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Rated: E · Book · Emotional · #1510374
Second part of Hindi poems in Hindi script, mainly ghazals, from 701-1225.
#626957 added December 31, 2008 at 5:43am
Restrictions: None
Poems / ghazals , no. 901- 925 in Hindi script


९०१. प्यार नहीं था दिल में तो क्यों झूठी कसम खिलायी थी---८-६-०७ की गज़ल, ई-कविता को ८-६-०७ को प्रेषित--RAMAS


प्यार नहीं था दिल में तो क्यों झूठी कसम खिलायी थी
हमको ये मालूम नहीं था किस्मत में रुसवाई थी

प्यार वफ़ा सब झूठे निकले, सिर्फ़ ज़फ़ा ही मिली हमें
रस्म मोहब्बत की हमने तो दिल से खूब निभायी थी

साथ चले तुम दो दिन लेकिन छोड़ दिया फिर राहों में
हम समझे थे कि जनमों की तुम ने प्रीत लगायी थी

सुनते कभी हमारे दिल की, तुम को फ़ुर्सत नहीं मिली
इन कानों में गूंजे धुन जो तुमने कभी सुनायी थी

भूल गये तुम ख़लिश नहीं हम भूल सके अब तक उसको
सूरत जो इस दिल में साजन हमने कभी बसायी थी.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
५ जून २००७









९०२. मुझ से न ख़फ़ा होना नादान हूं मैं यारो---७-६-०७ की गज़ल, ई-कविता को ७-६-०७ को प्रेषित


मुझ से न ख़फ़ा होना नादान हूं मैं यारो
दुनिया के रिवाज़ों से अनजान हूं मैं यारो

ग़ैरों के लिये मैंने अपने को लुटाया है
यारों की मोहब्बत पे कु़र्बान हूं मैं यारो

मैं फ़क्त असूलों पे जीऊं तो भला कैसे
ये भी तो जरा सोचो इंसान हूं मैं यारो

घर में न रखो मुझ को दिल से न निकालो पर
दो चार ही दिन का अब मेहमान हूं मैं यारो

सहरा में नशेमन क्या अब खलिश बनाऊं मैं
दिल की बस्ती कोई वीरान हूं मैं यारो.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
५ जून २००७






९०३. कर के हसीं एहसान अब शर्मा रहे हैं वो--१०-६-०७ की गज़ल, ई-कविता को १०-६-०७ को प्रेषित


कर के हसीं एहसान अब शर्मा रहे हैं वो
गुस्ताख अपने आप को ठहरा रहे हैं वो

बोसे से एक रुख पे ऐसा हो गया कमाल
चेहरे की रंगत देख के मुस्का रहे हैं वो

फ़ितरत को उन की हम भी अब पहचानते हैं खूब
मंसूबे जाने और क्या बना रहे हैं वो

उंगली पकड़ के पौंचा पकड़ने के हैं माहिर
कुछ ख्वाब दिल में और भी सजा रहे हैं वो

है भूलना मुश्किल उसे अब सारी उम्र भर
जो प्यार का सबक़ ख़लिश पढ़ा रहे हैं वो.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
१० जून २००७

०००००००००००००००

from Ghanshyam Gupta <gcgupta56@yahoo.com>
date Jun 10, 2007 8:56 AM

महेश जी,

रचना ९०३ अच्छी गज़ल है, विशेषकर मतला और उसके बाद का शे’र अच्छे लगे। गुस्ताखी की बात ये थी कि मुझे लगा कि आपकी रचनाओं के विषय में एक ही तरह की बात मैं बार-बार कहे जा रहा हूं जब कि आपकी सृजन-शक्ति का लोहा सभी मानते हैं। यह गज़ल भी आपने इतनी जल्दी तैयार कर दी।
- घनश्याम

०००००००००००००००



















९०४. एक वो भी नज़ारा था एक ये भी नज़ारा है—१२-६-०७ की कविता, ई-कविता को १२-६-०७ को प्रेषित


एक वो भी नज़ारा था एक ये भी नज़ारा है
तब दिल ये तुम्हारा था अब दिल ये हमारा है

इक वक्त गुज़रता था आंखों के इशारों में
तसबीह के दानों में अब वक्त गुज़ारा है

फ़ुर्सत न मिली जिस को रुखसार-ओ-ज़ुल्फ़ों से
दुनिया की अदाओं से कर बैठा किनारा है

दो दिन की जुदाई भी करती थी परेशां तब
रातों को तन्हा रहना अब हम को गवारा है

इतना तो बुरा फिर भी न है ये जवानी से
माना कि बुढ़ापा ये बदनाम बेचारा है.

