठे हो कि सारे साज़ तुम

इश्क आखिर किस तरह होता जवां
झेल पाये हुस्न के न नाज़ तुम

नोच डाले पंख अपने खुद खलिश
चढ़ न पाओगे कभी परवाज़ तुम.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
१ जून २००७













८९८. था एकाकी जीवन मेरा हर पल विषाद छाया मन पर---बिना तिथि की गज़ल, ई-कविता को १-६-०७ को प्रेषित

था एकाकी जीवन मेरा हर पल विषाद छाया मन पर
फिर भी वे आयेंगे इक दिन, था मुझे भरोसा साजन पर

आहट इक तभी हुई द्वारे, तन मन में सिहरन जाग उठी
सारे जीवन का दांव लगा था मानो केवल इक क्षण पर

मैं पट खोलूं या बन्द रखूं निर्णय न कर पायी कोई
किंकर्तव्य सी खड़ी रही, शून्यता सी छायी तन पर

एक ओर लाज ने रोका था एक ओर हृदय भयभीत हुआ
न हूक पपीहे की निकली यूं दृष्टि टिकी उस की घन पर

मैं प्रीत लगा के हार गयी साजन आये और चले गये
क्या किया खलिश जो पछतायी अवसर बीते इस उलझन पर.
महेश चन्द्र गुप्त खलिश
१ जून २००७




P ८९९. अश्कों में जो निकली है इस दिल की रवानी है---३-६-०७ की गज़ल, ई-कविता को ३-६-०७ को प्रेषित

अश्कों में जो निकली है इस दिल की रवानी है
दर्दों की मेरे दिल से पहचान पुरानी है

चाहते हैं सभी इस को इलज़ाम भी देते हैं
नाहक ही ज़माने में बदनाम जवानी है

मिलते हैं जहां दो दिल वो इश्क का मन्दिर है
एक उम्र से भी ज्यादा इक रात सुहानी है

हमसफ़र नहीं कोई, क्यों सफ़र भला कीजे
तनहाई में सारी अब उम्र बितानी है

मिलने की बिछुड़ने की बातें तो करता है
अन्दाज़-ए- खलिश लोगो लेकिन रूहानी है.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
२ जून २००७








P ९००. तसव्वुर में उन्हें पा कर कभी हम मुस्कुराते हैं---४-६-०७ की गज़ल, ई-कविता को ४-६-०७ को प्रेषित

तसव्वुर में उन्हें पा कर कभी हम मुस्कुराते हैं
कभी तनहाई में हम आप ही आंसू बहाते हैं

कभी वो वक्त था जब अजनबी थे एक दूजे से
है आलम आज ये कि उन को दिल के पास पाते हैं

बहुत मुश्किल से कटती हैं जुदाई से भरी रातें
वो मिलते हैं तो इक पल में पहर दस बीत जाते हैं

न जाने किसलिये वो इम्तिहां लेते हैं उल्फ़त में
न हम से दूर जाते हैं न दिल के पास आते हैं

नहीं मालूम हम को मर्ज़ कैसा हो गया है ये
सितमगर को ही चारागर खलिश अपना बताते हैं.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
२ जून २००७
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from Devi Nangrani <devi1941@yahoo.com>
date Jun 7, 2007 4:53 AM

Maheshji
aapki gazal badi surmayi hai,

yahi kaaran hai kuch hum sher
yoon hi gungunaate haiN.

meri Gazal pasand karne ke liye shukriya
Devi

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