तर्ज़—इक वो भी दिवालीथी इक ये भी दिवाली है

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
१० जून २००७





९०५. ख्याल रह रह कर मेरे दिल में कोई आता रहा —११-६-०७ की कविता, ई-कविता को ११-६-०७ को प्रेषित


ख्याल रह रह कर मेरे दिल में कोई आता रहा
मत रखो उम्मीद मैं ये दिल को समझाता रहा

जानता था खत्म न होगा कभी ये इन्तज़ार
मैं तन्हाई में मिलन के गीत पर गाता रहा

प्यार की लौ से अन्धेरे दिल के रह न पायेंगे
मैं यही एहसास नाहक खुद को दिलवाता रहा

न भरोसा था ज़माने पे न किसी ग़ैर पे
सिर्फ़ था एतबार खुद पे अब मग़र जाता रहा

शुक्रिया ऐ गर्दिशो अन्दाज़ेशायरी दिया
मै ख़लिश लिख कर गज़ल इस दिल को बहलाता रहा.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
१० जून २००७






९०६. कहने को तो केवल तुम ने संकेत किया—बिना तिथि की कविता, ई-कविता को १०-६-०७ को प्रेषित


कहने को तो केवल तुम ने संकेत किया
माना कि नहीं होठों से मेरा नाम लिया
यह खेल प्रीत का कैसा साजन खेल रहे
यह उपालम्भ तुम ने कैसा है आज दिया

जीवन पथ पर हम दोनों ही थे संग निकले
दोनों ही तो अपनी मन्ज़िल से थे फिसले
जो बीत गयी सो बात गयी अब रहने दो
जो घाव भर चले क्यों उन से आंसू पिघले

संकेत मात्र कर तुम ने तो झकझोर दिया
तुम कहते नहीं दिया, मैंने तो ज़हर पिया
जीवन अर्पण कर के भी मैंने क्या पाया
पत्ते सा कांपे आज सजन यह सोच जिया.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
१० जून २००७









९०७. अमीरो इस तरह नफ़रत से न देखो ग़रीबों को—बिना तिथि की गज़ल, ई-कविता को १२-६-०७ को प्रेषित


अमीरो इस तरह नफ़रत से न देखो ग़रीबों को
न उन की आह लग जाये कहीं ऊंचे नसीबों को

किलों महलों के बाशिन्दो हमें भी हक है जीने का
जलाना चाहते हो मुफ़लिसों के क्यों दरीबों को

डरेंगे क्या वो ज़ुल्म-ओ-सित्म से सरमायेदारों के
चले जाते हैं जो कांधे पे रख अपने सलीबों को

रफ़ीकों पे भरोसा कीजिये यह बात है अच्छी
मगर मत मानिये कमज़ोर अपने से रकीबों को

ग़रीबी आंकड़ों का खेल है उन को खलिश केवल
जो भूखे पेट न सोये कहें क्या उन हबीबों को.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
१२ जून २००७









९०८. है बेरुखी लेकिन मुझे नफ़रत तो नहीं है--बिना तिथि की गज़ल, ई-कविता को १३-६-०७ को प्रेषित


है बेरुखी लेकिन मुझे नफ़रत तो नहीं है
सच मानिये इंकार-ए-मोहब्बत तो नहीं है

ये बेरुखी मुझ को ज़माने ने सिखाई है
दिल को मेरे परहेज़-ए-उल्फ़त तो नहीं है

जो आज तक चाहा कभी हासिल नहीं हुआ
किस्मत को मुझ से कोई अदावत तो नहीं है

पैगा़म भेजा है मेरे दिल ने बहुत डर के
मंज़ूर न हो तो भी शिकायत तो नहीं है

अब प्यार के काबिल खलिश दुनिया में न रहा
इस में कहीं बयान-ए-हकीकत तो नहीं है.


महेश चन्द्र गुप्त खलिश
१३ जून २००७












९०९. कैसे कह दें उन से यूं प्यार नहीं होता—१४-६-०७ की गज़ल, ई-कविता को १४-६-०७ को प्रेषित


कैसे कह दें उन से, यूं प्यार नहीं होता
बिन प्यार किये दिल से, दीदार नहीं होता

आंखों की ज़ुबां से भी, पैग़ाम निकलते हैं
होठों से ही खाली, इंकार नहीं होता

घर हो घर वाले हों, सामां भी हो घर में
पर बीवी न हो तो घरबार नहीं होता

जज़्बात-ओ-रिश्तों को भूलो मत दुनिया में
दौलत के दम से ही संसार नहीं होता

खिदमत करने में ही ओहदे की बड़ाई है
कोई हुक्म चलाने से सरदार नहीं होता.


महेश चन्द्र गुप्त खलिश
१३ जून २००७

0000000000000

from Rakesh Khandelwal <rakesh518@yahoo.com
date Jun 14, 2007 5:16 PM

महेश जी.

बहुत खूबसूरती से कही गई हैं यह पंक्तियां

आंखों की ज़ुबां से भी पैग़ाम निकलते हैं

होठों से ही खाली इंकार नहीं होता

दाद कबूल करें

राकेश खंडेलवाल

00000000000000

from Devi Nangrani <devi1941@yahoo.com>
date Jun 16, 2007 2:25 AM

Maheshji
daad kabool is sunder bhav se bharpoor gazal ke liye

आंखों की ज़ुबां से भी पैग़ाम निकलते हैं
होठों से ही खाली इंकार नहीं होता.

abhitak jhoojh rahi hoon jaane kaun sa vazan hai
duswari ki duvidha door kar dein. Rachayita ko hi fakat patta hota
hai, kabhi kabhi.

with wishes
Devi
०००००००००००००००००००










९१०. जाने क्या था गये ज़मानों में—बिना तिथि की गज़ल, ई-कविता को १६-६-०७ को प्रेषित


जाने क्या था गये ज़मानों में
है सुकूं आज भी निशानों में

जिन्हें छोड़ आये मुद्दतों पहले
दिल अभी तक है उन ठिकानों में

जो जवानी में गुनगुनाये थे
चैन मिलता है उन तरानों में

हम भी बीते जो वक्त बीता तो
पहले शामिल थे हम सयानों में

तेरे अशआर को खलिश, तुझ को,
लोग गिनते हैं अब पुरानों में.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
१६ जून २००७
0000000000

from Ripudaman Pachauri <pachauriripu@yahoo.com
date Jun 18, 2007 7:47 PM

Dr. Gupta ji,

Kai dino se e-kavitaa nahin dekhi thi. aaj aap ki bahut saari
rachnaayein padeein... acchaa lagaa.

Ripudaman

00000000000000

from Manjuji Gmail <manju@ei-india.com>
date Jun 18, 2007 6:19 PM


क्या खूब है, आप लोगों की जुगलबन्दी ---

क्यों किया ज़िक्र आज बातों का
बात फैलेगी जा सयानों में ...देवी

रोके बैठे थे, अब तक ज़बरन
न कहते तो, कहते फ़सानों में....मंजु

और खलिश जी, आपका 'कड़ा' तो कमाल का है--

जाने क्या था गए ज़माने में
कशिश बाकी है, आपके 'दीवानों' में---मंजु

००००००

from Devi Nangrani <devi1941@yahoo.com>
date Jun 22, 2007 10:50 PM


Aap aise bhi chaaye rahte hai
aapka zikr hai zamaanon mein
Devi

000000000000000000







९११. ये मेरी हकीकत है समझो न कहानी है—१८-६-०७ की गज़ल, ई-कविता को १८-६-०७ को प्रेषित


ये मेरी हकीकत है समझो न कहानी है
झलकी फिर से बूढ़ी आंखों में जवानी है

है ज़ख्म नहीं लाज़िम दर्दों के लिये ताजा
सीने में कहीं उभरी कोई याद पुरानी है

हर धड़कन में दिल की इक टीस सी उठती है
हर कतरे में खूं के ग़म की ही रवानी है

कुछ ख्याल थे बिन सोचे खुद आप चले आये
ये गज़ल लिखी मैंने अश्कों की ज़ुबानी है

लिखूं भी अगर ग़म को तफ़सील से क्या होगा
अब किस को खलिश अपनी तकदीर सुनानी है.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
१७ जून २००७












९१२. हर शाम मेरे दिल में ग़म लेकर आती है—१९-६-०७ की गज़ल, ई-कविता को १९-६-०७ को प्रेषित--RAMAS


हर शाम मेरे दिल में ग़म लेकर आती है
तनहाई में दिल को साथी दे जाती है

है रूह कोई अकसर नज़दीक कहीं मेरे
माज़ी की यादों से दिल को तड़पाती है

वो दूर नहीं हमसे पर पास नहीं आते
इज़हार से क्यों उनकी फ़ितरत कतराती है

रहती है तसव्वुर में परछाईं तो उनकी
नज़रों में आने से सूरत शर्माती है

वो ख़लिश खफ़ा हैं या करते हैं मोहब्बत वो
दिल सोचता रहता है कितना जज़्बाती है.


महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
१७ जून २००७






९१३. इक अदावत सदा रही मुझ से—बिना तिथि की गज़ल, ई-कविता को २३-६-०७ को प्रेषित


इक अदावत सदा रही मुझ से
न शिकायत कभी कही मुझ से

मेरे सब भेद पूछ बैठा वो
राज़ अपना कहा नहीं मुझ से

इश्क पहले कभी किया तुम ने
उस ने पूछा था बस यही मुझ से

चल दिया फिर कभी न आने को
बात करता तो कुछ सही मुझ से

तर्क-ए-रिश्ता ही क्या मुनासिब था
माना उलझन बहुत रही मुझ से

क्या मोहब्बत मेरी नहीं देखी
चाहे तकलीफ़ ही सही मुझ से

मेरे ग़म में खलिश सभी आये
मिलने आया नहीं वही मुझ से.


महेश चन्द्र गुप्त खलिश
२३ जून २००७
























P९१४. एक लमहे को तो अब आ जाइये—बिना तिथि की गैर-मुरद्दफ़ गज़ल, ई-कविता को २३-६-०७ को प्रेषित

एक लमहे को तो अब आ जाइये
दौर-ए-रिमझिम है करम फ़रमाइये

यूं तो तरसाते हो हम को रोज़ ही
इस फ़िज़ां में न सनम तरसाइये

रात काटें किस तरह तनहाई में
किस तरह आये सुकूं बतलाइये

राह तकते थक गयीं आंखें मेरी
अपनी सूरत तो जरा दिखलाइये

कुछ खलिश हम को हो जीने का सबब
वादा झूठा ही मगर कर जाइये.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
२३ जून २००७

तर्ज़— मास्टर मदन का गाया मशहूर शाहकार-- यूं न रह रह कर हमें तरसाइये




[मास्टर मदन ने सिर्फ़ दो गाने गाये अपने नन्हे से जीवन में, मगर फ़न के पहचानने वाले आज भी उन्हें याद करते हैं]


यूं न रह रह कर हमें तरसाइये

यूं न रह रह कर हमें तरसाइये
आइये, आ जाइये, आ जाइये

फिर वही दानिश्ता ठोकर खाइये
फिर मेरे आगोश में गिर जाइये

मेरी दुनिया मुन्तज़िर है आप की
अपनी दुनिया छोड़ कर आ जाइये

ये हवा सागर ये हलकी चान्दनी
जी में आता है यहीं मर जाइये
-- सागर निज़ामी









९१५. आप को देखा तो रोना आ गया—२४-६-०७ की गज़ल, ई-कविता को २४-६-०७ को प्रेषित


आप को देखा तो रोना आ गया
याद दिल का कत्ल होना आ गया

कुछ हुए हम पे सितम ऐसे हसीं
दिल को हंस के चैन खोना आ गया

मैं अभी तक दर्द से अनजान था
दिल को गम का बोझ ढोना आ गया

कब तलक करतीं भला ये इन्तज़ार
हसरतों को आज सोना आ गया

मर्ज़-ए-दाग-ए-दिल था मेरा लाइलाज़
अब खलिश अश्कों से धोना आ गया.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
२३ जून २००७







एद
ग़मे-दुनिया ने कई बार रुलाया हमको
ख़्वाब झूठा है कई बार दिखाया हमको

हमने जो राह चुनी वो ही बनी है दुश्मन
ज़िंदगी छोड़ दें ये ख़्याल भी आया हमको

रात तनहाई में अकसर ही चला आता है
बड़ा दिलकश है लगे मौत का साया हमको

दिल जो टूटा था कभी आज तलक डरता है
हुस्न ने यूं तो कई बार बुलाया हमको

कोई तो राज़ है दिल में जो निहां रखा है
बस इशारों की ज़ुबां में ही बताया हमको

है वज़ह कुछ तो ख़लिश ख़ुद ही हमारी रूह ने
आज पैग़ाम है रुखसत का सुनाया हमको.






P९१६. ग़मे-दुनिया ने कई बार रुलाया हमको—२५-६-०७ की गज़ल, ई-कविता को २५-६-०७ को प्रेषित--RAMAS


ग़मे-दुनिया ने कई बार रुलाया हमको
ख़्वाब झूठा है कई बार दिखाया हमको

हमने जो राह चुनी वो ही बनी है दुश्मन
ज़िंदगी छोड़ दें ये ख़्याल भी आया हमको

रात तनहाई में अकसर ही चला आता है
बड़ा दिलकश है लगे मौत का साया हमको

दिल जो टूटा था कभी आज तलक डरता है
हुस्न ने यूं तो कई बार बुलाया हमको

कोई तो राज़ है दिल में जो निहां रखा है
बस इशारों की ज़ुबां में ही बताया हमको

है वज़ह कुछ तो ख़लिश ख़ुद ही हमारी रूह ने
आज पैग़ाम है रुखसत का सुनाया हमको.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
२४ जून २००७

तर्ज़—फिर न कीजे मेरी गुस्ताख निगाहों का गिला





०००००००००००००००

from Rakesh Khandelwal <rakesh518@yahoo.com

date Jun 25, 2007 5:52 AM

है वज़ह कुछ तो खलिश खुद ही हमारी रूह ने

शै-ए-रुखसत का है पैगाम सुनाया हम को.

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राज है कोई जिसे करते नहीं है जाहिर
बस इशारों में ही कुछ कुछ है बताया हमको

दाद कबूलें

राकेश

००००००००००००००००००००००

from Devi Nangrani <devi1941@yahoo.com>
date Jun 27, 2007 2:10 AM

Waahhhhh khoob kaha hai Maheshji

KhuD hi khud ko hai rulaate, khud hasaate bhi hai
aaina khud aks bhi khud kya paata hai humko.
Devi

०००००००००००००००००००००००












९१७. मुझे तुम जब से मिले दुनिया मेरी रौशन है, मुझे दुनिया की बहारों से भला क्या लेना—२६-६-०७ की गज़ल, ई-कविता को २६-६-०७ को प्रेषित


मुझे तुम जब से मिले दुनिया मेरी रौशन है, मुझे दुनिया की बहारों से भला क्या लेना
तुम हो ग़र पास ज़माने का मुझे क्या ग़म है, मुझे सोने के चिनारों से भला क्या लेना

मुझे हर वक्त तुम्हारी ही सदा आती है, मेरी नज़रों में मेरे दिल पे तुम्हीं छाये हो
तुम हो ग़र साथ तो सहरा भी चमन है मुझ को, मुझे सरसब्ज़ नज़ारों से भला क्या लेना

हाथ पकड़ा है मेरा साथ निभाओगे सदा, मुझे पूरा है यकीं तुम न दगा दोगे कभी
तुम जहां पांव रखोगे वो मेरी मंज़िल है, मुझे जन्नत के किनारों से भला क्या लेना

बड़े अरमान से उल्फ़त का नशेमन मैंने, कांपते दिल से, वफ़ाओं से, बनाया है खलिश
मेरी ये पाक मोहब्बत है सनम मेरी कसम, मुझे चाहत के बज़ारों से भला क्या लेना.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
२४ जून २००७

तर्ज़--
फिर ना कीजे मेरी गुस्ताख़ निगाहों का गिला
देखिये आप ने फिर प्यार से देखा मुझको
--साहिर

००००००००००००००००००००

from roop hans <roophanshabeeb@yahoo.com>

date Jun 26, 2007 8:51 AM

Tum jahan paoN rakhoge vo meri manzil hai..;

Mar'rhavaaha..... kaya baat hai Kalish ji lagta hai fir se kisi ki muhabbat raas aa gayee, ya fir dil ke gubaar ab nikalane lage hain.../mubarak.

०००००००००००००००००००००००







P ९१८. हम राज़ बयां क्या कीजे अब न वक्त रहा न राज़ रहा—बिना तिथि की गज़ल, ई-कविता को २५-६-०७ को प्रेषित--RAMAS

हम राज़ बयां क्या कीजे अब न वक्त रहा न राज़ रहा
हैं सिर्फ़ बचीं दीवारें कुछ, न तख्त रहा न ताज रहा

वो खत्म हुई महफ़िल कबकी, अब दाद नहीं इरशाद नहीं
हम हैं कि तराना गाते हैं, साज़िन्दा है न साज़ रहा

वो कभी हमारे पहलू में हंस-हंस के रात बिताते थे
अब इक लमहा भी भारी है, न प्यार न वो अन्दाज़ रहा

निकले थे प्यार की राहों में, हमसफ़र मिला, न सफ़र हुआ
इब्तिदा हुई, मंज़िल न मिली, आगाज़ महज़ आगाज़ रहा

शायर बन कर पछताओगे, कहता था ख़लिश ज़माना सब
दिन रात ग़ज़ल लिखते हैं अब, न काम रहा न काज रहा.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
२५ जून २००७








९१९. दुनिया से बेगाना हूं मैं—२८-६-०७ की गज़ल, ई-कविता को २८-६-०७ को प्रेषित


दुनिया से बेगाना हूं मैं
बेहतर है दीवाना हूं मैं

बस्ती-ए-ग़म में रहता हूं
हर लमहा मस्ताना हूं मैं

न कुछ वज़ूद बाकी है
भूला सा अफ़साना हूं मैं

जीने के ज़ुर्म का भरता
दिन रात हरजाना हूं मैं

जो रौशनी को तरसे वो
तारीक तहखाना हूं मैं

फ़ानी-ए-फ़न की महफ़िल में
अन्दाज़ बचकाना हूं मैं

इक दिन खलिश जल जाऊंगा
आखिर तो परवाना हूं मैं.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
२७ जून २००७

००००००००००००००००००००००००

from sunita chotia <shanoo03@yahoo.com>
date Jun 28, 2007 8:18 AM

खलिश भाई अच्छा लिखते है आप...
बहुत अच्छी रचना
शानू

००००००००००००००००००००









९२०. ज़िन्दगी का सिलसिला किस कदर अजीब है


ज़िन्दगी का सिलसिला किस कदर अजीब है
अजनबी रहा कभी आज जो करीब है

दूर है तो क्या हुआ है तो दिल के पास ही
प्यार में सताये जो लगे वही रकीब है

दे दिया है दिल मगर सिला हमें नहीं मिला
जानते हैं इश्क में बस यही नसीब है

दौर अब बदल गया सभी यहां पराये हैं
किस्मतों से ही मिले कभी कोई हबीब है

दौलतों से दिल नहीं तुले जहां में आज तक
क्या खता हुई अगर खलिश बहुत गरीब है.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
२७ जून २००७








९२१. ख्याले-ग़म दिल को सताता है तो रो लेता हूं —२९-६-०७ की गज़ल, ई-कविता को २९-६-०७ को प्रेषित--RAMAS


ख्याले-ग़म दिल को सताता है तो रो लेता हूं
दिले-बर्बाद रुलाता है तो रो लेता हूं

प्यार जो मैंने किया रास न आया मुझको
जब कोई याद दिलाता है तो रो लेता हूं

नग़मा-ए-तर्केमोहब्बत-ओ-वफ़ा का कोई
दिलजला मुझको सुनाता है तो रो लेता हूं

जिसने पाया है वफ़ाओं का ज़फ़ाओं से सिला
दाग़े-दिल अपने दिखाता है तो रो लेता हूं

मुझे मन्ज़िल न मिली प्यार की राहों में ख़लिश
हादसा याद वो आता है तो रो लेता हूं.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
२८ जून २००७

तर्ज़—
जब ग़म-ए-इश्क सताता है तो हंस लेता हूं












९२२. यकीं प्यार का नहीं उन्हें, अहसास कराऊंगा कैसे

यकीं प्यार का नहीं उन्हें, अहसास कराऊंगा कैसे
नहीं पकड़ने वाला हो तो हाथ बढ़ाऊंगा कैसे

मेरे दिल मैं तुम ही तुम हो पर सबूत क्योंकर लाऊं
चीर के सीना अपने दिल को तुम्हें दिखाऊंगा कैसे

रंग सभी हैं तुम में लेकिन एक वफ़ा का रंग नहीं
पाक मोहब्बत का चाह कर भी ख्वाब सजाऊंगा कैसे

मैंने नाता तोड़ लिया उन से जो मेरे मोहसिन हैं
इतने अहसानों का आखिर बोझ उठाऊंगा कैसे

फ़िकरे सभी कसेंगे मुझ पर दर्द न कोई समझेगा
हाल किसी को अपने दिल का खलिश बताऊंगा कैसे.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
२९ जून २००७









९२३. मुझ को बेशक पत्थर मारो बात मगर मेरी सुन लो—३०-६-०७ की गज़ल, ई-कविता को ३०-६-०७ को प्रेषित

मुझ को बेशक पत्थर मारो बात मगर मेरी सुन लो
दुनिया और दिल की दौलत में तुम चाहे जिस को चुन लो

चाहे पूजा कर लो मेरी चाहे सूली लटका दो
मुझ में भरे हुए हैं दोनों, गुन लो चाहे अवगुन लो

मिलने का मैं गाऊं तराना या बिरहा की तान धरूं
किस का मैं आगाज़ करूं तुम जो चाहो मुझ से धुन लो

चन्द लफ़्ज़ हैं पास मेरे मुझ से ले लो फिर तुम इन से
कोई तकरीर-ए-कत्ल लिखो या गज़ल प्यार की तुम बुन लो

जो है खुदा तुम्हारा मैं भी खलिश उसी की हूं औलाद
मुझे देख नफ़रत से दिल में तुम चाहे जितना भुन लो.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
२९ जून २००७









९२४. मेरी नीलामी पर बोली आये लगाने सारे लोग –ईकविता, ७ मई २००८


मेरी नीलामी पर बोली आये लगाने सारे लोग
मुझे लूटकर अपने घर को आये बचाने सारे लोग

पहला पत्थर मुझे मारने का हक सभी जताते थे
रिश्ता मुझसे कभी न था ये आये बताने सारे लोग

हाथ सेक लेंगे कुछ अपने, रात जरा होगी रौशन
यही सोचकर मेरे घर को आये जलाने सारे लोग

किसी ज़माने में जिन सबका मोहसिन मैं कहलाता था
मेरी बदकारी के किस्से आये सुनाने सारे लोग

ख़लिश मोहब्बत का सबको जो सबक सिखाने आया था
टांग उसे सूली पर खुशियां आये मनाने सारे लोग.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
२९ जून २००७

मोहसिन--परोपकारी









९२५. बाहर से हंसने वाला दिल अन्दर मुझ को सर्द मिला

बाहर से हंसने वाला दिल अन्दर मुझ को सर्द मिला
देखा बिना मुलम्मे के तो चेहरा मुझ को ज़र्द मिला

सोचा था मैं दुनिया को कुछ बोल अमर दे जाऊंगा
गीतों को गाने बैठा तो वही पुराना दर्द मिला

उम्र हुई चलते चलते पग थके आस भी टूट गयी
खा गयीं राहें मन्ज़िल मेरी मुझ को केवल गर्द मिला

यूं तो मातमपुर्सी करने दुनिया वाले आये थे
जिस ने पूछा हाल मेरा अन्दर से वो बेदर्द मिला

भरम, गिले, शिकवे जितने थे, ख़लिश टूट गये सारे आज
अरसे बाद मिला मुझ से तो हो कर वो बेपर्द मिला.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
३० जून २००७







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